भारत सहित पूरी दुनिया की वर्तमान परिस्थितियों का मूल्यांकन एवं विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है कि राजनीति एवं कूटनीति के मायने ही बदल गये हैं। स्थानीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक राजनीति पर कूटनीति एवं छलनीति हावी होती जा रही है। अब यहां प्रश्न यह उठता है कि वास्तव में राजनीति एवं कूटनीति कहते किसे हैं? वैसे तो व्यापक स्तर पर यदि राजनीति एवं कूटनीति का विश्लेषण किया जाये तो इसके बेहद व्यापक मायने हैं। अनेक लोगों के मतानुसार इसके अलग-अलग मायने हैं किंतु बिल्कुल साधारण शब्दों में मोटे तौर पर राजनीति की व्याख्या की जाये तो कहा जा सकता है कि यह पूर्ण रूप से राष्ट्र एवं समाज हित को लेकर है, यानी देश पर शासन करने के लिए जो भी नीतियां बनाई जाती हैं, वे सभी राजनीति के दायरे में आती हैं।
स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक शासन को सुचारु एवं बेहतर ढंग से चलाने के लिए जो भी नीतियां बनाई जाती हैं, मोटे तौर पर उसे राजनीति कहा जा सकता है यानी राजनीति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में पूर्ण रूप से राष्ट्र एवं समाज का ही हित है, चाहे वह स्थानीय स्तर का हो, प्रदेश स्तर का हो या फिर राष्ट्रीय स्तर का। राजनीति में ‘स्व’ के बजाय ‘समूह’ का हित निहित है यानी यह भी कहा जा सकता है कि राज चलाने के लिए संवैधानिक रूप से जो भी नीतियां बनती हैं, वे सभी राजनीति के दायरे में आती हैं। इसके साथ ही यदि कूटनीति की बात की जाये तो मोटे तौर पर इसका कार्य क्षेत्र विदेश है यानी वैश्विक स्तर पर अपने देश के हित में कैसे सकारात्मक वातावरण बने एवं विदेशों में अपने देश का डंका कैसे बजे, इस हेतु जितने भी प्रयास किये जाते हैं, वे सभी कूटनीति के दायरे में आते हैं यानी कूटनीति का संबंध सीधे तौर पर वैश्विक स्तर से है। इसके अंतर्गत विदेशी शासकों, एजेंसियों और अन्य प्रमुख लोगों के आचरण एवं मानसिकता को जांच-परख एवं समझ कर अपने देशहित में जिन नीतियों का निर्माण किया जाता है, मोटे तौर पर उसे कूटनीति कहा जाता है।
कूटनीति काफी हद तक संबंधों पर आधारित होती है। राजनीति एवं कूटनीति में एक बात बेहद सामान्य है कि इसमें व्यक्तिगत स्वार्थ का न तो कोई महत्व है और न ही मतलब। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राजनीति एवं कूटनीति का संबंध पूरी तरह राष्ट्रहित से जुड़ा है। इन दोनों के अतिरिक्त छलनीति के बारे में बहुत कुछ बताने एवं विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह अपने आप में स्वतः स्पष्ट एवं जग जाहिर है।
अब सवाल यह उठता है कि वर्तमान परिवेश में क्या राजनीति पर कूटनीति एवं छलनीति हावी होती जा रही है यानी राष्ट्रहित के साथ व्यक्तिगत स्वार्थ भी परवान चढ़ते जा रहे हैं। यहां पर यह समझ लेना जरूरी है कि कूटनीति का संबंध भले ही वैश्विक स्तर से हो लेकिन व्यावहारिक स्तर पर कूटनीति का संबंध अब घर-परिवार, सामाजिक संगठनों एवं राजनीतिक दलों तक सर्वत्र हावी है। यहां तक कि कूटनीति अब धार्मिक संगठनों तक में हावी हो रही है।
कूटनीति का यहां तक पहुंचने का सबसे प्रमुख कारण है व्यक्तिगत स्वार्थ। कहने का आशय यह है कि राजनीतिक दलों एवं किसी भी संगठन में जिसका कब्जा है, वह आजीवन अपना कब्जा बरकरार रखना चाहता है। इसके लिए चाहे जितने भी दांव-पेंच, छल-कपट, नौटंकी एवं ड्रामे करना पड़े, वह सब किये जा रहे हैं। इस संबंध में यह बात महत्वपूर्ण है कि जिस दौर में राजनीति एवं कूटनीति की मोटे तौर पर लिखित एवं अलिखित रूप से व्याख्या की गई थी, वह समय अब नहीं रहा, क्योंकि उस दौर में छोटी-छोटी घटनाओं की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए केन्द्रीय मंत्री तब त्याग पत्र दे दिया करते थे।
श्री लाल बहादुर शास्त्री एवं श्री माधवराव सिंधिया जैसे रेल मंत्रियों ने रेल दुर्घटना होने पर अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्याग पत्र दे दिया था, जबकि तत्कालीन जन मानस यह चाहता था कि ये लोग दुर्घटना होने के बावजूद पद त्याग न करें, किंतु इन लोगों ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेकर त्याग पत्र दिया। अफसोस इस बात का है कि आज यदि कोई दुर्घटना हो जाये तो नैतिक जिम्मेदारी लेना तो दूर की बात रही, उल्टे सिर्फ एक दूसरे पर दोषारोपण करते हैं। हां, एक प्रवृत्ति समाज में जरूर पनपी है कि किसी भी सफलता का श्रेय लेने के लिए तमाम लोग आ जाते हैं किंतु असफलता की जिम्मेदारी कोई भी नहीं लेना चाहता। इस संबंध में अपने देश में एक प्राचीन कहावत प्रचलित है कि ‘जीत के अनेक माई-बाप होते हैं किंतु हार अनाथ होती है।’
वैसे यदि देखा जाये तो भारत ने भी श्रेष्ठ राजनीति एवं श्रेष्ठ कूटनीति के कई उदाहरण देखा है। उदाहरण के तौर पर बांग्लादेश के अस्तित्व में आने से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने विपक्ष के नेताओं से भी व्यापक रूप से सलाह-मशविरा किया था और भारत का पक्ष रखने के लिए विभिन्न देशों में विपक्ष के नेताओं को भी भेजा था।
गौरतलब है कि उस समय भारत राजनीति एवं कूटनीति दोनों मोर्चों पर कामयाब हुआ था। उदाहरणों की बात की जाये तो जिस समय श्री लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे और चीन-भारत का युद्ध हो रहा था। उस समय गेहूं के नाम पर अमेरिका ने शास्त्री जी पर दबाव बनाना चाहा तो शास्त्री जी ने अमेरिका के झांसे में आने के बजाय देशवासियों से सप्ताह में एक दिन व्रत रखने की अपील कर दी और ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दे दिया। अमेरिका शास्त्री जी के इस दांव से चारों खाने चित्त हो गया।
श्री पीवी नरसिंहा राव जी ने प्रधानमंत्री रहते हुए तत्कालीन विपक्ष के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत का नेतृत्व करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ भेजा था जिसका परिणाम यह रहा कि अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का झंडा बुलंद कर दिया। अमेरिका में पत्रकारों ने जब अटल जी से विपक्ष के बारे में कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि हम यहां भारत की बात करने आये हैं। विपक्ष की चर्चा हम आप लोगों से भारत में ही करेंगे। अमेरिकी पत्रकार उस समय स्तब्ध रह गये थे।
श्रेष्ठ राजनीति का उदाहरण उस समय भी देखने को मिला जब 1996 में संसद में अटल जी की 13 दिनी सरकार के भविष्य को लेकर चर्चा हो रही थी, उस समय अटल जी ने कहा था कि मैं अपनी सरकार बचाने के लिए ऐसा कोई भी कार्य नहीं करूंगा जिससे लोकतंत्र कलंकित हो। उसका परिणाम यह रहा कि वे अपनी सरकार बचा नहीं सके किंतु वे राजनीति की श्रेष्ठ मर्यादा को जिंदा कर गये। ऐसे श्रेष्ठ उदाहरणों के कारण ही अटल जी को लोग आज भी याद करते हैं। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि अटल जी बातों-बातों में बहुत ही गूढ़ बातें कह दिया करते थे।
गुजरात दंगों के समय अटल जी ने मोदी जी को राजधर्म पालन करने की सलाह देकर सनसनी फैला दी थी जबकि मोदी जी उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री थे। इसे कहते हैं राजनीति की दिलेरी। इस प्रकार यदि देखा जाये तो भारतीय राजनीति में अन्य अनेक प्रकार के उदाहरण हैं। श्रेष्ठ राजनीति का श्रेष्ठ उदाहरण उस समय भी देखने को मिला जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और पाकिस्तान ने कारगिल पर आक्रमण कर दिया था, उस समय तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने वार्ता के लिए अटल जी को अमेरिका बुलाया किंतु अटल जी ने अमेरिका जाने से इनकार कर दिया और कहा कि जब तक भारत की एक-एक इंच भूमि आक्रमणकारियों से मुक्त नहीं हो जाती, तब तक भारत छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा। इतनी बड़ी बात बोलना अपने आप में बहुत बड़ी बात है।
अटल जी ने उस समय भी देशहित में श्रेष्ठ राजनीति का उदाहरण पेश किया था, जब उन्होंने 1999 में परमाणु परीक्षण कर पूरी दुनिया को चैंका दिया था। जिस कार्य को करने में अटल जी से पहले के नेता हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, उसे अटल जी ने कर दिखाया, जबकि उन्हें यह अच्छी तरह पता था कि परीक्षण के बाद वैश्विक स्तर पर उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी और कितने प्रतिबंध झेलने होंगे? श्रेष्ठ राजनीति एवं कूटनीति की दृष्टि से बात की जाये तो वैश्विक स्तर पर भी अनेक वरिष्ठ नेताओं ने नैतिकता के आधार पर अपने पद का त्याग किया है और पद त्याग के बाद सभी सरकारी सुविधाओं का भी त्याग किया है किंतु आज भारत एवं विश्व की बात की जाये तो हर स्तर पर नैतिकता के मामलों में गिरावट आई है।
पूरी दुनिया में कौन सा देश किस देश का मित्र है, कुछ मामलों को छोड़ कर कंफ्यूजन की स्थिति है। महाशक्तियां पूरी दुनिया को गुमराह करने के लिए फ्रेंडली (नूरा-कुश्ती) विवाद यानी दिखावे का विवाद दिखाने की नौटंकी कर रही हैं। ऐसा करके महाशक्तियां सिर्फ अपनी आर्थिक सेहत को ठीक करना चाहती हैं किंतु इस पूरे प्रकरण में महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरी दुनिया महाशक्तियों का खेल समझ चुकी है। हालांकि, महाशक्तियां अपना जाल बिछाने से आज भी बाज नहीं आ रही हैं किंतु उस जाल को अपने कौशल से भेदकर यूक्रेन एवं इजरायल जैसे देश भी अभ्यस्त हो रहे हैं। इन दोनों देशों ने महाशक्तियों के सामने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है कि साथ दो तो ठीक से अन्यथा हमें हमारे हाल पर ही छोड़ दो। यह भी अपने आप में सत्य है कि दो टूक बात करने पर महाशक्तियों की अकल काम करना बंद कर देती है।
इस दृष्टि से देखा जाये तो भारत में एक प्राचीन कहावत प्रचलित है कि दोस्त से अच्छा दुश्मन है, मगर मतलबी और दोगला यार न मिले। इस तरह की कूटनीति पर आकर महाश्ािक्तयां फंस जाती हैं। कमोबेश आज दुनिया के जितने भी स्थापित नेता हैं, उनकी मंशा यही है कि वे ‘येन-केन-प्रकारेण’ सत्ता में बने रहें, इसी प्रकार की स्थिति को बरकरार रखने के लिए सभी तरह की तरकीब अपनाई जा रही है। इसी स्थिति को यथावत बनाये रखने के लिए जो कुछ भी किया जाता है, उसे ही श्रेष्ठ राजनीति एवं श्रेष्ठ कूटनीति कहकर प्रचारित किया जा रहा है, जबकि आम जनता इसे छलनीति मान रही है।
आज की राजनीति एवं कूटनीति में अपनी हैसियत को बरकरार रखने के लिए लोग कुछ भी करने के लिए तैयार हैं, चाहे वह नैतिक हो या अनैतिक। जब इस प्रकार का वातावरण हो तो यह कहना अत्यंत उपयुक्त होगा कि रजनीति पर कूटनीति एवं छलनीति हावी होती जा रही है। ऐसा लिखने के पीछे मेरा आशय मात्र यह है कि राजनीति एवं कूटनीति सदैव से राष्ट्र एवं समाज हित में रही है। इन दोनों के बीच स्वार्थ का मामला कभी नहीं रहा है।
राजनीति एवं कूटनीति की दृष्टि से भारत की बात की जाये तो इसी देश में त्रेता युग में धर्म एवं नैतिकता की रक्षा के लिए अयोध्या राजघराने के चारों राजकुमार (राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न) राज मुकुट को ठोकर मार रहे थे और राजा दशरथ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम चंद्र जी को अपने खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसा रहे थे किंतु नैतिकता एवं धर्म रक्षार्थ श्रीराम ने वन जाना ही उचित समझा किंतु आज उसी देश में सक्षम न होने की बात कह कर योग्य से योग्य लोगों को राजनीति से दरकिनार करने का खेल बहुत तीव्र गति से चल रहा है। ‘सक्षम’ शब्द को यदि वर्तमान दौर में परिभाषित किया जाये तो तमाम लोगों का मानना है कि जो व्यक्ति शोषण की हर विधा में पारंगत है, वास्तव में सही अर्थों में वही सक्षम है।
आज की राजनीति में ‘सक्षम’ शब्द अपने विरोधियों को निपटाने का सबसे कारगर हथियार बन गया है किंतु यह भी अपने आप में शाश्वत सत्य है कि ‘ऊपर वाले के दरबार में देर है, किंतु अंधेर नहीं।’ ऐसा करने वालों को करनी का परिणाम मिलकर ही रहेगा। कहा जाता है कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज तो नहीं होती है किंतु वह लगती बहुत तेज है।
बात सिर्फ राजनीति एवं कूटनीति तक सीमित होती तो भी ठीक होती, किंतु अब तो बात छलनीति तक आ चुकी है यानी अपने को स्थापित करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद का जितना भी उपयोग हो, सब जायज माना जा रहा है। ये सारे काम यदि राष्ट्र एवं समाज हित के लिए होते तो भी कोई बात नहीं होती, किंतु व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए होने लगे तो स्थिति को बद से बदतर मान लेना ही ज्यादा उचित होगा। यह वही देश है जहां आमने-सामने के युद्ध में भी कुछ नियम-कायदे होते थे। इन्हीं नियमों-कायदों के आधार पर युद्धों का संचालन होता था। जिस किसी ने भी इन नियमों-कायदों को ताक पर रख कर अधर्म का रास्ता अख्तियार किया है, उसे उसका दंड भुगतना पड़ा है। ऐसे लोगों को दंड देने के लिए स्वयं नारायण को भी धरती पर आना पड़ा है।
अधर्म के रास्ते पर चलने वालों को यदि दंडित किये जाने का माामला हो तो उसमें रावण, कंस, बाली, दुर्योधन, कर्ण जैसे महापुरुषों का नाम लिया जा सकता है। कहने का आशय यह है कि जब ऐसे योद्धा भी अपना बचाव नहीं कर सके तो बाकी की क्या औकात? वास्तव में देखा जाये तो इन योद्धाओं की भी यही मंशा थी कि उनकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे सके। इसके लिए इन लोगों की नजर में भले ही राजनीति एवं कूटनीति हो किंतु वास्तव में वह छलनीति ही थी जिसका आज भी उदाहरण दिया जा रहा है और आगे भी उदाहरण के रूप में याद किया जायेगा।
अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि राजनीति में कूटनीति एवं छलनीति को हावी न होने दिया जाये। जो कुछ भी किया जाये, वह राष्ट्र एवं समाज हित में किया जाये क्योंकि जब राष्ट्र कमजोर होगा तो स्वयं का भी अस्तित्व नहीं बच पायेगा इसीलिए वक्त रहते संभल जाने की आवश्यकता है, अन्यथा कोई समय ऐसा भी आयेगा, जब संभलने का भी वक्त नहीं मिलेगा…।
– सिम्मी जैन दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।