जब से यूक्रेन वाला झमेला शुरू हुआ और सबको पता चला कि हर साल हजारों भारतीय छात्र मेडिकल की डिग्री लेने यूक्रेन जैसे देशों में जाते हैं, तभी से भारत में मेडिकल की पढ़ाई के बारे में चर्चा भी दिख रही है। बहुत सारे सुझाव मुझे भी देखने को मिले। किसी ने आरक्षण को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया, किसी ने प्राइवेट कॉलेजों की मोटी फीस को, किसी ने छात्रों की योग्यता को, किसी ने सरकारी नीतियों को।
मेरे ख्याल से ये सारे कारण सही हैं, लेकिन समस्या की जड़ हमारी बेसिक शिक्षा प्रणाली है। हमारे यहां के छात्र पहली से बारहवीं कक्षा तक ढेरों विषय पढ़ते हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश को नहीं पता होता कि यह विषय क्यों पढ़ाया जा रहा है और जीवन में इसका क्या उपयोग होगा।
लगभग किसी भी छात्र को अपने शुरूआती दिनों में यह भी पता नहीं होता है कि उसे जीवन में क्या बनना है और किस फील्ड में करियर बनाना है। हर किसी को केवल यह समझ आता है कि किस फील्ड में पैसा ज्यादा मिलेगा, काम कम करना पड़ेगा या तरक्की जल्दी होगी। इसका मतलब है कि हर किसी का ध्यान केवल इस बात पर रहता है कि उसे क्या बनना चाहिए, न कि इस बात पर कि वह क्या बनना चाहता है या क्या बनने योग्य है।
आज भी सरकारी नौकरियों के पीछे भागने वाले अधिकांश लोग केवल इतना ही सोचते हैं कि उन्हें सरकारी नौकरी चाहिए क्योंकि उसमें कई तरह की आर्थिक सुरक्षा, ऊपरी कमाई के अवसर और कुछ अतिरिक्त सुविधाएं मिलेंगी। बहुत कम ही लोग होंगे, जो किसी खास कारण से कोई खास सरकारी नौकरी या विभाग जॉइन करना चाहते हैं। अधिकांश तो बस सरकारी नौकरी चाहते हैं। इसीलिए सरकारी नौकरी चाहने वाले बेरोजगार लोग बैंक के फॉर्म भी भरते हैं, रेलवे के भी, पुलिस भर्ती के भी और सिविल सेवा के भी। उन्हें पता ही नहीं है कि उन्हें वास्तव में करना क्या है। उन्हें बस इतना पता है कि उन्हें सरकारी नौकरी चाहिए।
हमारे बचपन में अधिकांश छात्र और उनके अभिभावक केवल दो ही बातें जानते थे। बच्चे को या तो डॉक्टर बनना चाहिए या इंजीनियर। कुछ समय के बाद आईटी का युग आया, तो सब कंप्यूटर इंजीनियर बनने दौड़े। उसके बाद किसी समय एमबीए का क्रेज़ भी शुरू हुआ। यहां तक कि लोग इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद एमबीए करने लगे। समस्या की जड़ यही है।
ऐसा लगता है कि अपने देश में किसी बात की कोई प्लानिंग ही नहीं है और जनता या सरकार किसी को नहीं पता कि क्या होना चाहिए और कैसे किया जाना चाहिए। लोगों को जो सही लगता है, उसी बात का शोर मचाने लगते हैं और सरकारें अपने राजनैतिक लाभ-हानि का हिसाब लगाकर नीतियां बनाती हैं।
मैंने अपने स्कूल-कॉलेज में किन विषयों की पढ़ाई की, किन विषयों की पढ़ाई करना चाहता था और मेरा करियर किस फील्ड में बना, इन तीनों बातों का दूर-दूर तक कोई भी संबंध ही नहीं है। पहले मैंने सोचा कि मुझे नौसेना में जाना है। उसके लिए मैं एक मिलिट्री ट्रेनिंग स्कूल में पढ़ने गया। वहां कुछ साल की पढ़ाई के बाद मुझे समझ आया कि मैं उस काम के लिए नहीं बना हूं और उसमें मेरी सफलता की कोई गुंजाइश नहीं है। मैंने एनडीए जैसी परीक्षाओं के लिए प्रयास भी किया, लेकिन मैं उसमें सफल नहीं होने वाला था और हुआ भी नहीं।
लेकिन हमारे उस विद्यालय में एक लाइब्रेरी थी, जिसमें कई भाषाओं की सैकड़ों पुस्तकें, ढेर सारे समाचार पत्र और कई सारी पत्रिकाएं आती थी। मैंने अपने जीवन में एक साथ इतने विविध प्रकार का साहित्य पहली बार ही देखा था और मैं अपने आप ही उसकी ओर आकृष्ट हो गया। बहुत वर्षों के बाद मुझे इस बात पर भरोसा हुआ कि भाषाएं सीखने और विभिन्न विषयों को पढ़ने लिखने में मेरी स्वाभाविक रुचि बचपन से थी। यह संयोग की बात है कि मेरा करियर उसी फील्ड में बना और मैं उसमें बहुत सफल भी हुआ।
लेकिन यह भी कड़वा सच है कि मेरे करियर में मेरी सफलता लगभग पूरी तरह मेरी जिद और मेरे आत्मविश्वास के कारण ही मिली है, किसी खास विषय की पढ़ाई के कारण नहीं। ऐसा मैं किसी अहंकार से नहीं कह रहा हूं बल्कि इस वास्तविकता के आधार पर कह रहा हूं कि भाषाओं या अनुवाद के क्षेत्र में करियर कैसे बन सकता है या उसके लिए क्या पढ़ना चाहिए, न तो ये बताने वाले लोग कहीं उपलब्ध थे और न ऐसे कोई पाठ्यक्रम उपलब्ध थे। आज भी हैं या नहीं, ये मुझे अभी भी ठीक से पता नहीं।
अपने समय के अधिकांश छात्रों की तरह मैंने भी मैथ्स और बायो पढ़ा था, ताकि डॉक्टर या इंजीनियर कुछ तो बन जाऊंगा। मैंने एनडीए की परीक्षा थी, एएफएमसी की दी, पीएमटी और पीईटी की परीक्षाएं दीं और हर जगह फेल हुआ। एमबीबीएस की गुंजाइश नहीं दिखी, तो बीडीएस के बारे में सोचा, और वह भी संभव नहीं लगा तो फिजियोथेरेपी पढ़ने भी गया। एकाध साल तक प्रयास करके भी मैं उसमें मन नहीं लगा पाया और वह पढ़ाई अधूरी छोड़कर भाग आया। फिर कंप्यूटर साइंस में एडमिशन लिया और ग्रेजुएशन पूरा किया। हालांकि उसके बाद मैंने उसी फील्ड में दो डिग्रियां और लीं, लेकिन उससे पहले ही मैं लेखन और अनुवाद के क्षेत्र में काम ढूंढकर अपना करियर शुरू कर चुका था।
बीच बीच में मैंने बैंक और रेलवे और यूपीएससी और न जाने किन किन परीक्षाओं के भी फॉर्म भरे। लेकिन अब पीछे देखने पर लगता है कि उन सबमें विफलता से ही मेरे जीवन को सही दिशा मिली। उस समय तक मेरा अपना फ्रीलांस कामकाज (स्वरोजगार) अच्छी तरह जम चुका था, इसलिए उसके बाद मेरे लिए उस तरह की नौकरियों की प्रासंगिकता ही समाप्त हो चुकी थी।
मेरा शैक्षणिक और व्यावसायिक जीवन संघर्ष और सफलता की एक लंबी कहानी है। उस पर मैं कभी न कभी बहुत विस्तार में एक पुस्तक लिखने वाला हूं ताकि भविष्य में लोगों को उससे मदद मिले। लेकिन अभी यूक्रेन से लौट रहे छात्रों के मामले में लोगों के सुझाव देखकर मुझे ये सारी बातें याद आईं। लोग शिकायत कर रहे हैं कि आरक्षण के कारण कई योग्य छात्रों को एडमिशन नहीं मिल पाता है, या कॉलेजों में सीटें बहुत कम हैं और फीस बहुत ज्यादा है।
आरक्षण, महंगी फीस, बेईमानी जैसे सारे कारण वाजिब हैं। उन पर सरकार और समाज दोनों को ध्यान देना चाहिए। लेकिन फिर भी समस्या पूरी तरह नहीं सुलझेगी, जब तक समस्या की जड़ तक नहीं जाएंगे।
समस्या की जड़ इस बात में है कि अधिकांश लोग पैसे को ही सफलता समझते हैं और यह मानकर चलते हैं कि अच्छे कॉलेज के अच्छे कोर्स में एडमिशन मिल जाने पर अच्छी नौकरी अपने आप मिल जाएगी और बाकी सब समस्याएं हमेशा के लिए सुलझ जाएंगी। लेकिन छात्रों को अपनी ऐसी सोच बदलनी चाहिए। लोग केवल इस बात पर ध्यान दे रहे हैं कि उन्हें कौन सी पढ़ाई करनी चाहिए और कौन सी नौकरी पानी चाहिए, लेकिन वास्तव में उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वे किस विषय की पढ़ाई करना चाहते हैं और किस फील्ड में करियर बनाना चाहते हैं। अन्यथा वे कभी सफल नहीं होंगे।
मेडिकल की सीटें बढ़ जाने से छात्रों की योग्यता नहीं बढ़ जाएगी। नए कॉलेजों में पढ़ाने वाले अतिरिक्त लोग कहां से आएंगे? आज जिले जिले में इंजीनियरिंग और नर्सिंग कॉलेज खुले हुए हैं, गली गली में कंप्यूटर इंस्टीट्यूट हैं और हर मोहल्ले में अंग्रेजी मीडियम वाले कथित कॉन्वेंट स्कूल चल रहे हैं। लेकिन उनकी पढ़ाई का स्तर क्या है? इंजीनियरिंग और कंप्यूटर कॉलेजों की बात तो छोड़िए, अपने मोहल्ले के ऐसे किसी निजी प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा का स्तर ही देख लीजिए। मेडिकल कॉलेज हो या शिक्षा का कोई अन्य क्षेत्र हो, छात्रों को अपनी रुचि और क्षमता का सही आंकलन करके उसमें जाना चाहिए। केवल भेड़ चाल के कारण या हवाई सपनों के महल बनाकर नहीं।
मैंने कॉलेज की पढ़ाई दो चार कमरों के छोटे से इंस्टीट्यूट में और इतने छोटे शहर में की थी कि आप उसे नक्शे में भी मुश्किल से ढूंढ पाएंगे। लेकिन मैं फिर भी अपने करियर में सफल हुआ और आज मैं दुनिया के बड़े बड़े संस्थानों से पढ़कर आए अनेक प्रतिभाशाली लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करता हूं। कई सारी बातें मैंने उनसे सीखी हैं और कई सारी वे मुझसे सीखते हैं।
लेकिन मैं इस पायदान तक इसलिए पहुंच पाया क्योंकि मैंने अपनी रुचि और क्षमता को पहचानकर अपने लिए सही करियर चुना। मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि लोग क्या बनने की होड़ में लगे हैं या किस फील्ड में पैसे ज्यादा मिलते हैं। मेरे बारे में भी ऐसा सोचने वाले शुभचिंतकों की कमी नहीं थी कि मैं जीवन में कुछ नहीं कर पाऊंगा और कभी सफल नहीं हो पाऊंगा। कई बातों में मुझे स्वयं भी नहीं पता था कि मुझे क्या करना चाहिए और कैसे। लेकिन मैंने अपना आत्मविश्वास कभी कम नहीं होने दिया और मैंने अपनी क्षमताओं को कभी बढ़ा चढ़ाकर भी नहीं आंका। मेरी सफलता का सूत्र वही है और आपका भी वही होना चाहिए।
आप पढ़ने अफगानिस्तान जाएं या अमरीका, उससे थोड़ा बहुत अंतर अवश्य पड़ेगा, लेकिन आपकी सफलता या असफलता उसी पर निर्भर नहीं है। वह इस पर निर्भर है कि आप अपने करियर का क्षेत्र इस आधार पर चुनें कि आपके लिए क्या सही है, न कि इस आधार पर कि सब लोग किस तरफ भाग रहे हैं।
सरकार मेडिकल की सीटें बढ़ाए या न बढ़ाए, लेकिन सरकार को इस बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में ही छात्रों को ऐसा उचित मार्गदर्शन मिले कि वे अपनी रुचि और क्षमताओं का सही अनुमान लगा सकें और उसके अनुसार उस विषय की पढ़ाई करने के लिए उनके पास आवश्यक अवसर उपलब्ध हों। अन्यथा केवल मेडिकल या इंजीनियरिंग या किसी एक विषय की सीटें बढ़ेंगी, तो उस विषय में एडमिशन लेने वालों की भीड़ भी बढ़ेगी और फिर उसी क्षेत्र में बेरोजगारों की भीड़ भी बढ़ेगी।
वास्तविक समस्या केवल मेडिकल के क्षेत्र की नहीं है। वह तो अभी यूक्रेन के घमासान से उपजी तात्कालिक समस्या है। यूक्रेन में युद्ध न हुआ होता, तो हजारों छात्र आगे भी सालों साल तक ऐसे देशों में जाते रहते। अब यूक्रेन का द्वार बंद हो गया है तो अगले साल से नए छात्र किसी और देश में जाएंगे। वास्तविक समस्या सरकारी भी है, सामाजिक भी है और सर्वव्यापी भी है। उसका उपाय भी दीर्घकालिक और व्यावहारिक होना चाहिए, अन्यथा एक समस्या का गलत उपाय कई नई समस्याएं खड़ी करता रहेगा।