अजय सिंह चौहान | देखा जाये तो राजस्थान के भरतपुर से गंगा नदी की दूरी सैकड़ों किलोमीटर है। लेकिन, यहां गंगा मईया का जो मंदिर बना हुआ है वह दुनिया में सबसे अलग, सबसे सुंदर और सबसे विशाल मंदिरों में से एक है। बल्कि ऐसा भव्य मंदिर तो गंगा के किनारे बसे किसी भी दूसरे शहर में नहीं है। फिर चाहे वो हरिद्वार हो या फिर बनारस। भरतपुर शहर के बीचों-बीच बना गंगा मईया का ये मंदिर, शहर की सबसे अनोखी शान मानी जाती है।
भरतपुर के ऐतिहासिक लोहागढ़ कीले के ठीक सामने, देवी गंगा को समर्पित ये एक भव्य मंदिर है। इसमें देवी गंगा की प्रतिमा को मगरमच्छ की पीठ पर बैठा हुआ दिखाया गया है। गंगा मईया की ये प्रतिमा संगमरमर के सफेद पत्थर को तराश कर बनाई गई है। इस प्रतिमा के पास ही में राजा भगीरथ की भी एक आकर्षक प्रतिमा के दर्शन होते हैं।
इस मंदिर में गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा जैसे धार्मिक त्यौहारों पर हर साल बड़ी संख्या में भक्त आते हैं। इस अवसर पर यहां मंदिर की सजावट भी परंपरागत तरीके से की जाती है। यहां आने वाले श्रद्धालुओं में उत्तर प्रदेश और राजस्थान सहित अन्य कई पड़ौसी राज्यों के लोग अपने साथ यहां परंपरागत लोक कला और संस्कृति को भी ले कर आते हैं। खासकर राजस्थान के लोग यहां अपनी परंपरागत परिधानों में नजर आते हैं।
दूर से देखने में तो ये मंदिर किसी आलीशान हवेली के आकार का लगता है, जबकि मंदिर के अंदर की नक्काशी देखने लायक है। वास्तुकला की दृष्टि से यह मंदिर राजपूत शैली और दक्षिण भारतीय मंदिर शैली का मिश्रण लगता है। मंदिर की दीवारों और खंबों पर की गई बारीक और सुंदर नक्काशी आकर्षक और अद्भूत लगती है। दीवारों पर भी शानदार नक्काशी की गई है।
बताया जाता है कि इस मंदिर को बन कर तैयार होने में करीब 90 साल का समय लग गया। ये भी कहा जाता है कि गंगा मंदिर के निर्माण के लिए भरतपुर के संपन्न निवासियों ने अपने एक-एक महीने का वेतन दान में दिया था।
इस दो मंजिला मंदिर की संरचना में, वास्तुकला की विभिन्न शैलियों को देखा जा सकता है। बारीक नक्काशी से ढंके मंदिर के सभी स्तंभ, आकर्ष और मनमोहक हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक तरफ लक्ष्मी नारायण और शिव पार्वती की मूर्तियां हैं तो दूसरी तरफ भगवान श्रीकृष्ण की गिरीराज पर्वत को उठाए हुए मूर्ति के दर्शन होते हैं।
देश-विदेश से आने वाले तमाम पर्यटकों और श्रद्धालुओं को ये मंदिर आस्था, श्रद्धा, कलात्मकता और वास्तुशिल्प के कारण भी अद्भुत और आकर्षित करता है।
श्रद्धा और भक्ति से ओतप्रोत हजारों की संख्या में मां गंगा के भक्त हर साल हरिद्वार से गंगाजल लाकर इस मंदिर में देवी के चरणों के पास रखे एक चांदी के बड़े आकार वाले कलश में डाल देते हैं। और जब देवी गंगा अपना दिव्य आशीर्वाद इस कलश के जल में डाल देतीं हैं, यानी कि विधि-विधान से जब इस कलश का पूजा-पाठ हो जाता है, तब वही जल यहां आने वाले भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है।
मंदिर से जुड़े कुछ प्रमुख ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सन 1845 में भरतपुर के जाट शासक महाराजा बलवंत सिंह के द्वारा इस मंदिर का निर्माण प्रारंभ करवाया गया था। इसके बाद इसका निर्माण कार्य अगले पांच राजाओं के शासनकाल तक चलता रहा और महाराजा ब्रजेंद्र सिंह के शासनकाल में, यानी 22 फरवरी सन 1937 में, इसमें माता गंगा जी की मूर्ति की स्थापना की गई।
करीब 92 साल तक चले इसके निर्माण कार्य के बाद भी इसका निर्माण अभी तक भी अधूरा ही बताया जा रहा है, जिसमें इसका मुख्य प्रवेश द्वार और मंदिर के पिछले हिस्से का शिखर बनना अब तक भी बाकी है।
मंदिर से जुड़ी कहानी के अनुसार भरतपुर के महाराजा बलवंत सिंह के घर संतान का जन्म नहीं हो रहा था इसलिए उनके पुरोहित ने उन्हें गंगा पूजन की सलाह दी। और जब गंगा पूजन के बाद उनके घर संतान का जन्म हुआ तो उन्होंने अपने पुरोहित की सलाह पर गंगा महारानी का मंदिर बनवाने का निश्चय किया।
मंदिर में स्थापित ‘जंबू जी‘ यानी गंगा जल का एक बड़ा-सा पात्र जो ढाई फीट ऊंचा चांदी का कलात्मक कलश है, इस कलश में हमेशा गंगाजल भरा रहता है। बताया जाता है कि यह कलश महाराजा बलवंत सिंह के द्वारा यहां स्थापित किया गया है। सन 1845 में मन्नत पूरी होने के बाद वे स्वयं हरिद्वार से इस कलश में गंगाजल भर कर यहां लाये थे।
गंगाजी को महाराजा बलवंत सिंह की कुल देवी और इष्ट देवी माना जाता है इसलिए वे जंबू जी को यानी इस कलश को हाथी के हौदे पर पूरे राजसी सम्मान के साथ हरिद्वार से यहां लाये थे। गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा इस मंदिर के प्रसिद्ध त्यौहार हैं। उस समय यहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है।
इस मंदिर की एक विशेष खासियत के तौर पर इसमें एक ऐसा घंटा टंगा हुआ है जिसकी ध्वनि, यानी की आवाज, बहुत ही शक्तिशाली है और इसे दूर-दूर तक सुना जा सकता है। मंदिर में श्रद्धालुओं की संख्या के साथ-साथ देशी-विदेशी पर्यटकों की भीड़ अच्छी खासी रहती है।