अजय सिंह चौहान || सनातन संस्कृति, आस्था व भक्ति का अलौकिक संगम है देवभूमि उत्तराखण्ड। कदम-कदम पर दिव्य एवं अलौकिक शक्तियों के देवालय और सिद्धाश्रमों से सजी इस देवभूमि उत्तराखण्ड में तीर्थ स्थलों की एक लंबी श्रृंखला भी है। देश और दुनिया के तमाम क्षेत्रों से यहां दर्शन करने के लिए पधारने वाले आगन्तुकों के लिए उत्तराखण्ड की यह पावन धरती उनके हृदय को निर्मलता एवं दिव्यता प्रदान करती है। देवभूमि के ऐसे ही तमाम अद्भूत दर्शनीय स्थलों में से एक आस्था व पावनता का दिव्य स्थल भक्ति व मुक्ति प्रदान करने वाली माँ चन्द्रबदनी शक्तिपीठ का महत्व भी सबसे निराला है।
देवभूमि उत्तराखंड के देवप्रयाग में गंगा नदी के पूर्व भाग, और चन्द्रकूट पर्वत की लगभग 7500 फिट ऊंचाई वाली चोटी पर स्थित इस शक्ति स्थल को अनादिकाल से देवी ‘चन्द्रबदनी शक्तिपीठ’ मंदिर के नाम से पुकारा जाता है। काफल, बुरांस तथा देवदार जैसे वृक्षों से घिरे हुए होने के कारण यह शक्तिस्थल बहुत ही मनमोहन दृश्य प्रस्तुत करता है।
मंदिर के पूरी तरह से प्राकृतिक छटा के बीच मौजूद होने के कारण भी मैदानी क्षेत्रों से आने वाले भक्तों के लिए यहां की स्वास्थ्यवर्धक जलवायु का अपना अलग आनंद और अनुभव होता है। मंदिर के आसपास के घने जंगल में पशु-पक्षियों की उपस्थिति और नियमित होने वाली आरती, मंत्रोचारणों से यहां के वातावरण में दिव्यता का आभास होता है।
और क्योंकि यह अनादिकाल में स्थापित एक दिव्य शक्तिपीठ मंदिर है इसलिए यहां पूजा-पाठ भी अनादिकाल से ही होती आ ही है। इसी कारण इससे जुड़े तमाम प्रकार के रहस्य और पौराणिक तथ्य तथा साक्ष्य भी हमें देखने और सुनने और पढ़ने को मिलते हैं।
मंदिर से जुड़ी तमाम तरह की किंवदंतियां और ऐतिहासिक प्रमाण आज भी मौजूद हैं। उन्हीं किंवदंतियों और तथ्यों के आधार पर कहा जाता है कि माता चन्द्रबदनी शक्तिपीठ के इस मंदिर में पहले कभी नरबली की प्रथा भी प्रचलीत हुआ करती थी। उसके बाद उस नरबली को पशुबली में बदल दिया गया और अब वह प्रथा भी पुरी तरह से एक सात्विक विधि-विधान में बदल कर फलों और फूलों तक रह गई है।
जहां एक ओर अधिकतर श्रद्धालु और स्थानीय निवासी इस पीठ को शक्तिपीठ मानते हैं वहीं कुछ विद्ववानों का मत है कि यह शक्तिपीठ नहीं बल्कि एक सिद्धपीठ स्थल है।
मंदिर के गर्भगृह में मौजूद दिव्य और चमत्कारी श्रीयंत्र इस मंदिर में कब, कैसे, कहां से आया और किसके द्वारा लाया गया इस बारे में कोई खास साक्ष्य और उल्लेख मौजूद नहीं है। लेकिन, कहा जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने इस चमत्कारी श्रीयंत्र से प्रभावित होकर ही चंद्रकूट पर्वत पर चंद्रबदनी मंदिर की स्थापना की थी। इसलिए यह शक्तिपीठ नहीं बल्कि सिद्ध पीठ है। जबकि इसी दिव्य श्रीयंत्र के कारण यह पीठ सिद्ध की बजाय शक्तिपीठों में माना जाता है। जबकि पौराणिक साक्ष्यों को आधार मानें तो देवी भागवत पुराण, स्कंदपुराण और महाभारत जैसे पवित्र गं्रथों में भी इस पीठ का वर्णन मिलता है।
पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि भगवान विष्णु के चक्र से कट कर माता सती का धड़, यानी बदन का प्रमुख भाग इसी पर्वत की चोटी पर गिरा था, इसलिये इस स्थान का नाम ‘चन्द्रबदनी शक्तिपीठ’ पड़ गया और इस पर्वत का ना भी चन्द्रकूट पर्वत हो गया। पद्मपुरण के केदारखण्ड में भी माता चन्द्रबदनी शक्तिपीठ का वर्णन विस्तार से मिलता है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि महाभारत काल के गुरु द्रोण पुत्र अश्वस्थामा को लोगों ने कई बार यहां माता के मंदिर के आस-पास देखा है।
मंदिर से जुड़े ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों और अवशेषों से पता चलता है कि कार्तिकेयपुर, बैराठ के कत्यूरी और श्रीपुर के पंवार राजवंशी शासनकाल से पहले भी यह पीठ यहां स्थापित था।
उत्तराखंड राज्य के देवप्रयाग जिले में स्थित चन्द्रकूट पर्वत की चोटी पर स्थित इस चन्द्रबदनी शक्तिपीठ मंदिर के गर्भगृह में माता की कोई विशेष आकृति या मूर्ति नहीं है, बल्कि यहां माता के प्रतीक के रूप में एक श्रीयंत्र स्थापित है।
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मंदिर के पुजारी बताते हैं कि गर्भगृह में मौजूद माता का यह श्रीयंत्र हमेशा कपड़े ढंका रहता है। इस श्रीयंत्र में इतना तेज है कि नंगी आंखों से उसके दर्शन करना किसी भी मानव के लिए संभव नहीं है। इसलिए पूजन और दूध से स्नान आदि के समय पुजारी द्वारा अपनी आखों पर पट्टी बाध कर या आंखें बंद करके या फिर नजरें झुकाकर ही श्रीयंत्र पर कपड़ा डालता है।
कहा जाता है कि एक बार किसी पुजारी ने अज्ञानतावश खुली आंखों से माता चन्द्रबदनी के इस श्रीयंत्र पर कपड़ा डालने की कोशिश की थी, जिसके बाद वह पुजारी अंधा हो गया था।
इस श्रीयंत्र के साक्षात दर्शन आदिगुरु शंकराचार्य के बाद से अब तक कोई भी नहीं कर पाया है। बताया जाता है कि यह श्रीयंत्र एक काले पत्थर पर अंकित है। इस श्रीयंत्र के ऊपर चांदी का एक बड़े आकार वाला छत्र ढंका रहता है। इसके अलावा इस श्रीयंत्र के पूजन में प्रयोग किये जाने वाले शंख का पवित्र जल पीने का बड़ा महत्व माना जाता है।
स्थानीय परंपरा के अनुसार मंदिर में पूजा-पाठ या पूजारी की जिम्मेदारी केवल जनपद टिहरी गढ़वाल के ‘पुजार गांव’ से जुड़े भट्ट परिवार के लोग ही करते आ रहे हैं।
किंवदंतियों और मान्यता के अनुसार मंदिर के पास ही में एक ऐसा कुण्ड भी है जो अदृश्य है। उस अदृश्य कुण्ड के बारे में कहा जाता है कि जो भक्त एवं साधू-सन्यासी यहां सच्चे मन से माता की भक्ती और तपस्या करते हैं उन्हीं को उस कुण्ड के दर्शन होते हैं। कहा जाता है कि माता चन्द्रबदनी मंदिर के गर्भगृह से निकल कर उस अदृश्य कुण्ड में नियमित स्नान करने जाया करती हैं।
ऋषि स्कंद ने ‘स्कंद पुराण’ में इस सिद्व पीठ की महिमां का वर्णन करते हुए देवताओं को बताया है कि यह स्थान समस्त सिद्धियों का प्रदाता है, इसलिए इस शक्ति स्थल के दर्शन करने मात्र से जन्म जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं। ऋषि स्कंद के अनुसार जो भक्त यहां तीन दिनों तक फलाहार करके निवास करते हुए देवी का जाप करता है, उन्हें उत्तम प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
नियमित रूप से यहां आने और दर्शन तथा भक्ति करने आने वाले श्रद्धालुओं का भी कहना है कि माता चन्द्रबदनी अपने भक्तों को कभी खाली हाथ नहीं जाने देतीं और यहां जो दान दिया जाता है, माता उसका फल करोड़ की सख्यां में लौटा कर देती हैं।
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यहां का मौसम –
आम श्रद्धालुओं के लिए माता चन्द्रबदनी शक्तिपीठ मंदिर खुलने का समय प्रतिदिन प्रातः 6 बजे से शाम 7 बजे तक का है। मंदिर के कपाट वर्ष भर खुले रहते हैं जिसके कारण देश और दुनिया के दूर-दराज के क्षेत्रों से आने वाले तमाम श्रद्धालुओं को भी यहां माता के दर्शन आसानी से हो जाते हैं।
अगर आप भी यहां दर्शनों के लिए जाना चाहते हैं तो ध्यान रखें कि यहां जाने के लिए सबसे अच्छा समय अप्रैल से अक्टूबर तक का होता है। लेकिन,यह भी ध्यान रखें कि अगर आप यहां बारिश के मौसम में आना-जाना करते हैं तो पहाड़ी रास्तों के धंसने से परेशानी हो सकती है।
सर्दी के मौसम में भी मैदानी इलाकों से यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए थोड़ी मुश्किल होती है, क्योंकि सर्दी के मौसम में भारी बर्फबारी के कारण यहां का तापमान बहुत अधिक नीचे चला जाता है।
यहां चैत्र तथा शरद नवरात्र के अवसरों पर हजारों की संख्या में भीड़ उमड़ती है। ऐसे में आपको यहां अत्यधिक भीड़ का सामना करना पड़ सकता है।
मंदिर क्षेत्र में भोजन एवं ठहरने की व्यवस्था बहुत बड़े स्तर पर तो नहीं है लेकिन, यहां मंदिर के पास ही में यात्रियों के लिए निजी विश्राम गृह और भोजनालयों की स्थानीय स्तर पर अच्छी व्यवस्था देखी जा सकती है।
कैसे जायें-
सिद्धपीठ चन्द्रबदनी जनपद टिहरी के हिण्डोलाखाल विकासखण्ड में समुद्रतल से 7,500 फिट की ऊंचाई पर चन्द्रकूट पर्वत पर स्थित है।
माता चंद्रबदानी मंदिर का निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश है और निकटतम हवाई अड्डा देहरादून में है। इसके बाद तो मंदिर तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता सड़क मार्ग ही है।
उत्तराखंड के श्रीनगर शहर से लगभग 55 किमी और रुद्रप्रयाग शहर से लगभग 85 किमी दूर स्थित है, जबकि देवप्रयाग से इस मंदिर की दूरी लगभग 35 किमी है। और अगर आप ऋषिकेश से यहां जाते हैं तो यही दूरी देवप्रयाग होते हुए करीब 110 किमी है। पुरानी टिहरी से यही दूरी करीब 45 किमी है।