अजय सिंह चौहान || अंटार्कटिका में एक ग्लेशियर का नाम है “थवाइट्स ग्लेशियर”. यह एक विशालकाय ग्लेशियर है। बर्फ के इस पर्वत को ‘डूम्सडे ग्लेशियर’ के नाम से भी पहचाना जाता है। यह ग्लेशियर आजकल दुनिया के लिए एक बहुत बड़े खतरे की घंटी बनकर चेतावनी का काम कर रहा है। यह चेतावनी किसी एक देश या द्वीप के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण पृथिवी के लिए है। हालाँकि इसके बाद भी दुनिया के कुछ प्रमुख राजनीतिज्ञ और उद्योगपतियों की नींद नहीं खुल रही है और वे अपने स्वार्थ के चलते प्रसिद्धी पाने और तिजोरियों में धन जमा करने में जुटे हैं।
दरअसल, इस विशालकाय ‘थवाइट्स ग्लेशियर’ का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके करीब करीब सभी कमजोर हिस्सों से पानी रिस कर बहता जा रहा है। भले ही ये बात किसी को छोटी लग रही हो, लेकिन यह पृथिवी के भविष्य के लिए बहुत बड़ा खतरा बनने जा रहा है, क्योंकि पानी का यह रिसाव जल्दी ही बड़े पैमाने पर समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी कर सकता है।
आशंका तो इस बात की भी है कि थवाइट्स ग्लेशियर के पिघलने से इसका गर्म पानी अपने आस पास के ग्लेशियरों को भी पिघला सकता है जिससे पृथिवी के अन्य सभी महासागरों का जलस्तर 9.8 फीट तक बढ़ सकता है, और यदि ऐसा होता है तो कई देशों के बड़े से बड़े हिस्से समुद्र में समा जाएंगे। कई छोटे देशों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। कुल मिलाकर कहा जा सकता है की यह एक बहुत बड़ा खतरा है और बहुत ही तेजी से हम सब की तरफ दौड़ता चला आ रहा है।
थवाइट्स ग्लेशियर यानी ‘डूम्सडे ग्लेशियर’ का आकार एक अनुमान के मुताबिक मोटे तौर पर दक्षिणपूर्वी अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य जितना कहा जा सकता है। क्षेत्रफल के तौर पर फ्लोरिडा राज्य करीब एक लाख सत्तर हज़ार तीन सौ किलोमीटर से भी अधिक भाग में फैला हुआ है।
इस हिसाफ से यह ग्लेशियर एक बहुत बड़े आकार का है और धरती के तापमान को बनाये रखने के लिये सबसे महत्वपूर्ण ग्लेशियर है। वैज्ञानिकों का दावा है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण अगर सिर्फ यही ग्लेशियर भी पूरी तरह से पिघल जाता है तो इसके पानी से दुनियाभर के सभी समुद्रों के जलस्तर में 1.6 फीट से अधिक की वृद्धि हो सकती है।
दरअसल, थवाइट्स ग्लेशियर यानी ‘डूम्सडे ग्लेशियर’ को लेकर यह अध्ययन हाल ही में अमेरिका के नूयार्क में स्थित “कॉर्नल यूनिवर्सिटी” के वैज्ञानिक ब्रिटनी श्मिट के नेतृत्व में किया गया और प्रकृति तथा विज्ञान के विषयों पर होने वाली दुनिया की कुछ प्रमुख खोज और रिसर्च आदि को दुनिया के सामने लाने वाली पत्रिकाओं में से एक “नेचर जर्नल” में इसे प्रकाशित किया है।
इस रिसर्च पत्रिका “नेचर जर्नल” के द्वारा शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि थवाइट्स ग्लेशियर से रिस्ता और बहता हुआ पानी समुद्र में मिलता जा रहा है। हैरानी तो इस बात की है की ग्लोबल वार्मिंग के कारण सर्दियों के मौसम में भी यह ग्लेशियर धीरे धीरे पिघल रहा है और अब इसकी कई दरारों और ऊपरी हिस्सों या छतों जैसी खुली जगहों से पानी टपकता और बहता हुआ साफ़ दिख रहा है। और यदि सर्दियों में ये हाल है तो फिर गर्मियों के दिनों में क्या होने वाला है यह सोच कर हैरानी होती है।
“नेचर जर्नल” नामक इस रिसर्च पत्रिका के माध्यम से शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते जिस हिसाफ से इस ग्लेशियर के बाहरी हिस्से की बर्फ पानी बन कर अपना रास्ता बना रही है, इससे 98 फीट या उससे अधिक आकार के किनारे हर वर्ष पिघल सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो इसके कारण धरती के सभी मनुष्यों को एक बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। इस रिसर्च में यह भी दावा किया जा रहा है कि, ‘हम सभी को इस बात के लिए बहुत अधिक चिंतित होना चाहिए, क्योंकि गर्म पानी ग्लेशियर के सबसे कमजोर हिस्सों से रिस रहा है और इसे लगातार कमजोर कर रहा है।
हालाँकि इससे पहले भी वैज्ञानिक इस विषय पर अपनी अपनी रिपोर्ट्स दे चुके हैं, जिनमें ब्रिटेन और अमेरिका के 13 वैज्ञानिकों की एक टीम ने वर्ष 2019 और 2020 के मध्य में ग्लेशियर पर करीब छह हफ्ते बिताए थे। अंटार्कटिका में इसे अब तक का सबसे बड़ा सहयोगी फील्ड कैंपेन माना जा रहा है जिसे International Thwaites Glacier Collaboration नाम दिया गया था।
वैज्ञानिकों ने उस समय भी ग्लेशियर में ड्रिल करके आइसफिन नामक एक अंडरवॉटर रोबोट व्हीकल के जरिये इसकी अंडर ग्राउंड रिसर्च यानी “ग्राउंडिंग लाइन” की निगरानी की थी। उस अंडर ग्राउंड रिसर्च से यह बात पहलीबार सामने आई थी कि बर्फ सिर्फ ग्लेशियरों के ऊपरी हिस्सों से ही नहीं बल्कि भीतरी और निचले हिस्सों से भी पिघल रही है और पानी बन कर समुद्र से मिलती जा रही है।
हालाँकि करीब करीब सभी विज्ञानी इस बात को जोर देकर कह रहे हैं कि यदि ग्लोबल वार्मिंग का यही हाल रहा तो हो सकता है कि इसी सदी के आखिरी कुछ वर्षों तक पृथिवी से 83 फीसदी ग्लेशियर गायब हो जाएंगे। कई वैज्ञानिक पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर के ग्लेशियर हमारी कल्पना से भी अधिक तेजी से पिघल रहे हैं।