जहां एक ओर जैन समाज के मुनियों ने भी अब अपने प्रवचनों में खुल कर सनातन का समर्थन करना प्रारंभ कर दिया है वहीं दूसरी ओर स्वयं हिंदू समाज के ही कुछ तथाकथित कथा वाचकों में से एक मुरारी बापू ने भागवत कथाओं के नाम पर विदेशी चंदे वसुलने के लिए न सिर्फ सीधे-सीधे सूफियाना अंदाज अपना लिया है बल्कि कथा वाचन के नाम पर मोहनदास गांधी की तुलना भगवान श्रीकृष्ण से करनी शुरू कर दी है और मोहनदास गांधी को एक नया पैगंबर मान कर श्रीकृष्ण को एक प्रकार से काल्पनिक करार दे कर नकार दिया है।
इसी प्रकार से एक अन्य बाबा यानी कि सद्गुरू जग्गी वासुदेव जो भगवान शिव के नाम पर इन दिनों दक्षिण भारतीय जनमानस के लिए सब कुछ बन चुके हैं वे भी अब धीरे-धीरे सूफियाना अंदाज अपना चुके हैं और उनके इस सूफियाना अंदाज को महाशिवरात्रि के अवसर पर अलि-मौला की धून पर थिरकते हुए सीधे प्रसारण के माध्यम से सनातनियों ने देखा भी है।
जग्गी वासुदेव ने भी अपने सम्मेलनों में भगवान शिव को एक काल्पनिक और एलियन बता कर अपने आप को एक ऐसे गुरू के रूप में स्थापित कर लिया है कि वे जब चाहे जैसे चाहें भगवान शिव की प्रतिमा के सामने जूते-चप्पल पहन कर नाचने या थिरकने का अधिकार रखते हैं, क्योंकि उनको ये अधिकार उनके अपने ही उन भक्तों ने दिया है जो एक दम ठेठ सनातन संस्कृति से आते हैं। दरअसल गलती यहां जग्गी वासुदेव की भी नहीं कही जा सकती है, क्योंकि सामान वही बिकता है जो सबसे अच्छा दिखता है और शुलभ भी आसानी से हो जाता है या फिर उसमें मनोरंजन की भी गारंटी होती है। और ये सब गुण जग्गी वासुदेव में हैं कि वो अपने ग्राहकों को किस प्रकार की सामग्री दे सकते हैं।
दरअसल, आज का हिंदू समाज आत्मज्ञान की बजाय 100 प्रतिशत रेडीमेड मनोरंजन की भी गारंटी के पीछे भागने में विश्वास रखने लगा है। और ये हाल तभी से है जबसे उसने अपने घर के पूजाघर में भी मनोरंजन को ढंूडना प्रारंभ किया है, ऐसे में आज आस्था और मनोरंजन के बीच का फर्क मात्र इतना ही रह गया है कि सिनेमा घर और पूजा घर दोनों ही में कोई विशेष फर्क नहीं रहा है।
पश्चिम की थ्योरी है कि आप जितना उछलोगे उतना ही आपका मनोरंजर होगा, और सनातन की थ्योरी है कि आप जितना शांत और एकांत बैठोगे उतना ही अध्यात्म की ओर जाओगे। और अध्यात्म की ओर जाने का अर्थ है ईश्वर से साक्षात्कार। यानी कि अगर आप अध्यात्म के बल पर ईश्वर से साक्षात्कार की ओर जाओगे तो एक साधारण हिंदू से एक कदम आगे यानी सनतनी होते जाओगे यानी सनातन में कट्टरता ले आओगे। सनातन में कट्टरता के आते ही आप स्वयं को जान जाओगे और इन तथाकथित बाबाओं के विलासितापूर्ण पांच सितारा आश्रमों से दूर होकर सार्वजनिक मंदिरों में परंपरागत प्रार्थना करने लग जाओगे।
सनातनी होने का मतलब आप पश्चिम को नकारते जाओगे या उसमें अविश्वास जताओगे और उसका उपहास उड़ाओगे। यानी यहां सीधी सी बात है कि आप ओर हम पश्चिम को नकार न सकें इसलिए इन तथाकथित बाबाओं के आश्रमों और उनके निवास स्थानों को वर्ष 18 सौ के आस-पास रचे गये उस षड्यंत्र के माध्यम से डाॅलर और दिनार के दम पर आधुनिक और आलीशान बना दिया जाये ताकि इनमें अध्यात्म की शांति और एकाग्रता की उर्जा भंग हो सके और परंपरागत सनातनी वहां आकर अपनी उस साधना से भटक जाये।
यहां मैं ये नहीं कह सकता कि सभी बाबा तथाकथित हैं, लेकिन, जितने भी तथाकथित बाबा हैं उनमें मैंने मुरारी बापू जग्गी वासुदेव का नाम विशेष तौर पर इसलिए लिया है क्योंकि सनातन के मानने वाले साधारण और आम लोगों की संख्या इनके पीछे अधिक से अधिक भागती नजर आ रही है और स्वयं मैं भी कुछ दिनों पहले तक जग्गी वासुदेव जी के प्रवचनों और प्रश्न-उत्तरों को बड़े ध्यान से सूनता आ रहा था। मैंने भी कुछ हद तक ऐसी ही अपेक्षाएं लगा रखीं थीं कि जग्गी वासुदेव एक बहुत ज्ञानी संत हैं। हालांकि, मेरे मुकाबले में तो वे हैं ही, लेकिन, समय ने मुझे भी इतना तो जता ही दिया कि समय आ गया है कि अब मैं अपने आप भी कुछ समझूं और जानू कि कहां सनातन और कहां जग्गी वासुदेव।
सीधे-सीधे बात की जाये तो यहां निष्कर्ष निकलता है कि हिंदू धर्म में जग्गी वासुदेव और मुरारी बापू जैसे तथाकथित बाबा तो हो सकते हैं लेकिन, हिंदू धर्म इनके लिए कोई महत्व नहीं रखता। सीधे-सीधे कहें तो सनातन से इनका कोई लेना-देना नहीं हो सकता। मैंने इन बाबाओं के तमाम वीडियो देखे और सूने जिनमें इन बाबाओं ने सिर्फ हिंदू धर्म की और हिंदू धर्म के लिए ही बात की है, लेकिन, इनके सामने जब कभी भी सनातन शब्द या सनातन से संबंधित कोई प्रश्न आता है तो वे या तो अपने अनुयायियों को बरगलाने लगते हैं या फिर वे स्वयं भी नहीं जानते कि सनातन का वास्तविक उत्तर क्या होना चाहिए।
दरअसल यहां ये भी तथ्य सामने आते हैं कि कहीं न कहीं इन तथाकथित बाबाओं को सनातन शब्द से शत-प्रतिशत चीढ़ है। सनानत से चीढ़ इसलिए है क्योंकि सनातन किसी एक पुस्तक से संचालित नहीं होता। सनातन में गुरु यदि प्रश्न करता है तो शिष्य उसका उत्तर भी देता है, और यदि शिष्य प्रश्न करता है तो गुरु को भी उसका उत्तर देना पड़ता है। शास्त्रार्थ की परंपरा के चलते यहां कोई भी किसी से भी बहस कर सकता है, कोई भी किसी को चुनौति दे सकता है। यही कारण है कि ऐसे बाबा शास्त्रार्थ से डरते हैं और एकतरफा संवाद को आधार मान कर अपने आप को सबसे बड़ा विद्वान समझते हैं और अपने सामने बैठे अनुयायियों को भैड-बकरी मान कर हांकते रहते हैं।
सनातन से जुड़े पुराणों में शिष्य को गुरु से महान भी बनते देखा जा सकता है, और भगवान को भी भक्त के आगे विवश होते देखा गया है। सनातन में आवाज उठाने वाले को महान समझा जा सकता है लेकिन, वहीं यदि पश्चिमी थ्योरी के मानने वालों को चुनौति देते हुए कोई कालीचरण महाराज उसी एक पुस्तक से संचालित होने वाले किसी गांधी पर सवाल उठा दे तो उसे जेल में डाल कर उसकी आवाज को दबाया जाता है। यति नरसिंहानंद जैसों को खुलेआम धमकियां दी जाती हैं। क्योंकि यति नरसिंहानंद और कालीचरण महाराज जैसे कुछ उदाहरण हैं जो सनातन को उभारना चाहते हैं और वे किसी एक पुस्तक से संचालित होने वाले मजहब या रीलिजन को चुनौति देने की हिम्मत न कर सकें इसलिए उन्हें प्रताड़ित किया जाता है।
यहां यदि बात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत रूपी बाबा के विषय में भी की जाये तो वे मूर्ति पूजा के शत-प्रतिशत विरोधी हैं और अक्सर अपने भाषणों में ये बात उठाते रहते हैं। लेकिन, दूसरी ओर वे स्वयं भारत माता की पूजा करते हुए देखे जा सकते हैं। यानी उन्हें खुद ही नहीं मालूम कि वे क्या कह रहे हैं और क्या कर रहे हैं। हिंदूओं और उस विशेष मुदाय का डीएनए एक बताकर भला कोई इतना बड़ा संगठन चलाने वाला समझदार व्यक्ति इतनी मात्रा में भांग कैसे खा सकता है। यदि उनसे पूछे कि आप उस विशेष समुदाय के मंच पर अक्सर जाते रहते हैं और वहां से मूर्ति पूजा का विरोध कर सनातन का अपमान करते हुए कहते रहते हैं तो आप ने कभी उन सबसे बड़े मूर्ति पूजकों से पूछा या उनको सलाह दी है कि वे भी अपनी उस विशेष मूर्ति के भी त्याग दें जिसके आगे वे प्रतिदिन पांच बार झूकते हैं। मोहन भागवत जैसा तथाकथित बाबा उस विशेष समुदाय को ऐसी सलाह नहीं दे सकता। इसके पीछे का कारण यही है कि कहा उसी को जाता है जो सूनता है या जो मानता है। और क्योंकि हिंदू समुदाय बिना किसी विरोध के ये बात मान सकता है इसलिए मोहन भागवत को ऐसा कहने में आनंद भी आता है और उनके एजेंण्डे को बल भी मिलता है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत को मूर्ति पूजक सनातनियों से इतना भय इसलिए हो रहा है क्योंकि अब वे उनसे सीधे-सीधे सवाल करने लगे हैं। और न सिर्फ सवाल बल्कि टोकने भी लगे हैं कि मोहन भागवत ने आज क्या गलत कहा है और कल क्या गलत कहा था। उन्हें ये पद किस लिए दिया गया और वे उसका दूरूपयोग किस प्रकार से किन लोगों के लाभ के लिए कर रहे हैं।
संघ के प्रमुख मोहन भागवत खुद उस विशेष समुदाय के मंच से ये बात बता चुके हैं कि मेरा नाम भागवत है लेकिन, मैंने कभी भी भागवत को नहीं पढ़ा है। तो यहां क्या ये समझा जाये कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख के रूप में एक बंदर के हाथ में तलवार पकड़ा दी गई है। यह कहने की आवश्यकता क्या थी कि उन्होंने कभी भी भागवत को नहीं पढ़ा, और वो भी उस विशेष मंच से। क्या हुआ अगर आप ने भागवत को नहीं पढ़ा, ऐसे अनेकों हिंदू हैं जिन्होंने भागवत को नहीं पढ़ा, मैं भ उन्हीं में से एक हूं।
अधिकतर हिंदुओं का सीधे-सीधे कहना है कि मोहन भागवत एक स्वयंसेवी संगठन के प्रमुख हैं, हिंदुओं के नहीं। यदि वे अपना नाम हिंदुओं से जोड़ कर हिंदुओं को मुर्ख बनाते हैं तो यहां ये भी जान लेना चाहिए कि इसमें मोहन भागवत का दोष नहीं है बल्कि हिंदुओं की मूर्खता है कि वे उन्हें अपना प्रमुख मान रहे हैं। मोहन भागवत और हिंदुत्व के बीच विरोधाभाष के अनेकों उदाहण हैं जिनको यहां बता पाना संभव नहीं है।
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यह सच है कि मैंने स्वयं भी सनातन शब्द को पीछले करीब 10 से 12 वर्ष पूर्व से ही बार-बार सूना और पढ़ा है। जबकि इसके पहले तो मैं संभवतः सनातन का शाब्दिक अर्थ ठीक से जानता तक भी नहीं था। लेकिन, मैं बचपन से ही होली भी मनाता आ रहा हूं, दिवाली भी और अन्य सनातनी परंपराएं भी जानता आ रहा हूं। धन्यवाद इस सोशल मीडिया का जो इसने मुझे अपने अंदर की उस शक्ति को उजागर करने का अवसर दिया है। इसके अलावा मेरे लिए एक सबसे महत्वपूर्ण बात ये रही कि मुझे याद ही नहीं है कि मैंने कभी भी इस प्रकार के किसी बाबा की सभाओं में हिस्सा लिया हो या फिर उनके प्रवचनों को ठीक से सूना या पढ़ा हो। ये ठीक उसी प्रकार से है जिस प्रकार से वर्ष 2017 के पहले तक संपूर्ण भारत में तो क्या बल्कि उत्तर प्रदेश की जनता भी ठीक से यह नहीं जानती थी कि उनके नये नवेले मुख्यमंत्री बने बाबा योगी आदित्यनाथ जी कौन हैं और वे अचानक कहां से आ टपके। ऐसा मैं इसलिए कह सकता हूं क्योंकि मैं स्वयं भी उन्हीं के प्रदेश से आता हूं।
आज का दौर सोशल मीडिया का दौर है। सोशल मीडिया यानी समाज का मीडिया। समाज का मीडिया को जो एकतरफा संवाद नहीं करता। सोशल मीडिया में कोई एक प्रश्न उठाता है तो सैकड़ों लोग उसका उत्तर भी देते हैं। आम लोग यहां अपनी समस्या ही नहीं बल्कि उसका समाधान भी बताते हैं। जबकि एक दौर था जब इसी समाज के ऊपर वर्षों तक उस कारपोरेट मीडिया ने अपना दबदबा बना कर रखा हुआ था। लेकिन, आज उस कारपोरेट मीडिया का न सिर्फ घमंड टूटा है बल्कि उसके पैरों तले की जमीन खिसती जा रही है। ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से आज कारपोरेट मीडिया का घमंड टूटता जा रहा है इन कारपोरेट बाबाओं का भी सच सामने आ रहा है।
इन कारपोरेट बाबाओं का वो सच जो इन्होंने अपने आश्रमों में विदेशी फंड और जैहादियों को फलने-फूलने का अवसर देकर अपने भोले-भाले अनुयायियों को घंटो तक बैठा-बैठा कर उन धार्मिक पुस्तकों से वंचित रखा जिनकी कीमत मात्र 100 रुपये से लेकर 200 या 300 रुपये तक होती है। इन तथाकथित बाबाओं ने हमारी धार्मिक पुस्तकों का कभी भी प्रचार नहीं किया और न ही उन्हें ये समझाया कि मंदिर और पूजा-पद्धतियां क्या हैं और क्यों हैं। इन बाबाओं ने यदि हमारी धार्मिक पुस्तकों का प्रचार किया होता और कहा होता कि कल आप स्वयं भागवत का कोई एक अध्याय पढ़ कर आना और फिर हम उस पर प्रश्न-उत्तर करेंगे तो इनक पोल खुल जाती। क्योंकि उनके अनुयायी फिर कभी उनके सामने नहीं आते। वे तो स्वयं भी जान सकते थे कि भागवत में और भी बहुत कुछ लिखा है जो बाबा ने हमसे छूपा कर रखा।
आज के इन हिंदू धर्म के तथाकथित बाबाओं के प्रवचनों को सून कर साफ तौर पर लगने लगा है कि कथा वाचकों के भेष में अब इन्होंने सीधे-सीधे मौला-अलि के उन विशेष प्रचारकों के इशारों पर और उनसे प्राप्त धन-संपदा के लालच में आकर स्वयं ही उनके उस विशेष समुदाय के प्रचार का जिम्मा संभाल लिया है ताकि, अपने हिंदू अनुयायियों को सबसे पहले तो बड़े ही सोफ्ट तरीके से सैक्युलर बनाया जाये, और जब वे सैक्युलर बन जायेंगे तो फिर वे या तो अपने आप ही हिंदू धर्म को छोड़ देंगे, या फिर वे भी कालनेमि बन कर यानी इसी प्रकार से तिलक लगाकर मौला-अलि के विशेष प्रचारक बने रहेंगें।
अब यहां सबसे पहले तो सवाल आता है कि आखिर वे कौन लोग हैं जो उनके कथा प्रवचनों में सैकड़ों और हजारों की संख्या में बैठकर उनके सोफ्ट सैक्युलरवाद का अनुसरण करते हुए ढोलक की थाप पर तालियां बजाते हैं और झूमते और नाचते गाते हैं? तो दरअसल उस भीड़ को देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये वही भीड़ होती है जो अपने सनातन को नजदीक से न तो जानती है और न ही जानना चाहती है। बस उन्हें तो एक प्रकार से ऐसे कार्यक्रमों के भांग मिले तालाब में उतर कर सराबोर होने में ही आनंद आता है। आज भारत में ऐसे तथाकथित बाबाओं की संख्या अच्छी-खासी हो चुकी है जो डाॅलर और दीनार के दम पर कालनेमि बने बैठे हैं।
– गणपत सिंह, खरगौन (मध्य प्रदेश)