अजय सिंह चौहान | जब सन 1999 में, पोप जाॅन पाॅल द्वितीय ने भारत में आकर ये घोषणा की थी कि चर्च 21 वीं सदी में एशिया में क्राॅस लगाएंगे और क्रिश्चिनिटी का विस्तार करेंगे, तो मीडिया ने इसे ठीक बताया। आखिरकार, चर्च का अपना निजी कर्तव्य है कि वह पूरी दुनिया में ईसाई धर्म का प्रसार करे, इसलिए पोप सिर्फ अपना कर्तव्य निभा रहे हैं।
और जब इधर जाकिर नाइक या उसके जैसे दूसरे लोग हिंदुओं का इस्लाम में बड़े पैमाने पर रूपांतरण करवाते हैं, तो वही मीडिया उन्हें या तो अनदेखा कर देता है या फिर दुनिया को बताता है कि ये उस धर्म का नीजि मामला है। चलो मान लिया कि आखिरकार, इस्लाम को भी हक है कि वो भी दुनिया में तब तक अपना विस्तार करे जब तक कि सारी मानव जाति मुसलमान नहीं हो जाती।
अब अगर क्रिश्चिनिटी और इस्लाम के बाद हम बात करें हिंदू धर्म के बारे में तो हिंदू समुदाय में प्रचार-प्रसार तो बिल्कुल नहीं हो रहा है लेकिन, यहां भी एक ऐसा समूह है जो उन लोगों में से कुछ को ‘घर वापसी‘ के नाम पर वापस लाने का प्रयास कर रहा है जो हिंदू धर्म से बाहर हो गए थे।
लेकिन, समस्या यहां ये आ जाती है कि हर बार दुनियाभर का मीडिया उन पर हाइपर हो जाता है और उल्टा उन्हें ही दोष देने लग जाता है कि हिंदू समूह सांप्रदायिक और विभाजनकारी ताकतें हमारे समाज को परेशान कर रहीं हैं और वे सब लोग मिलकर एक असहिष्णु हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं।
इसमें सबसे बड़ी बात तो ये देखने को मिलती है कि दुनियाभर के उस हाइपर मीडिया के साथ-साथ खुद भारतीय टीवी चैनलों और अखबारों का रोल भी उस ‘घर वापसी‘ के विरोध में सबसे अधिक देखने को मिलता है।
भला दुनियाभर के मीडिया को आखिर ये गलत क्यों लगता है? जबकि, सच्चाई इसके एक दम विपरीत ही है। तीनों धर्मों में से केवल हिंदू या सनातन धर्म ही ऐसा है जो विभाजनकारी नहीं है और न ही सांप्रदायिक है। केवल सनातन धर्म ही है जो सभी को परिवार के रूप में मानता है – वसुधैव कुटुम्बकम, यानी बिना किसी भेदभाव के।
इसके विपरीत, ईसाई धर्म और इस्लाम, जो धर्म के क्षेत्र में मात्र कुछ हजार साल पहले ही आये हैं, फिर भी वे मानवता को आस्तिकों और नास्तिकों में विभाजित करते हैं। उनकी नजर में आस्तिक सही हैं और नास्तिक गलत। आस्तिकों को भगवान से प्यार है इसलिए वे स्वर्ग में जा सकते हैं लेकिन, नास्तिक भले ही एक साधारण जीवन जीते थे, फिर भी उन्हें भगवान के द्वारा व्यक्तिगत रूप से नरक में फेंक दिया जाता है। और इस बात में हद तो ये है कि वे सभी दावे बिना किसी सबूत के किए जाते हैं।
क्या ईसाई और इस्लाम धर्म के इस प्रकार के दावे निराधार मुर्खता भरे नहीं हैं? क्या ये दावे ईसाई और इस्लाम धर्म को असहिष्णु, सांप्रदायिक और विभाजनकारी होने का सबूत नहीं दे रहे हैं? क्या दुनियाभर के उस हाइपर मीडिया को ये नहीं दिखता कि सही कौन है और गलत कौन?
इसलिए यहां निष्पक्षता के तौर पर प्रश्न उठता है कि क्या ‘विभाजनकारी ताकतों‘ जैसे शब्द को हिंदू धर्म के बजाय ईसाई धर्म और इस्लाम पर लागू नहीं किया जाना चाहिए? इतने स्पष्ट प्रमाण होने के बावजूद भी विश्व मीडिया इस बात के लिए निश्ंिचत है कि केवल हिंदू धर्म ही विभाजनकारी ताकत है और इसे फैलने से रोकने की आवश्यकता है।
अब यहां बात आती है कि भला भारतीय मीडिया खुद और पश्चिमी मीडिया भी अपने उन दावों में इतने सुनिश्चित क्यों हैं कि केवल हिंदू धर्म ही विभाजनकारी है और इसे फैलने से रोकने की आवश्यकता है। तो, इसे समझने के लिए हमें 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में जाने की आवश्यकता है जब वेदों का प्राचीन ज्ञान पहली बार पश्चिम के विश्वविद्यालयों में पहुंचा था।
दरअसल, पश्चिमी विश्वविद्यालयों का बौद्धिक वर्ग वेदों के प्राचीन ज्ञान से इतना गहराई तक प्रभावित हो चुका था कि वो इसे अधिक से अधिक पढ़ना और समझना चाहता था।
वोल्टेयर, श्लेगल बंधु, मार्क ट्वेन और पाॅल ड्यूसेन जैसी कई प्रमुख हस्तियों ने भारत की समृद्ध साहित्य विरासत के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में, हेइजेनबर्ग, श्रोडिंगर, पाउली, ओपेनहाइमर और आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक वेदों से बहुत अधिक प्रेरित थे और उन्होंने अपने-अपने शोध में इसे सीधे-सीधे स्वीकार भी किया है।
अब यहां बात आती है कि अगर 18 वीं और 19 वीं शताब्दी तक भी इतना सब कुछ ठीक चल था तो फिर आज उसी हिंदू परंपरा ने दुनिया भर में अपने उस सम्मान को आखिर कैसे खो दिया? ऐसा क्या हुआ कि अब इसे उसी पश्चिम के शिक्षाविदों द्वारा ही दुनिया के सभी धर्मों में सबसे खराब माना जाता है।
तो इस विषय पर हमें कई ऐ चैंकाने वाले तथ्य मिलते हैं जिनमें वहां का इतिहास हमें सीधे-सीधे तथ्य बताता है कि पश्चिम में चर्च के लिखाफ खड़े होने वालों में वोल्टेयर सबसे आगे था। चर्च के स्थान पर उसने बार-बार भारतीय ज्ञान की प्रशंसा की, और इसके लिए वो जेल भी गए। चर्च को भी यह जानकारी थी कि उसके पैसों पर पलने वाले बुद्धिजीवियों ने खुद ही भारतीय ज्ञान की प्रशंसा की, और सीधे-सीधे बता दिया कि ईसाई धर्म से तो हिंदू धर्म बहुत बेहतर है।
उधर चर्च को खुद महसूस होने लगा था कि उसका सबसे बड़ा खतरा हिंदू धर्म होता जा रहा है। और अगर ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार उनके चर्च में एकत्र होने वाली भीड़ को खो देगा। ऊपर से उन्होंने अपने उन लोगों को दंडित करने की उस शक्ति को भी खो दिया था जो चर्च से असहमत होने की हिम्मत करते थे।
इसलिए यहां ये बात एक दम साफ-साफ समझ में आ जाती है कि चर्च की शक्तियों के सहयोग से ही, पश्चिमी श्रेष्ठता और क्रिश्चियनिटी के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए केवल और केवल भ्रम और षड्यंत्रों के सहारे ही हिंदुत्व पर हावी हुआ जा सकता है। आज वे चर्च खुद दुनिया भर के बच्चों को हिंदू धर्म के बारे में नकारात्मक पहलुओं को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं।
यही कारण रहा कि क्रिश्चियनिटी और इस्लाम ने मिल कर भारत की उस महान सभ्यता और साहित्यिक विरासत को समाप्त करने के लिए एक से बढ़ कर एक रणनीतियां विकसित कीं और आज भी उन्हीं रणनीतियों पर वे लोग काम कर रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बात तो ये देखने को मिलती है कि क्रिश्चियनिटी और इस्लाम के उस काम के लिए दुनियाभर के उस हाइपर मीडिया का भी साथ मिला हुआ है। और इन सब ने मिलकर भारतीय मीडिया को भी अपना पार्टनर बना लिया है।