अजय सिंह चौहान || उत्तर प्रदेश राज्य का जिला कन्नौज, भले ही वर्तमान में अपने इत्र व्यवसाय और तंबाकू उत्पादन के लिए मशहूर है। लेकिन, आज भी इसकी गणना भारत के कुछ प्राचीनतम और ख्यातिप्राप्त नगरों में की जाती है। कानपुर के पश्चिमोत्तर में गंगा नदी के किनारे स्थित कन्नौज शहर वर्तमान में प्रदेश का एक प्रमुख जिला मुख्यालय एवं नगरपालिका भी है। कन्नौज आज के दौर में जितना आधुनिक रूप ले चुका है, इसका इतिहास भी उतना ही प्राचीन और ऐतिहासिक महत्व का है।
छठवीं शताब्दी के प्रारंभ में महान सम्राट हर्ष वर्धन और 325 ईसा पूर्व के मौर्य शासनकाल में देश की राजधानी का गौरव हासिल कर चुका आज का यह कन्नौज जिला, यानी प्राचीन कान्यकुब्ज कभी हिन्दू साम्राज्य की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित हुआ करता था और अपनी उस दौर की प्राचीन और ऐतिहासिक धरोहरों और गाथाओं के दम पर और नाम पर आज भी पहचाना जाता है।
वर्तमान में भले ही हम कन्नौज को इसके इसी आधुनिक नाम से जानते हैं। लेकिन, यह इसका असली नाम नहीं है। बल्कि इसका असली नाम तो कान्यकुब्ज है जो रामायण और महाभारत जैसे विश्व प्रसिद्ध ग्रंथों में भी मिलता है। कान्यकुब्ज नाम का वह प्राचीन नगर मात्र आज के कन्नौज शहर की सीमाओं तक ही सीमित नहीं था बल्कि यह आज के कन्नौज के आसपास वाले क्षेत्रों तक भी फैला हुआ था।
अब अगर हम बात करें इसके नाम के विषय में कि आखिर कन्नौज को इसका यह नाम कब और कैसे मिला तो इस विषय में हमें मात्र 500 या हजार वर्षों का इतिहास नहीं बल्कि युगों-युगों के पौराणिक और धार्मिक ग्रंथों के साक्ष्य मिलते हैं। जिसमें सर्वप्रथम तो यह कि वर्तमान कन्नौज का वह प्राचीन कान्यकुब्ज नाम, संस्कृत के दो शब्दों- कन्य यानी कन्या और कुब्जा यानी कुबड़ से मिल कर बना नाम है।
और यदि हम कन्नौज के नाम को लेकर पौराणिक साक्ष्यों की बात करें तो वराह पुराण और विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इसे ‘कन्यापुर,‘ ‘कुशिक,‘ ‘कोश‘ और ‘महोदय’ जैसे नाम भी दिये गये हैं। जबकि विष्णुधर्मोत्तर पुराण में तो यहां तक बताया गया है कि आज के इस कन्नौज शहर, यानी कान्यकुब्ज का सबसे पहला नाम ‘महोदय‘ हुआ करता था।
इसी प्रकार महाभारत में आज के इस कन्नौज यानी प्राचीन कान्यकुब्ज नगर का उल्लेख महर्षि विश्वामित्र के पिता राजा गाधि की राजधानी के रूप में है। हालांकि, उस समय कान्यकुब्ज दक्षिण पंचाल नगर का एक हिस्सा हुआ करता था संभवतः इसीलिए इसका इतना अधिक महत्व नहीं हुआ करता था। क्योंकि उन दिनों दक्षिण-पंचाल की राजधानी कांपिल्य हुआ करती थी।
वाल्मीकि रामायण में बताया गया है कि इस कन्नौज का यानी कान्यकुब्ज नगर का नामकरण कुब्जा कन्याओं के नाम पर हुआ था। संस्कृत में यह दो शब्दों- कान्य यानी कन्या और कुब्ज अर्थात कुबड़ से मिलकर बना है।
कन्नौज को इसका वह प्राचीन नाम यानी कान्यकुब्ज कैसे मिला इस विषय में रामायण में भी लिखा है कि राजर्षि कुशनाभ को धृताची नाम की अप्सरा से 100 कन्याएं हुईं थीं। उन कन्याओं के रुप को देख कर वायु देवता उन पर मोहित हो गये और उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया। लेकिन, उस विवाह प्रस्ताव के उत्तर में उन कन्याओं ने कहा कि वे अपने पिता की आज्ञा के बिना किसी भी विवाह प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकती। तब वायु देवता ने क्रोध में आकर उन सभी कन्याओं को कुबड़ी होने का श्राप दे दिया, जिसके बाद उन सभी कन्याओं के कुबड़ निकल आये, जिसके बाद इस सबसे अनोखी घटना की चर्चा संपूर्ण संसार में होने लगी और धीरे-धीरे यह नगर कन्या कुब्जा नगर यानी कुबड़ी कन्याओं के नगर के रूप में पहचाना जाने लगा था। हालांकि, फिर भी उन कन्याओं के पिता राजर्षि कुशनाभ यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुए कि उनकी कन्याओं ने उनका सम्मान रखा।
उसके बाद राजर्षि कुशनाभ ने अपनी उन सभी कन्याओं का विवाह कांपिल्ल नगर के राजा ब्रम्हादत्त के साथ करवा दिया, और राजा ब्रम्हादत्त के स्पर्श से उन सभी का कुबडापन ठीक हो गया। उन्हीं कन्याओं के कुबडी होने से इस नगर को कान्यकुब्ज नाम दिया गया और इसके निवासियों को कान्यकुब्ज नगर के निवासी कहा जाने लगा तथा कान्यकुब्ज नगर के ब्राह्मण कनौजिया कहलाने लगे। इसी के आधार पर यहां यह भी माना जाता है कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण मूल रूप से इसी स्थान के निवासी हैं।
अब अगर हम इसके आधुनिक नाम यानी कन्नौज के बारे में बात करें तो पता चलता है कि, क्योंकि प्राचीन काल के उस दौर में संपूर्ण भारत में राष्ट्रीय भाषा के तौर पर संस्कृत का ही प्रचलन था और संस्कृत ही बोली भी जाती थी, इसलिए हर शब्द का ऊच्चारण एक ही हुआ करता था। इसलिए संपूर्ण देश के किसी भी भाग के किसी भी नाम के ऊच्चारण में कोई बदलाव नहीं होते थे। लेकिन, मुगलकाल के दौरान संस्कृत भाषा का पतन होता गया और क्षेत्रिय भाषाओं सहीत अन्य भाषाओं और बोलियों का चलन भी अधिक होने लगा था।
संभवतः यही कारण रहा कि देश के अन्य अनेकों ऐतिहासिक स्थानों के नामों की तरह ही कन्यकुज्जा यानी आज के कन्नौज का नाम भी, समय के साथ-साथ भाषाओं के ऊच्चारण और संवाद शैली यानी आम बोलचाल की भाषा की सरलता के चलते आम आदमी के मुख से कन्यकुज्जा से यह कन्याकुज हुआ, और कन्याकुज से कन्यौज और फिर यह कन्नौज हो गया।
अब अगर हम कन्नौज के मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास की बात करें तो पता चलता है कि चीनी यात्री हुएनसांग ने भी अपने यात्रा वृतांत में कन्नौज के प्राचीन नाम कान्यकुब्ज के विषय में कुछ इसी प्रकार का विवरण दिया है और हुएनसांग ने यह भी बताया है कि कन्नौज यानी प्राचीन कान्यकुब्ज की गणना उन दिनों प्राचीनतम भारत के कई ख्याति प्राप्त और प्रसिद्ध नगरों में की जाती थी।
हुएनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में मौर्य शासनकाल के उस कन्नौज के बारे में बताया है कि किस प्रकार से यह एक विकसित, सभ्य और शीक्षित नगर हुआ करता था। हुएनसांग ने यह भी लिखा है कि यहाँ कई विश्व प्रसिद्ध मन्दिर हुआ करते थे जिनमें शिव और सूर्य के प्रसिद्ध मन्दिर प्रमुख हैं। इसके अलावा हुएनसांग ने यहां कुछ बौद्ध विहार होने का भी जिक्र किया है।
जबकि, एक अन्य मशहूर इतिहासकार और यात्री टाॅलमी भी उस दौर में भारत की यात्रा पर आया था जिसने अपने यात्रा वृतांत में कन्नौज को ‘कनोगिजा‘ लिखा है। इसके अलावा युवानच्वांग नामक एक अन्य चीनी यात्री जो सम्राट हर्षवर्धन के शासकाल के दौरान भारत आया था, उसने भी अपने यात्रा वृतांत में इस नगर के वैभव का स्पष्ट उल्लेख किया किया है।
अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार पांचवीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के समय कन्नौज एक प्रमुख व्यावसायिक नगर के रूप में हुआ करता था। लेकिन, छठी शताब्दी के दौर में यहां हूणों के आक्रमणों से काफी कुछ नष्ट हो चुका था।
इसके अलावा यह भी माना जाता है कि विन्ध्याचल पर्वत शृंखला के उत्तरी हिस्से के मूल निवासियों का एक समुह जो ‘कान्यकुब्ज ब्राह्मण’ के नाम से पहचाना जाता है वह भी इसी स्थान के मूल निवासी हैं। इसके अलावा ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी से लेकर पाँचवीं शताब्दी तक कन्नौज का उल्लेख कई पौराणिक ग्रन्थों में मिलता है। ‘हर्षचरित’ में कन्नौज को ‘कुशस्थल‘ के नाम से भी संबोधित किया गया है। सम्राट हर्ष वर्धन के समय में इस नगर की विशेष उन्नति हुई थीं तभी तो यह भारत का विशाल एवं समृद्धशाली नगर बन गया था।
सम्राट हर्ष वर्धन के शासन काल के दौरान कान्यकुब्ज यानी आज का कन्नौज उत्तर भारत का एक महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक और धार्मिक नगर हुआ करता था। जबकि उसके बाद के गुप्त साम्राज्य के दौर में यहां मौखरि वंश के शासकों का भी शासन रहा और उन्होंने भी पांचवीं-छठी शताब्दी में कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया था।
सम्राट हर्ष वर्धन के बाद कन्नौज पर अधिकार जमाने के लिए उत्तर भारत के गुर्जर-प्रतिहार शासकों और पूर्वी भारत के पाल राजाओं के बीच कई बार छोटे-बड़े संघर्ष होते रहे, जिसमें प्रतिहारों का पलड़ा भारी रहा। कन्नौज पर प्रतिहार शासन कायम होने के बाद यह एक बार फिर से विशाल साम्राज्य की राजधानी बन गया और यहां फिर से अनेकों नए हिन्दू मन्दिरों का निर्माण करवाया गया।
प्रतिहार शासनकाल के दौरान बने अनेकों छोटे-बड़े मंदिरों के अवशेष हमें आज भी कन्नौज तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों में देखने को मिल जाते हैं। हालांकि, मुगलकाल के दौरान इन स्थानों में से अधिकतर पर अतिक्रमण हो चुका है और उनके अवशेष भी अब लगभग ना के बराबर ही रह गये हैं।
11वीं शताब्दी के आंरभिक दौर के आते-आते लगभग संपूर्ण भारत सहीत कन्नौज में भी मुगलों के आक्रमण और लूटपाट का दौर शुरू हो चुका था, जिसमें महमूद गजनवी के द्वारा बड़े पैमाने पर धार्मिक स्थानों को लूटपाट का शिकार बनाया गया और कत्लेआम मचाया गया था।
प्रतिहार शासन के बाद तो कन्नौज का गौरव व महत्व लगभग समाप्त ही होता गया और धीरे-धीरे यह उजाड़ नगरी में बदलने लगा। क्योंकि विदेशी आक्रमणकारी और लूटेरे महमूद गजनवी के भीषण आक्रमणों के समय यहाँ भारी रक्तपात और लूटपाट हो चुकी थी। हालांकि, इसके बाद गहड़वाल वंश के शासक चन्द्रदेव ने सन 1085 में एक बार फिर से कन्नौज को एक सुव्यवस्थित शासन देने की कोशिश की और यहां के मंदिरों में पूजा-पाठ होने लगी। लेकिन, गहड़वाल वंश के अन्तिम शासक को भी सन 1163 में उस समय वहां से हटना पड़ा जब मुहम्म्द गौरी के भीषण आक्रमण के बाद एक बार फिर से मुगलों ने कन्नौज में रक्तपात शुरू कर दिया, लूटपाट की और अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया। इसी प्रकार सन 1194 में भी यहां मुगल लूटेरों और आक्रमणकारियों के द्वारा फिर से बड़ी संख्या में लूटपाट और कत्लेआम का खेल खेला गया था।
इन सब से अलग, इतिहास के पन्नों में कई प्रकार से उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरते-गुजरते कन्नौज का नाम 12वीं सदी के महान सम्राट पृथ्वीराज चौहान के संघर्षशील प्रेम प्रसंगों से भी जुड़ गया। जबकि इसी दौर में यहां शासन करने वाले राजा जयचंद का वह किला आज भी अपनी भव्यता और ऐतिहासिकता के सबूत पेश करता हुआ देखा जा सकता है। 12वीं सदी में कन्नौज पर शासन करने वाले और भारतीय इतिहास के उस काले अध्याय के दौर के उस राजा जयचंद का उल्लेख भी कई प्रकार के किस्सों, कहानियों और कहावतों के माध्यम से सीधे-सीधे गद्दार के रूप में लिया जाता है।
भले ही कन्नौज का प्राचीन और मध्य युगिन इतिहास अनेकों प्रकार के उतार-चढ़ाव भरे दौर का रहा हो। लेकिन, आज भी कन्नौज भारत के उन समृद्ध पुरातात्विक और सांस्कृतिक विरासतों में से एक है, जिसका उल्लेख हमारे कई धार्मिक और पौराणिक महत्व के ग्रंथों में हो चुका है। इसके अलावा कांस्य युग के उस दौर के कई हथियार और उपकरण भी यहां से प्राप्त हो चुके हैं। कन्नौज की भूमि से पत्थर की अनेकों ऐसी प्राचीन मूर्तियां भी यहां पाई गई हैं जिससे यह दावा किया जा सकता है कि इस क्षेत्र में आर्य सभ्यता की अति विकसित मानव बस्तियां आबाद थीं।