यह सच है कि वर्तमान दौर की इस ज़िंदगी में शास्त्रों के अनुसार शत प्रतिशत चलना करीब-करीब असंभव है। लेकिन फिर भी यदि कोई व्यक्ति या परिवार कुछ हद तक भी शास्त्रों के में दर्ज नियमों का पालन कर ले तो संभव है कि उसको मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से जुडी सफलता जाय। तो आइये आज यहाँ हम हिन्दू धर्म के तमाम शास्त्रों में दर्ज विभिन्न प्रकार की दिनचर्या से जुड़े नियमों का पालन करने सम्बन्धी गतिविधियों पर एक नज़र डालते हैं।
भोजन कब, कैसे और कितना करना चाहिए, हमारी दिनचर्या कैसे होनी चाहिए, हमारा व्यवहार और हमारे विचार कैसे होने चाहिए, इस विषय पर हमारे विभिन्न पुराणों में जानकारियां दी हुई हैं। लेकिन इन सभी में एक ही प्रकार से एक जैसे नियम दिए गए हैं। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि आज भी यदि हम अपने धर्मग्रंथों चलें तो हम अपने मानसिक संतुलन को बना कर शरीर को स्वस्थ रख सख्ते हैं।
सनातन से जुड़े तमाम शास्त्रों में कहा गया है कि भोजन बनाने वाली स्त्री या पुरुष को स्नान करने के बाद ही भोजन बनाना प्रारंभ करना चाहिए। भोजन बनाने वाले का मन भी पवित्र हो, अर्थात यदि वह अच्छी भावना से भोजन बनाए तो तन को लगता है। प्रतिदिन बनने वाली सबसे पहली नियमित 3 रोटियों में सबसे पहले गाय के लिए, फिर कुत्ते के लिए और तीसरी रोटी कोवे के लिए होनी चाहिए। इसके बाद चौथी रोटी निकालकर अग्निदेव को भोग लगाकर ही घर वालो को भोजन परोसा जाना चाहिए।
हालांकि आजकल की भागदौड़ भरी दुनिये और आम ज़िंदगी में कम से कम उत्तर भारत में तो संभव है ही नहीं। लेकिन यदि आप या हम जैसे-जैसे दक्षिण भारत में प्रवेश करेंगे तो कहीं न कहीं हमें शास्त्रों के अनुसार चल रही यह परंपरा कुछ स्तर तक देखने को मिल जाती है।
हमारे शास्त्र कहते हैं कि सूर्य या फिर चन्द्र ग्रहण काल में, अमास्या तिथि में, किसी भी परिवार में होने वाले जन्म या मृत्यु के सूतक काल रहने तक भोजन-पानी या फिर किसी भी प्रकार का अन्य या खाद्य पदार्थ किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए। इसके अलावा प्रेम, सम्मान या मान-मनुहार या फिर आग्रह रूप में भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार ऐसा करने पर परिवार द्वारा अर्जित किये हर प्रकार के पुण्यों का नाश हो जाता है। इसके अलावा शास्त्र कहते हैं कि कोई भी पशु या कुत्ते द्वारा छुआ, रजस्वला स्त्री द्वारा परोसा गया, श्राद्ध के लिए बनाया या निकाला गया भोजन, मुंह से फूंक मारकर ठंडा किया हुआ भोजन या प्रसाद, बाल गिरा हुआ और बासी भोजन भी नहीं करना चाहिए।
इसके अलवाल भोजन शुरू करने से पहले ‘भोजन मन्त्र’ के साथ ईश्वर का ध्यान करना और उन्हें धन्यवाद कहने की परंपरा कि ‘उन्होंने हमें भोजन करने का सुख प्रदान किया है।’ साथ ही प्रार्थना कि ‘संसार के समस्त भूखों को भोजन प्राप्त हो।’ जैसी आवश्यक शिक्षा की अपनाते हुए आजकल सिर्फ कुछ गुरुकुलम ही देखे जाते हैं। ये गुरुकुलम भी दक्षिण भारत में ही अधिक हैं।
अक्सर हम खड़े-खड़े, चलते-फिरते, या फिर कई प्रकार की मुद्राओं में बैठकर, जूते-चप्पल पहने हुए, सिर ढककर, बिस्तर पर बैठकर, टेबल-कुर्सी पर या फिर सोफे पर बैठकर, जमीन पर बिना आसन या कपड़ा आदि बिछाए भोजन करते हैं वह बिलकुल भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि, ऐसा करने पर आसुरी व नकारात्मक ऊर्जा या शक्तियों को अपने घर व शरीर में प्रवेश करने का निमंत्रण मिलता है।
एक सबसे महत्वपूर्ण बात जो हम नहीं जानते वो ये कि भोजन हमेशा पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुख करके ही करना चाहिए। हमारे शास्त्र कहते हैं कि दक्षिण दिशा की ओर मुख करके किया हुआ भोजन प्रेतों को प्राप्त होता है। जबकि पश्चिम दिशा की ओर मुख करके किये हुये भोजन से शरीर में कई प्रकार के रोगों की वृद्धि होती है।
हमारे शास्त्रों में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि दूषित आचरण, धर्मद्रोही प्रवत्ति, नास्तिक प्रवत्ति, वेश्या के हाथ का पकाया हुए, किसी भी मांस-मदिरा विक्रेता एवं सेवन करने वाले व्यक्ति या ऐसे किसी भी घर का अन्न-जल भूल से भी कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए। ऐसा करने पर आप के कुल में प्रकार से देव-दोष व पितृदोषों का प्रभाव उत्पन्न होकर आपको प्ररेशान करने लग जाते हैं। आपको अनेकों प्रकार के संकटो का सामना करना पड़ता है। इसके लिए एक कहावत जो हमारे यहाँ प्राचीन काल से चली आ रही है वह भी यही कहती है कि – ‘जैसा खाए अन्न वेसा ही होवे मन’।
भोजन कब, कैसे और कितना करना चाहिए, विषय पर हमारे विभिन्न पुराणों में जो जानकारियां दी हुई हैं वे कुछ इस प्रकार से हैं –
= आप के सामने परोसे हुये भोजन की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये। वह स्वाद में जैसा भी हो, उसे प्रेम से ग्रहण करना चाहिये। – महाभारत, तैत्तिरीय उपनिषद।
= रात में कभी भी भरपेट और गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिये। – स्कन्दपुराण।
= अपने दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख को धोकर ही भोजन के लिए बैठना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति इन नियमों का पालन करता है तो वह शतायु होता है। – पद्मपुराण, सुश्रुतसंहिता महाभारत।
= भोजन करते समय सदैव मौन रहना चाहिये और भोजन पर ही ध्यान होना चाहिए। – स्कन्दपुराण।
= भूलकर भी शयन स्थल या कक्ष में, पलंग या बिस्तर पर बैठकर भोजन न करें। यूँ ही हाथ में लेकर कुछ भी ना खायें, पात्र या बर्तन में लेकर ही खायें।
= यदि आप बहुत थके हुये हों तो कुछ देर आराम करने के बाद ही कुछ खायें या पियें। अधिक थकावट की स्थिति में कुछ भी खाने और पिने से ज्वर (बुखार) या उल्टी होने की आशंका रहती है। – नीतिवाक्यामृतम्।
= अपना या किसी अन्य का भी जूठा भोजन किसी को ना दें और स्वयं भी न खायें।
= भोजन के बाद जूठे मुँह कहीं न जायें। थोड़ा पानी पिए या कुल्ला अवश्य करें। – मनुस्मृति।
= अंधेरे में, खुले आकाश के नीचे, मन्दिर के गर्भ-गृह में भोजन नहीं करना चाहिये।
= एक वस्त्र पहन कर, किसी भी सवारी या बिस्तर पर बैठकर, जूते-चप्पल पहन कर, हँसते हुये या रोते हुये, क्रोध में या फिर उदासी में भी कुछ खाना नहीं चाहिये। – कूर्मपुराण।
= भोजन के पात्र या भोजन की वस्तुओं को गोद में या हाथ में रखकर कभी भी नहीं खाना चाहिये। – बौधायनस्मृति, कूर्मपुराण।
= जो सेवक स्वयं भूख से पीड़ित हो और उसे आपके लिये भोजन लाना पड़े तो ऐसा भोजन कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये।
= जो व्यक्ति आपके प्रति प्रेम और स्नेह नहीं रखता उसके घर का अन्न भी नहीं खाना चाहिये। – चरकसंहिता।
= भोजन सदैव एकान्त में बैठ कर ही करना चाहिये। – वसिष्ठस्मृति स्कन्दपुराण।
– शिवांगी चौहान