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गढ़ मुक्तेश्वर का पौराणिक महत्व और आधुनिक इतिहास | History of Garh Mukteshwar

admin 12 August 2021
गढ़ मुक्तेश्वर का पौराणिक महत्व और आधुनिक इतिहास | History of Garh Mukteshwar
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अजय सिंह चौहान || भारत भूमि पर नदियों के किनारे वर्ष के बारहों मास लगने वाले तमाम छोटे-बड़े मेलों और तीर्थ स्थानों की भीड़ का भारतीय संस्कृति में बहुत खास पौराणिक, सांस्कृतिक और वैदिक महत्व है। उसी महत्व के अनुसार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ जनपद के गढ़ मुक्तेश्वर में कार्तिक पूर्णिमा पर लगने वाला मेला न सिर्फ पौराणिक महत्व रखता है बल्कि सनातन संस्कृति के लिए यह मेला और यहां का पवित्रा गंगा स्नान देश और दुनिया के लिए सदियों से पर्यटन के लिए भी महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है।
दिल्ली से करीब 100 किमी दूर और राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 24 से लगे, गंगा नदी के दाहिने तट पर स्थित गढ़ मुक्तेश्वर में कार्तिक पूर्णिमा पर आयोजित होने वाला गंगा स्नान और यह मेला यहां अनादिकाल से लगता आ रहा है। जबकि, महाभारत युद्ध के बाद से इस स्थान का महत्व और भी अधिक बढ़ गया।

कार्तिक पूर्णिमा पर आयोजित होने वाले इस पवित्रा और प्रसिद्ध स्नान पर्व और यहां लगने वाले मेले की खासियत यह है कि महाभारत युद्ध के बाद गढ़ मुक्तेश्वर के इसी गंगा तट पर भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर सम्राट युधिष्ठिर ने कौरवों तथा पांडवों की सेना के मारे गए असंख्य वीर योद्धाओं और सैनिकों की आत्मा की शांति के लिए उनका तर्पण किया था।

जहां एक ओर पौराणिक साक्ष्य और तथ्य गढ़ मुक्तेश्वर के महत्व को साफ-साफ बताते हैं वहीं आज के इतिहासकार और जानकार भी मानते हैं कि यह स्थान तो द्वापर युग के भी पहले से प्रसिद्ध हुआ करता था। क्योंकि शिवपुराण के अनुसार आज के इस ‘गढ़मुक्तेश्वर‘ का प्राचीन नाम ‘शिववल्लभ‘ हुआ करता था, यानी जो भगवान शिव का ही एक प्रिय नाम है।

पुराणों में गढ़ मुक्तेश्वर की महिमा काशी के समान ही बताई गई है, क्योंकि गढ़ मुक्तेश्वर में ही भगवान शिव ने अपने जय और विजय नाम के गणों को महर्षि दुर्वासा के द्वारा दिये गये पिशाच योनि के श्राप से मुक्ति दिलाई थी। जिसके बाद से इस स्थान का नाम गणमुक्तीश्वर यानी कि गणों की मुक्ति करने वाले भगवान शिव के नाम से पड़ गया था। गणमुक्तीश्वर का वही प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिर आज भी उस पौराणिक घटना का साक्षी है। लेकिन, समय के साथ-साथ आम बोलचाल की भाषा के ऊच्चारण के कारण यह नाम गणमुक्तीश्वर से बदल कर गढ़ मुक्तेश्वर कहलाने लगा है।

त्रोता युग की बात करें तो भगवान श्रीराम के पूर्वजों में से एक महाराज शिवि ने भी वानप्रस्थ के दौरान इसी गढ़ मुक्तेश्वर में गंगा नदी के तट पर अपना आश्रम बनाकर शेष जीवन बिताया था।

शिव पुराण में वर्णन मिलता है कि इसी गढ़ मुक्तेश्वर के क्षेत्रा में गंगा नदी के दौनों ही किनारों पर एक घना वन हुआ करता था जिसे खांडवी वन के नाम से पहचाना जाता था। इसी खांडवी वन में भगवान परशुराम ने एक ऐसे शिवलिंग की स्थापना की थी जो बाद में बल्लभ संप्रदाय का प्रमुख केंद्र बना और उसी शिव मंदिर के आस-पास के क्षेत्रा का नाम बाद में शिव बल्लभ पुर पड़ गया।

महाभारत काल की बात करें तो त्रोता युग का यही खांडवी वन, द्वापर युग में यानी महाभारत के काल में खांडव वन के नाम से पहचाना जाने लगा और यही खांडव वन बाद में खांडवप्रस्थ कहलाया और उसके बाद इंद्रप्रथ बना। यही खांडव वन हस्तीनापुर राज्य के अधीन हुआ करता था इसलिए पांडवों ने खांडव वन में अपना नया राज्य स्थापित किया था।

आज भले ही हम पौराणिक युग के इस स्थान को गणमुक्तीश्वर के बजाय गढ़ मुक्तेश्वर कहते हैं और इसी नाम से दुनिया भी इसे जानती है। लेकिन, यह वही पवित्रा तीर्थ है जहां महाभारत युद्ध के बाद भगवान श्रीकृष्ण की सलाह पर, सम्राट युधिष्ठिर ने निर्णय लिया था कि कौरवों तथा पांडवों की दोनों ही सेनाओं की तरफ से युद्ध में मारे गये उन सभी असंख्य वीर योद्धाओं और सैनिकों की आत्माओं की शांति के लिए यहीं, इसी गढ़ मुक्तेश्वर में तर्पण किया जायेगा।

सम्राट युधिष्ठिर के उस निर्णय के बाद भगवान परशुराम द्वारा स्थापित शिवबल्लभपुर यानी गढ़ मुक्तेश्वर के मुक्तेश्वर महादेव मंदिर में पूजा और यज्ञ आदि करके मृतकों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण किया गया था।

सम्राट युधिष्ठिर के द्वारा लिये गये उस निर्णय के बाद जो शुभ मुहूर्त निकाला गया वह कार्तिक शुक्ल अष्टमी का ही दिन था। इसी दिन गऊ पूजन करके गढ़ मुक्तेश्वर के इसी गंगा तट पर एकादशी को गंगा मैदान में सम्राट युधिष्ठिर के द्वारा धार्मिक संस्कार करके पिंडदान किया गया। यह वही एकादशी है जिसे हम देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जानते हैं।

महाभारत युद्ध में मारे गए लोगों की आत्मा की शांति के लिए एकादशी से चतुदर्शी तक यहां यज्ञ किया गया, और इसके अगले दिन यानी पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करके कथा का आयोजन किया था।

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अब अगर हम यहां गढ़ मुक्तेश्वर में लगने वाले गंगा मेले के इतिहास की बात करें तो इतिहासकारों ने इस मेले को बहुत अधिक पुराना नहीं माना है। लेकिन, फिर भी इसके बारे में बताया जाता है कि, यहां उस दौर में अखण्ड भारत के लाखों श्रद्धालु इस विशेष दिन पर गंगा स्नान के आते थे इसलिए यहां अच्छी-खासी सांस्कृतिक तथा धार्मिक चहल-पहल होने लगती थी, इसलिए उन श्रद्धालुओं की सुविधा के अनुसार यहां विशेष दुकानें भी सजने लगीं और धीरे-धीरे यह एक प्रकार से वार्षिक मेले के रूप में आयोजित होने लगा। तब से लेकर आज तक यह विशेष कार्तिक पूर्णिमा के गंगा मेले के रूप में जाना जाता है और अब तो यह उत्तर भारत में आयोजित होने वाले सबसे बड़े मेलों में से एक बन चुका है।

गढ़ मुक्तेश्वर के इसी कार्तिक पूर्णिमा के स्नान के लिए हजारों वर्षों से अखण्ड भारत की तमाम दिशाओं से श्रद्धालु आते रहे हैं और आज भी आते हैं। ऐसे में तब से लेकर आज तक स्थानीय प्रशासन को भी इससे अच्छी खासी आय होने लगी। उस आय से श्रद्धालुओं के लिए यहां कई प्रकार की सुविधाओं का भी विस्तार किया जाने लगा, कई भव्य मंदिर और यात्राी निवास स्थानों के अलावा आवागमन के मार्गों को सुधारा जाता रहा। लेकिन, विदेशी आक्रमणों के दौर में यहां कई बार भीषण रक्तपात और लूटपाट की घटनाएं होती गई, कई प्रकार से षड्यंत्रा और तांडव भी मचाया गया और कई बार यहां के मंदिरों को भी लूटा गया।

आज भले ही यहां से गंगा नदी को व्यापार मार्ग के लिए प्रयोग में नहीं लाया जाता। लेकिन, यहां से बहने वाली पवित्रा गंगा नदी महाभारत काल में व्यापार के लिए एक प्रमुख जलमार्ग का केंद्र हुआ करती थी। इसके अलावा यह स्थान हस्तिनापुर की राजधानी से लगा हुआ था इसलिए भी उस दौर में इस जलमार्ग का महत्व बढ़ गया था।

ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि महाभारत काल के दौरान हस्तिनापुर के उत्तर में, गंगा नदी के किनारे और खाण्डवी वन क्षेत्रा में एक पुष्पावती उद्यान भी हुआ करता था, जिसे पांडवों ने रानी द्रोपदी के लिए विकसित करवाया था। हस्तिनापुर से पुष्पावती उद्यान तक आने-जाने के लिए करीब 35 किलोमीटर तक एक गुप्त मार्ग भी बनवाया गया था, जिसके अवशेष कुछ वर्ष पहले तक भी देखे जा सकते थे। वर्तमान में उस स्थान पर ‘पूठ’ नाम का गांव बसा हुआ है।

इसके अलावा गढ़ मुक्तेश्वर से करीब 70 किमी की दूरी पर अनुपशहर तहसील में बसे अहार नामक प्राचीन गांव में भी प्राचीन सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं जो महाभारत काल के बताये जाते हैं।

आज गढ़ मुक्तेश्वर का महत्व न सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिकता से भरपूर है बल्कि ऐतिहासिकता और प्राकृतिक खूबसूरती को भी समेटे हुए है इसलिए यहां देश के ही नहीं बल्कि विदेशी पर्यटकों को भी देखा जा सकता है।

पौराणिक युग के इसी मुक्तेश्वर महादेव मंदिर के सामने स्थित बाग के विषय में कहा जाता है कि इस बाग में स्थित मंदिर की स्थापना उदयपुर की रानी मीराबाई ने कराई थी। स्नान पर्व और कार्तिक मेले के दौरान इस मंदिर में शुरूआत से ही सनातन प्रेमियों के द्वारा भारी चढ़ावा आता रहा है। इसलिए औरंगजेब ने इस मंदिर को नष्ट करवा दिया और इस स्थान को अमरोहा के फकीरों को जागीर के रूप में दे दिया था। वर्तमान में यहां पर एक बनावटी कब्र देखी जा सकती है जो अब मकबरे का रूप ले चुकी है। भले ही आज यहां फकीरों का कब्जा हो चुका है लेकिन, फिर भी सनातन की यही खासियत है कि आज भी यहां कार्तिक मेले के दौरान उसी प्रकार से और उसी श्रद्धाभाव से भारी मात्रा में चढ़ावा आता रहता है।

इन सबसे अलग वर्तमान इतिहास की बात करें तो गढ़ मुक्तेश्वर स्वाधीनता संग्राम का भी सबसे महत्वपूर्ण गढ़ रहा है। क्योंकि सन 1857 की क्रांति से लेकर आजादी मिलने तक यहां लगातार क्रांतिकारियों ने अपने गुस्से की मशालें जला कर रखीं थीं।

गढ़ मुक्तेश्वर में स्नान पर्व और मेले में भाग लेने के लिए हर वर्ष लाखों की संख्या में देशभर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। श्रद्धालुओं और देश-विदेश के पर्यटकों के लिए यहां विशेष इंतजाम देखे जा सकते हैं। इस दौरान गंगा किनारे के विशाल मैदान पर तंबुओं का एक विशेष नगर बस जाता जाता है।

आस्था और भक्ति का समागम कहे जाने वाला और दीपावली के बाद कार्तिक पूर्णिमा पर लगने वाला यह मेला आज एक विशाल स्वरूप ले चुका है। इस प्रसिद्ध मेले के बारे में बताया जाता है कि गंगा किनारे स्थित यहां के मखदूमपुर क्षेत्रा में वर्ष 1929 से ही यह मेला यहां आधिकारित तौर पर लगता आ रहा है, इसलिए व्यापारिक दृष्टि से भी यह बहुत महत्व रखता है। जबकि इसके पहले यहां आसपास के ग्रामीण खुद ही श्रद्धालुओं के लिए रहने और खाने-पीने की व्यवस्थाएं किया करते थे। इसके बाद जिल पंचायत ने इस मेले का आयोजन अपने हाथों में ले लिया था।

दूर दराज से आने वाले लोग यहां मात्रा इस मेले में घूमने ही नहीं आते हैं बल्कि यहां के सांस्कृतिक और धार्मिक कर्मकांणों जैसे मन्नत, मुंडन संस्कार, पिण्ड दान और गंगा पूजन, गंगा स्नान और स्थानीय मंदिरों में दर्शन कर अपने वर्तमान को धन्य करते हैं।

आज सनातन को हमारे इन स्थानों के विषय में न सिर्फ कहने या बात करने की बल्कि, जीने की भी आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इन धार्मिक स्थानों और क्षेत्रों के बारे में जान सकें और यहां आकर अनुभव कर सके और जान सके कि हमारे अपने कहे जाने वाले इन तीर्थ क्षेत्रों का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व क्या है और हमारे लिये ये स्थान आवश्यक क्यों हैं।

राष्ट्रीय राजमार्ग 24 पर राजधानी दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे से करीब 65 किलोमीटर और मेरठ शहर से करीब 42 किलोमीटर दूर गढ़मुक्तेश्वर नामक यह पवित्रा स्थान गंगा नदी के दाहिने किनारे पर बसा उत्तर प्रदेश राज्य के जिला गाजियाबाद का एक तहसील मुख्यालय है। उत्तर प्रदेश रोडवेज की नियमित बसें दिल्ली के आनन्द विहार और महाराणा प्रताप बस अड्डा से चलती हैं।

रेल से आने-जाने वाले यात्रियों के लिए गढ़ मुक्तेश्वर भारतीय रेल मार्ग से भी जुड़ा हुआ है इसलिए यहां का नजदिकी रेलवे स्टेशन गढ़ मुक्तेश्वर है जबकि बृजघाट रेलवे स्टेशन भी यहां से मात्रा 6 किलोमीटर की दूरी पर ही है।

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