अगर आप किसी बहुत पुराने जंगल में जाएं, जहां बहुत ही कम मनुष्य गए हों, तो ऐसे जंगल में जाकर आप बस अपनी आंखें बंद करके बैठ जाइए, आपको लगेगा कि आप किसी मंदिर में बैठे हुए हैं। आप प्रत्यक्ष इस बात को महसूस कर सकते हैं। वहां ऊर्जा की असाधारण मात्रा आपको सहारा देती है, क्योंकि जीवन की इस पूरी प्रक्रिया में, जीवाणु से लेकर कृमि तक, कीड़े-मकोड़ों से लेकर पशु-पक्षी तक, पेड़-पौधे, सबका यही इरादा रहता है कि वर्तमान में जिस भी रूप में हैं, उससे कुछ अधिक बनना है। यह उद्देश्य अपने आप में एक पवित्र स्थान की स्थापना करता है, यह अपने आप में एक तरह की पवित्रता पैदा कर देता है। अगर आप धरती को बस वैसे ही रहने दें, जैसी यह थी और बस यहां पर बैठें या सोएं, तो आप पाएंगे कि यह पूरा स्थान एक पवित्र स्थान बन गया है।
प्रतिष्ठित रूपों या प्रतिष्ठित स्थानों जैसे मंदिरों के निर्माण की जरूरत इसलिए होती है क्योंकि मानव समाज में उद्देश्यों के अलग-अलग बेसुरे राग देखने को मिलते हैं। एक ही घर में पति और पत्नी के उद्देश्य अलग-अलग होते हैं। दोनों जीवनसाथी होते हैं और दोनों का एक सामान्य उद्देश्य हो सकता है लेकिन उनके भी सभी उद्देश्य भिन्न होते हैं, यह इरादों का बेसुरापन होता है। इसके कारण किसी के पास महसूस करने के लिए गुंजाइश ही नहीं होती। एक प्रतिष्ठित या पवित्र स्थान मूल रूप से एक तैयार की गई स्थिति होती है, जो जीवन की स्वाभाविक लालसा को सामने लाती है।
पेड़ हमारे फेफड़ों के बाहरी हिस्से की तरह हैं। अगर आप जीना चाहते हैं तो अपने शरीर की अनदेखी नहीं कर सकते। यह धरती भी इसका अपवाद नहीं है। आप जिसे ‘ मेरा शरीर’ कहते हैं, वह दरअसल इसी धरती का एक हिस्सा है।
जब हम आध्यात्मिकता की बात करते हैं, तो उसका आशय ऊपर देखने या नीचे देखने से नहीं है। इसका आशय अपने भीतर देखने से है। अपने भीतर देखने का पहला मूलभूत सिद्धांत है कि भीतर मुड़ते ही आप हमेशा अपने आप को अपने आसपास की चीजों के हिस्से के तौर पर देखना शुरू कर देते हैं। इसकी अनुभूति हुए बिना आध्यात्मिक प्रक्रिया की शुरुआत नहीं हो सकती। यह अनुभूति आध्यात्मिकता का लक्ष्य नहीं है, बल्कि उसकी बुनियाद है।
Rishi, Muni, Sadhu, Sanyasi : क्या हैं ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी ?
हमारे लिए एक जिंदा पेड़ की कीमत ज्यादा है या कटे पेड़ की? भारत के पर्यावरण और वन मंत्रलय द्वारा कराये गए एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया कि 50 वर्ष पुराने एक पेड़ को अगर उसकी लकड़ी के लिए काटा जाए, तो वह करीब 50,000 रुपये (900 डाॅलर) मूल्य का होता है, लेकिन अगर उसे छोड़ दिया जाए, तो वह जो पर्यावरण संबंधी सेवाएं देता है उसकी कीमत लगभग 23 लाख रुपये (40,000 डाॅलर) के बराबर होगी।
इन सेवाओं का ब्यौरा देखते हैं:
– 50 सालों में दिया गया आॅक्सीजन- 3,50,000 रुपये (6300 डाॅलर)
– जल के पुनर्चक्रण (रिसाइकलिंग) संबंधी सेवाएं- 4,50,000 रुपये (8100 डाॅलर)
– मिट्टी का संरक्षण-3,75,000 रुपये (6750 डाॅलर)
– प्रदूषण नियंत्रण-7,50,000 रुपये (12,500 डाॅलर)
– पशु-पक्षियों को मिला आश्रय-3,75,000 रुपये (6750 डाॅलर)
– संक्षेप में देखें तो एक कटा हुआ पेड़ =50,000 रुपये (900 डाॅलर)
– एक जीवित पेड़ =23 लाख रुपये (40,000 डाॅलर) मूल्य का होता है।
जब आप ‘लुप्तप्राय’ शब्द सुनते हैं, तो आपका ध्यान जानवरों की ओर जाता है। वर्तमान समय में जंतुओं की 10820 प्रजातियां संकटग्रस्त मानी गई हैं। लेकिन यह याद रखना भी महत्त्वपूर्ण है कि लुप्त होने का खतरा पौधों पर भी मंडराता है। पौधों की 9390 किस्मों को भी लुप्तप्राय माना गया है। सिर्फ भारत में ही पेड़ों की 60 प्रजातियों को अत्यंत संकटग्रस्त और 141 प्रजातियों को संकटग्रस्त माना गया है।
MEDITATION : सांस ही बंधन, सांस ही मुक्ति
किसी एक व्यक्ति का हमारे पर्यावरण पर क्या असर होता है, इसे नापने के लिए वैज्ञानिकों ने कार्बन फुटप्रिंट नाम का सिद्धांत दिया है। करीब-करीब वे सारे काम जो हम रोजाना करते हैं या हम जिन भी साधनों का इस्तेमाल करते हैं, उन सब से कार्बन डाई आॅक्साइड (ब्व्2) निकलती है। औद्योगिक क्रांति से पहले मनुष्यों द्वारा पैदा की गयी जितना भी कार्बन डाई आॅक्साइड वातावरण में आती थी, वह आस-पास के पेड़-पौधों द्वारा सोख ली जाती थी। जंगल व पेड़- पौधे कार्बन डाई आॅक्साइड को सोख कर आक्सीजन को वापस हवा में छोड़ देते हैं और वे कार्बन को अपने भीतर जमा कर लेते हैं।
औद्योगिक युग के शुरुआत के साथ ही ईधन का प्रयोग बड़े पैमाने पर होने लगा जिससे कार्बन डाई आक्साइड भारी मात्रा में निकलने लगी । साथ ही, बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए, जो कार्बन सोखने का काम करते थे। आज स्थिति यह है कि जितनी कार्बन डाई आॅक्साइड वातावरण में पैदा होती है, उसे सोखने के लिए पर्याप्त मात्रा में पेड़ ही नहीं बचे हैं।
जैसे-जैसे आप प्रकृति के अधिक से अधिक नजदीक होते हैं और पूरी तरह प्रकृति की गोद में रहते हैं, तो आप चीजों को जैसे महसूस करते हैं वह बिल्कुल अलग होता है, आपकी उस समझ से जो फिल्मों या तस्वीर के माध्यम से आप हासिल करते हैं। यही वजह है कि योगी हमेशा जंगलों और पहाड़ी गुफाओं में जाकर रहते थे, क्योंकि सिर्फ वहां बैठने से प्रकृति का उद्देश्य आपके सामने पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। मुख्य बात है, उन सभी सीमाओं के परे विकास करना, जो अभी आपको बांधे हुए हैं। यह उद्देश्य वहां की मिट्टी के एक-एक कण से अभिव्यक्त होता है, इसलिए यह मौका न चूकें। अगर आप उद्देश्यहीन हो जाएं, तो आप अस्तित्व का उद्देश्य महसूस करेंगे। जब आप उसके साथ एकाकार हो जाते हैं, तो आप उस दिशा में बहुत आसानी से सफर कर सकेंगे।
– डाॅ. पी आर त्रिवेदी