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अजय सिंह चौहान || मध्य प्रदेश का एक बहुत ही प्रसिद्ध शहर है – इंदौर। और इंदौर जितना प्रसिद्ध है उससे कहीं ज्यादा सभ्य और शालीन भी है। और तो और, इंदौर जिना सभ्य और शालीन है उससे भी ज्यादा यह अपनी प्राचीन संस्कृति की पहचान का प्रतिक माना जाता है। इंदौर की संस्कृति महज पांच सौ या हजार वर्ष पुरानी नहीं है बल्कि उससे भी कई हजार वर्ष पहले की है। इंदौर आज भी अपनी उस प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का प्रतिक है जो इसकी हजारों वर्षों के पौराणिक इतिहास से जुड़ी है।
तो आज हम इंदौर शहर के उस प्राचीन इतिहास की बात करने वाले हैं कि आखिर कैसे यह एक छोटा-सा प्राचीन नगर जो कभी इन्द्र पुरी के नाम से प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हुआ करता था आज एक बहुत बड़े व्यावसायिक महानगर का रूप ले चुका है। लेकिन, फिर भी यह जुड़ा हुआ है अपनी उन परंपरागत और सांस्कृतिक जड़ों से जिनके कारण यह देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में मशहूर है।
मध्य प्रदेश में स्थित इस इंदौर के इतिहास को जानने से पहले यह भी जान लेना भी जरूरी है कि इंदौर आज भारत के कुछ ऐसे विशेष महानगरों में स्थान रखता है जहां पांच सितारा संस्कृति से लेकर परंपरागत सनातन संस्कृति और भारत की परंपरागत ग्रामीण झलक, दोनों एक ही स्थान पर देखने को मिल जाती है।
दरअसल, इंदौर के इतिहास का बारिकी से अध्ययन करने पर पता चलता है कि यहां सन 1721 में मल्हार राव होल्कर के आगमन से पहले तक मालवा के कुछ वंशानुगत जमींदार और स्वदेशी भूस्वामियों का अधिपत्य हुआ करता था, और आज भी इन जमींदारों के कुछ परिवार यहां उसी शान से जीवन जी रहे हैं। और अगर हम इसके पौराणिक इतिहास को देखें तो पता चलता है कि इस संपूर्ण मालवा क्षेत्र पर किसी समय में सम्राट विक्रमा दित्य का शासन हुआ करता था।
लेकिन, अगर हम इंदौर के इतिहास की, और भी अधिक गहराई में जायें, तो पता चलता है कि सन 1973-74 के बीच इंदौर के आजाद नगर में किए गये पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त कई अवशेषों से यह पता चला है कि इंदौर में हडप्पा काल के समकालीन की सभ्यता और संस्कृति भी कायम थी और इस क्षेत्र में चार हजार साल पहले भी आर्य सभ्यता की बस्तियां आबाद थीं।
सन 1973-74 के उस पुरातात्विक उत्खनन में यहां से एक शिवलिंग, एक बच्चे के शव के अवशेष, हड्डियों से बने हुए उपकरण और अन्य कई सारे सामान मिले हैं। इसके अलावा कुछ बौद्ध स्तूपों के अवशेष भी मिले हैं। इन बौद्ध स्तूपों के अवेशषों से यह पता चलता है कि छटवीं से आठवीं शताब्दी तक इंदौर का नाम चितावद भी रहा है।
पुरातत्व विभाग को इंदौर शहर के इस पूर्वी भाग यानी आजाद नगर में मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े, हाथी दांत से बनी चूड़ियां और तांबे से बनी मुद्राएं मिली थीं। यहां से प्राप्त पात्रों के अवशेषों के आकार में हड़प्पा सभ्यता की झलक है। इन पर बने चित्र प्राग हड़प्पा सभ्यता के हैं। पात्रों पर अंकित लिपि मोहन जोदड़ो लिपि जैसी ही है। लहरदार काले रंग के पात्रों पर बने इसी प्रकार के चित्र लोथल और ईरान में भी पाये गये हैं। इसके अलावा कुछ मौर्यकालीन सिक्के भी मिले हैं।
माना जाता है कि उस काल में महेश्वर, उज्जैन और भीकनगांव नामक स्थान बौद्ध धर्म से संबंधित गतिविधियों के प्रमुख केंद्र हुआ करते थे और इंदौर इन शहरों के रास्ते में ही पड़ता था, इसलिए यहां भी बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ होगा। अब यह स्थान प्रदेश शासन के निर्देश पर एक संरक्षित स्थल बना दिया गया है।
अनेकों ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व की जानकारियों के अनुसार इंदौर पर आधिपत्य कायम करने के लिए दक्षिण के राजपूत, बंगाल के पाल और मध्य क्षेत्र के प्रतिहार शासकों के बीच आठवीं शताब्दी के उस दौर में कई बार त्रिकोणीय संघर्ष हुए, जिसके कारण यहां कभी पालों का शासन रहा, तो कभी प्रतिहारों का और कभी राजपूतों का शासन रहा।
आठवीं शताब्दी में राजकोट के राजपूत राजा इंद्र तृतीय की जब उस त्रिकोणीय संघर्ष में जीत हुई तो उस जित को यादगार बनाने के लिए उन्होंने यहां के एक अति प्राचीन शिवालय का जिर्णोंद्वार करवा कर उसे एक भव्य रूप दिया था। उस शिवालय का नाम है इन्द्रेश्वर महादेव। यह मंदिर पंडरीनाथ थाने के पीछे स्थित है।
कुछ स्थानीय लोग यह मानते हैं कि इसी इन्द्रेश्वर महादेव से इंदौर को नाम मिला था। जबकि पौराणिक तथ्य बताते हैं कि इसका यह नाम लगभग 4 हजार पांच सौ वर्षों से भी अधिक पुराना है।
इसके अलावा इंदौर के नाम के पीछे एक पौराणिक कथा भी प्रचिलत है। उस कथा के अनुसार कहते हैं कि एक बार भगवान इंद्र को शरीर में सफेद दाग की बीमारी ने घेर लिया। इसलिए दूसरे देवताओं ने उन्हें उस बीमारी से निजात पाने के लिए महादेव की उपासना करने की सलाह दी। तब देवराज इंद्र ने इसी मंदिर में आकर, कड़ी तपस्या की और वे ठीक हो गए। और क्योंकि स्वयं इंद्र ने भी इस मंदिर में तपस्या की थी इसलिए इस शिवालय का इंद्रेश्वर महादेव नाम प्रचिलत हो गया। शिवपुराण में इस कथा का उल्लेख मिलता है।
और अगर हम यहां बौद्ध साहित्य में इंदौर से संबंधित कुछ जानकारियां प्राप्त करें तो उसमें यानी बौद्ध साहित्य में हमें उल्लेख मिलता है कि इंद्रपुरी का नाम पहले चितावद था और इसी के आधार पर बौद्ध साहित्य में चिटिकाओं का उल्लेख मिलता है।
हालांकि, मुगलकाल के दौरान यहां भारी पैमाने पर राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक बदलाव हुए थे। इसके अलावा जो सबसे अधिक नुकसान हुआ था वह था यहां के तमाम धार्मिक स्थलों का खंडित होना, ध्वस्त होना, और उनमें आर्थिक रूप से लूटपाट का होना। इंदौर और इस संपूर्ण मालवा पर मुगलों के आक्रमण और उनकी हिंसा तथा लूटपाट सहीत अनेकों प्रकार के अत्याचारों से संबंधित इतिहास बहुत लंबा है। इसलिए उसका जिक्र हम फिर कभी करेंगे।
अगर हम इंदौर के आधुनिक इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि सन 1715 के आस-पास के समय में स्थानीय जमींदारों ने इन्दौर को नर्मदा नदी घाटी मार्ग पर व्यापार केन्द्र के रूप में विकसित था। उसके बाद से 18वीं सदी के मध्य तक इंदौर एक व्यावसायिक नगर के रूप में स्थापित हो चुका था।
इस दौरान इंदौर और इसके आस-पास मल्हार राव होल्कर का शासन हुआ करता था। उन्होंने मालवा के दक्षिण पश्चिम क्षेत्र को अपने कब्जे में लेने के बाद इंदौर को अपनी राजधानी बना लिया। मल्हार राव होल्कर के समय में ही इंदौर को उस समय के कुछ खास शहरों में प्रसिद्धि मिल चुकी थी।
इंदौर के होल्कर राजवंश की शुरूआत को मल्हार राव से प्रारंभ हुआ माना जाता है जो सन 1721 में पेशवा की सेवा में शामिल हुए और जल्दी ही सूबेदार बन गये थे।
दरअसल होल्कर वंश के लोग ‘होल’ नामक एक गांव के निवासी थे जो ‘होल्कर’ कहलाए। मल्हार राव होल्कर की सहायता से ही मराठा साम्राज्य पंजाब में अटक तक फैला था। यह वही अटक है जो आजकल पाकिस्तान का एक जिला है।
सन 1766 में मल्हारराव होल्कर के देहांत के पश्चात उनकी पुत्रवधू अहिल्या बाई होल्कर ने लगभग 30 वर्षों तक बड़ी ही योग्यता से यहां अपना शासन चलाया।
यहां यह बात खास तौर पर ध्यान देने वाली है कि होल्कर वंश में जो सबसे चर्चित नाम है वो है अहिल्या बाई होल्कर का। अहिल्या बाई होल्कर का शासन एक बहुत ही सुव्यवस्थित और सूझबूझ वाला शासन रहा। उनके धार्मिक विचार और प्रजा के हितों को आज भी देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में याद किया जाता है।
अहिल्या बाई होल्कर ने कई सारे तीर्थस्थानों पर विभिन्न प्रकार के भवनों का निर्माण करवाकर इतिहास में नाम दर्ज कराया है। उन्होंने न सिर्फ अपने द्वारा शासित क्षेत्रों में बल्कि संपूर्ण देश के कई महत्वपूर्ण तीर्थ स्थानों पर भी मंदिरों और नदियों के घाटों का जिर्णोद्धार करवाया था। उनके समय में किये गये कई महत्वपूर्ण किलों और नदियों के घाटों का निर्माण आज भी देखा जा सकता है।
अहिल्या बाई होल्कर सन 1765-1795 तक एक सफल शासक के रूप में रहीं। लेकिन, सन 1795 में उनकी मृत्यु के बाद इंदौर की गद्दी पर जो भी शासक बैठे वे उतने प्रभावी नहीं रहे। क्योंकि उस दौर में भारत के कई क्षेत्रों में अंग्रेजी हुकुमत के चलते राजनीतिक उठापटक का दौर शुरू हो चुका था। और उस उठापटक के चलते इंदौर सहीत संपूर्ण मालवा क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा।
शुरूआती दिनों में तो होल्करों ने अंग्रेजों को अपने क्षेत्रों से दूर रखा। लेकिन, बाद में होल्कर धीरे-धीरे कमजोर होते गये और अंग्रेजों के आगे पस्त होते गये। सन 1811 में इंदौर के शासक यशवंतराव होल्कर की मृत्यु हो गई।
यशवंतराव होल्कर की मृत्यु के बाद कई वर्षों तक इंदौर में उठापटक का दौर चलता रहा और सन 1817 से 1818 तक अंग्रेजों और मराठाओं के बीच सीधी लड़ाई होती रही। भारतीय इतिहास में इस लड़ाई को तीसरे एंग्लो मराठा युद्ध के नाम से जाना जाता है।
उस तीसरे एंग्लो मराठा युद्ध में होल्कर राजवंश को अपने राज्य का एक बड़ा हिस्सा छोड़ना पड़ा। इसके बाद तो यहां अंग्रेज पूरी तरह से हावी होते चले गये।
और जब अंग्रेज पूरी तरह से हावी होने लगे तो उनके हर प्रकार के रीति-रिवाज, रहन-सहन, नियम-कानून और भाषा का प्रभाव दिन-प्रतिदिन एक अत्याचार की तरह लगने लगा। और उनकी अंग्रेजी भाषा का यहां जो सबसे अधिक दूष्प्रभाव देखने को मिला वह था इस स्थान के नाम के उच्चारण में। अंग्रेजी के उसी दुष्प्रभाव का यह परिणाम है कि आज भी पौराणिक काल का वह इन्द्र पुरी इंदौर ही कहलाता आ रहा है।
इंदौर के नाम के संबंध में यहां कुछ अन्य तर्क भी सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। जिसके अनुसार कहा जाता है कि अठारहवीं शताब्दी में मराठा शासनकाल के दौरान इन्द्र पुरी का नाम बदलने के पीछे का जो कारण बताया गया उसके अनुसार इन्द्र पुरी का मराठी भाषा में उच्चारण इंदूर होता है, इसलिए आगे चलकर जब यहां मराठा साम्राज्य कायम हुआ तो इंन्द्र पुरी से यह इंदूर हो गया और जब यहां अंग्रेजी हुकुमत का दौर चला तो उन्होंने भी इसे अपनी भाषा और सहुलियत के अनुसार पहले इसे इंडोर (आई एन डी ओ आर) किया और अंत में इंदौर (आई एन डी ओ आर ई) में बदल दिया।
लेकिन, यहां ध्यान देने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 18वीं सदी के मध्य तक भी इंदौर का अपना प्राचीन, पौराणिक और असली नाम इन्द्र पुरी ही चलन में था। और इसको यह जो इन्द्र पुरी नाम मिला था वह यहां इसी स्थान पर यानी आज के इंदौर में ही स्थापित एक पौराणिक काल के यानी आज से लगभग 4 हजार वर्ष पुराने इंद्रेश्वर महादेव मंदिर के नाम पर।
लेकिन, इसके बाद यानी 18वीं सदी के मध्य तक यहां अंग्रेजों का वर्चस्व कायम हो गया और उनकी भाषा और उच्चारण के अनुसार यह नाम इन्द्र पुरी से धीरे-धीरे इंदौर में बदल गया।
आज के दौर में इंदौर शहर अपने तरह-तरह के स्वादिष्ट और नए-नए पकवानों के लिए प्रसिद्ध है। और खान-पान के जिस पकवान या वस्तु के लिए इंदौर सबसे प्रसिद्ध है वह है यहां की नमकीन जो दुनियाभर में एक ही नाम से जानी जाती है, और वह नाम है इंदौर का नमकीन।
इंदौर के उस पौराणिक नाम और वर्तमान नाम के पीछे के कारण जो भी रहे हों। मगर, हर कारण में इंद्रेश्वर मंदिर का जिक्र अवश्य आता है। ऐसे में कहा जा सकता है कि इंदौर के नाम का कारण बने इस शिव मंदिर का पौराणिक, ऐतिहासिक और धार्मिक, हर दष्टि से कुछ खास ही महत्व है। और जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश में कुछ शहरों और स्थानों को उनके उन्हीं पौराणिक और प्राचीन नामों से पहचान दिलाई गई है इंदौर के वासियों को भी उम्मीद है कि एक न एक दिन उनके शहर के साथ भी न्याय हो कर ही रहेगा।