अजय सिंह चौहान || प्राचीन द्वारिका नगरी (History & Mystery of Dwarika in Gujarat) के साथ अचानक कुछ ऐसा हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण के इस पृथ्वी लोक को छोड़ कर जाने के मात्र 36 वर्षों के बाद ही सिंधु सागर के जल पर तैरती वह नगरी जल में समाने लगी। उसकी प्रजा जो कि द्वारिका के समुद्र में समाने से पहले वहां से निकल कर किसी प्रकार से तट पर आ गई थी, उनको विशेष सुरक्षा प्रदान करने के लिए इंद्रप्रस्थ से अर्जुन को शीघ्र द्वारिका के लिए जाना पड़ा और वहां से भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ सहित समस्त महिलाओं, बच्चों और अन्य प्रजाजन को अपने साथ हस्तिनापुर ले गये। हस्तिनापुर में आने के बाद धर्मराज युधिठिर ने एक बार फिर से मथुरा नगरी को आबाद करवा दिया और श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को मथुरा का राजा घोषित कर दिया।
वह प्राचीन द्वारिका नगरी अचानक, बस यूं ही समुद्र में नहीं समा गई थी, बल्कि इसके पीछे का रहस्य यह था कि, गांधारी के उस मात्र एक श्राप के चलते यदुवंशियों में आपसी कलह और युद्ध के कारण नाश होते-होते स्थिति यहां तक पहुंच चुकी थी कि अब तक उस वंश में भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ‘वज्रनाभ’ ही एक मात्र अंतिम शासक के रूप में जीवित बच पाये थे। जबकि दूसरी तरफ गांधारी के उस श्राप के कारण, ठीक 36 वर्षों के बाद सिंधु सागर के एक द्वीप पर बनी वह भव्य ‘स्वर्ण नगरी द्वारिका’ भी अचानक समुद्र में समा गई।
स्वयं श्रीकृष्ण ने अपनी कर्मभूमि (History & Mystery of Dwarika in Gujarat) के तौर पर एक ऐसे स्थान का चयन किया था जिसके चारों तरफ दूर-दूर तक कोई दूसरा राज्य या नगर तो क्या, भूमि तक भी नहीं थी। यानी अथाह सागर के जल पर तैरती हुई नगरी के रूप में अपनी उस द्वारिका को उन्होंने जिस सिंधु सागर के अंदर बसाया था। उस स्थान को आज हम ‘अरब सागर’ के नाम से जानते हैं। यह कोई मनगढ़त बातें या पश्चिम की दी हुई थ्योरी नहीं बल्कि यह साबित हो चुका एक ऐसा सच है जिसको कि आज खुद हमारी ही सरकारें बाहर लाने से डर रहीं हैं।
पुराणों में उल्लेख है कि उस प्राचीन द्वारिका नगरी को बसाने के लिए श्रीकृष्ण ने सिंधु सागर से आग्रह किया था कि- ‘‘आपके तल में जो अथाह भूमि है, उसमें से मुझे कुछ भाग चाहिए, जिसको मैं अपनी प्रजा की सुरक्षा के लिए एक नगर के रूप में बसाना चाहता हूं।’’ सागर देव ने उनकी विनती को स्वीकार कर लिया और अपने तल में से कुछ भाग को भूमि के रूप में उभार कर श्रीकृष्ण को दे दिया। श्रीकृष्ण ने भगवान विश्वकर्मा की सहायता से उस भूमि पर विशाल आकार वाली सुरक्षित चार दिवारी से युक्त एक भव्य नगरी का निर्माण करवाया दिया। वही नगरी श्रीकृष्ण की कर्मभूमि (History & Mystery of Dwarika in Gujarat) नगरी कहलायी।
प्रमाणिकता के तौर पर हरिवंश पुराण में स्पष्ट रूप से लिखा है कि, ‘‘सिंधु सागर में निर्मित द्वारिका नगरी का क्षेत्रफल करीब 12 योजन है।’’ यहां अगर हम एक योजन को किलोमीटर में देखें तो सूर्य सिद्दांत के अनुसार एक योजन में आठ किलोमीटर होता है। हालांकि, एक खगोलविद ने 14वीं शताब्दी में एक योजन को लगभग 12 किलोमीटर के आस-पास भी बताया था। इस हिसाब से समुद्र में बसी उस द्वारिका नगरी का क्षेत्रफल करीब 96 किलोमीटर या फिर उससे भी अधिक यानी करीब 144 किलोमीटर रहा होगा।
हरिवंश पुराण में यह भी लिखा है कि, द्वारिका नगरी (History & Mystery of Dwarika in Gujarat) जब सिंधु सागर में समा गई थी तो उससे पहले ही श्रीकृष्ण उस स्थान को छोड़कर कहीं ओर जा चुके थे, और उसके कुछ समय बाद ही वे इस मृत्यु लोक को भी छोड़ कर अपने वैकुण्ठ धाम में चले गये। और श्रीकृष्ण के वैकुण्ठ धाम में जाने के ठीक 36 वर्षों के बाद ही वह द्वारिका नगरी भी समुद्र में समा गई थी।
वर्तमान द्वारिका नगरी भी उसी दौर में स्थापित एक प्राचीन नगरी ही है जिसको कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के प्रपोत्र वज्रनाभ ने मथुरा का राजा घोषित होने के बाद उसी द्वारिका नगरी की याद में श्रीकृष्ण को समर्पित करने के लिए इसका निर्माण करवाया था। और, जिस स्थान पर स्वयं श्रीकृष्ण का महल था और उस महल में उनका जो ‘हरि गृह’ यानी उनका शयन कक्ष था, वह स्थान समुद्र में डूबने से बच गया था, इसलिए उन्होंने श्रीकृष्ण के उस शयनकक्ष को उनकी याद में एक स्मारक का रूप दे दिया और उसे ‘‘द्वारिकाधीश मंदिर’’ के रूप में घोषित कर वहां भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित करवा दी।
‘‘द्वारिकाधीश मंदिर’’ के रूप में घोषित होने के बाद से अगले सैकड़ों वर्षों तक वह महल उसी अवस्था में सुरक्षित रहा। इस दौरान वह स्मारक न सिर्फ संपूर्ण भारतवर्ष के लिए बल्कि संपूर्ण पृथ्वीवासियों के लिए एक आदर्श स्थान और आस्था का केन्द्र बन चुका था। ये वही वज्रनाभ थे जो श्रीकृष्ण के अंतिम वंशज और मथुरा के अंतिम यदुवंशी शासक माने जाते हैं।
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गोमती नदी के तट पर स्थित द्वारिका नगरी का उल्लेख हमें महाभारत ग्रंथ में श्रीकृष्ण की राजधानी ‘द्वारिका साम्राज्य’ के रूप में पढ़ने को मिलता है। श्रीकृष्ण आज भी यहां साक्षात विराजमान हैं। इसलिए यदि आप सच्चे मन से द्वारिका की यात्रा पर जाते हैं तो आपको यहां उनकी आहट भी सुनाई देगी। यही कारण है कि अधिकतर सनातन तीर्थ प्रेमी इस स्थान की यात्रा के लिए हमेशा उत्साहित रहते हैं।
अब अगर यहां हम समुद्र में समा चुकी उस प्राचीन द्वारिका नगरी को छोड़ कर वर्तमान द्वारिका की बात करें तो अरब सागर के तट पर स्थित यह गुजरात राज्य, प्राचीन भारत का ‘सौराष्ट्र’ क्षेत्र कहलाता है। इसी सौराष्ट्र की भूमि पर सनातन धर्म के चार प्रमुख धामों में से एक और भगवान श्रीहरी विष्णु के कृष्णरूपी अवतार यानी द्वारिकाधीश की कर्मभूमि है जिसे संपूर्ण संसार द्वारिका के नाम से जानता है।
Mystery of Dwarika: प्राचीन द्वारिका के रहस्यों को क्यों छुपाना चाहती हैं सरकारें?
वर्तमान द्वारिका नगरी भी मात्र एक ऐतिहासिक ही नहीं बल्कि करीब पांच हजार वर्ष पहले, यानी द्वापर युग के अंतिम कुछ वर्षों की समयावधि के दौरान और महाभारत युद्ध के पहले स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ही इसे भी बसाया था इसलिए यह भी उसी प्रकार और उतनी ही पौराणिक महत्व की नगरी है।
आज भले ही आधुनिक विज्ञान और पुरातत्वविद् अपने-अपने तर्क और बुद्धि के बल पर इस स्थान और इस नगरी को मात्र दो से ढाई हजार वर्षों के इतिहास से जोड़ कर देख रहे हैं, लेकिन, यह सच है कि, सनातन धर्म के पौराणिक साक्ष्यों और आस्था के आगे स्वयं भगवान भी बेबस देखे जाते रहे हैं, तो फिर यह तो आधुनिक काल का एक तुच्छ विज्ञान मात्र ही है।
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लेकिन, यहां हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि, क्योंकि यह कलियुग का काल चल रहा है और इस युग में बड़े से बड़े प्रमाणों को भी नकार दिया जाता है तो फिर साक्षात भगवान के अस्तित्व को आसानी से कैसे मान लिया जायेगा? और यही कारण है कि इस क्षेत्र को हर बार हर कोई, इतिहास से तो जोड़ कर देखता है तो कोई अपने तर्कों और कुतर्कों से समझाने लगता है। लेकिन, इसकी पौराणिकता के साथ-साथ स्वयं श्रीहरि विष्णु के कृष्ण रूपी अवतार के प्रमाणों को नकार दिया जाता है। हालांकि, श्रीहरि को प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए समय आने पर अपने अस्तित्व को वे स्वयं ही उजागर कर देते हैं। द्वारिका नगरी के पौराणिक और ऐतिहासिक प्रमाणों में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलता रहा है।