अजय सिंह चौहान || भगवान श्रीराम के जल समाधि लेने के पश्चात अयोध्या नगरी उजाड़-सी हो गई थी। लेकिन फिर भी उनकी जन्मभूमि पर बना उस समय का महल वैसे का वैसा ही बना रहा। भगवान श्रीराम के बाद अयोध्या से सूर्यवंशियों की अगली 44 पीढ़ियों तक भी इसका अस्तित्व बना रहा और इस पीढ़ी के महाराजा बृहद्बल तक भी अपने चरम पर रहा। लेकिन महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु के हाथों कौशलराज बृहद्बल की मृत्यु हो गई और महाभारत के उस महायुद्ध के बाद अयोध्या एक बार फिर से उजाड़ हो गई।
समय धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया और अयोध्या का पौराणिक और गौरवमई इतिहास पीछे छूटता गया। पौराणिक और देवीय नगरी अयोध्या में धीरे-धीरे धर्म, सत्ता और नाम सब कुछ बदलता चला गया।
अयोध्या का सनातम धर्म धीरे-धीरे बौद्ध धर्म की ओर मुढ़ चला था और यहां बौद्ध धर्म के अनुयायियों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। ऐसे में बौद्ध धर्म के रंग में रंग चुकी अयोध्या और बौद्ध अनुयायियों ने अयोध्या को एक नया नाम दे दिया और अयोध्या की पहचान धीरे-धीरे ‘साकेत’ के रूप में होने लगी।
अति प्राचीन और पवित्र नगरी का नाम और पहचान अयोध्या न रहकर साकेत हो गया था। एक ओर जहां वाल्मीकि रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में साकेत जैसे शब्द का कोई जिक्र तक नहीं था वहीं बौद्ध साहित्य में अयोध्या नगरी के लिए साकेत शब्द का विशेष तौर पर प्रयोग होना सनातन धर्म के लिए कुछ-कुछ चिंता का विषय भी बनता जा रहा था।
ऐतिहासिक दृष्टि से साकेत शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख बौद्ध जातक कथाओं में मिलता है। लेकिन अगर गुप्तकाल के इतिहास की बात करें तो इसमें कई बार साकेत तथा अयोध्या दोनों ही नामों का प्रयोग किया गया मिलता है।
इतिहासकारों का मानना है कि अयोध्या को व्यापार केंद्र के तौर पर अंतरराष्ट्रीय पहचान 5वीं शताब्दी में तब मिली जबकि यह एक प्रमुख बौद्ध केंद्र के रूप में विकसित हो गया और तब तक यह नगर अयोध्या से साकेत में बदल चुका था। हालांकि अयोध्या नगर 600 ईसा पूर्व में भी एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय व्यापार केंद्र के रूप में जाना जाता था।
माना जाता है कि एक चीनी भिक्षु फा हियान ने अयोध्या में कई बौद्ध मठों को देखा और अपनी डायरी में उनका जिक्र किया। इसके बाद यहां पर 7वीं शताब्दी में भी एक अन्य चीनी यात्री हेनत्सांग आया था। हेनत्सांग के अनुसार यहां साकेत में यानी अयोध्या में 20 बौद्ध मंदिर थे जिनमें 3,000 से भी ज्यादा भिक्षु रहते थे और इसके अलावा यहां पर हिन्दुओं का एक ऐसा प्रमुख और भव्य मंदिर भी था, जहां प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग दर्शन करने आते थे।
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि, 11वीं शताब्दी में कन्नौज का राजा जयचंद जब अयोध्या आया तो उसने श्रीराम मंदिर पर सम्राट विक्रमादित्य द्वारा स्थापित शिलालेख को उखाड़कर वहां अपना नाम लिखवा दिया था। सन 1194 में लड़े गए पानीपत के युद्ध में मोहम्मद गौरी के हाथों जयचंद का भी अंत हो गया और उसके बाद धीरे-धीरे भारतवर्ष पर मुस्लिम आक्रांताओं का आक्रमण और अधिक बढ़ गया।
विदेशी आक्रमणकारियों और लूटेरों ने काशी, मथुरा के साथ ही अयोध्या के मंदिरों में भी भारी लूटपाट की और पुजारियों की बेरहमी से हत्या करके मंदिरों के खजाने हड़प लिए और मूर्तियों को खंडित करके कई मंदिरों को नष्ट कर दिया। उन विदेशी आक्रांताओं के द्वारा तोड़-फोड़ का यह क्रम वर्षों तक जारी रहा। हालांकि, उन मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अयोध्या में कई बार लूटपाट की और राम मंदिर को भी कई बार लूटा। लेकिन, 14वीं सदी तक भी अयोध्या में राम का किला के नाम से प्रसिद्ध रामकोट पहाड़ी पर बने भगवान राम के मंदिर को तोड़ने में वे लोग सफल नहीं हो पाए थे।
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मुगलकाल के अनेकों प्रकार के आक्रमणों और अपमानों को झेलने के बाद भी श्रीराम की जन्मभूमि पर बना भव्य मंदिर 14वीं शताब्दी तक बचा रहा। जबकि 14वीं शताब्दी के जाते-जाते भारतवर्ष पर मुगलों का अधिकार हो गया था और उसके बाद ही भगवान राम की जन्मभूमि पर बने उस मंदिर को नष्ट करने के लिए कई अभियान चलाए गए।
कहा तो यह भी जाता है कि सिकंदर लोदी के शासनकाल के दौरान यानी 1517 तक भी भगवान श्रीराम का वह मंदिर मौजूद था। जबकि 1527-28 में बाबर के इशारे पर उसके सेनापति मीर बाकी ने इस भव्य मंदिर को पुजारियों से छीनने के बाद इसके कुछ हिस्सों को ही नष्ट किया गया था। जबकि मंदिर की दिवारों को और उसके मलबे को ही पुनः इस्तमाल करके उसकी जगह मस्जिद का ढांचा खड़ा किया गया। बाबर के सेनापति मीर बाकी ने राम जन्मभूमि स्थल पर बने मस्जिद के उस ढांचे को खुद ही नाम भी दे दिया बाबरी मस्जिद।
वर्ष 1940 के दशक के पहले तक भी मुस्लिम समाज के बीच इस ढांचे को मस्जिद-ए-जन्म स्थान के नाम से जाना जाता था और हिन्दू समाज में यह जन्म स्थान की मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध थी। यानी भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर बने मस्जिद के उस ढांचे को देश की आजादी के पहले तक भी जन्म स्थान की मस्जिद के रूप में ही स्वीकार किया जाता रहा है। जबकि मुस्लिम समाज के ही कई विद्वानों ने इसे मस्जिद मानने से भी इनकार कर दिया था और आज भी इसके पीछे उनका तर्क यह है कि मस्जिद का निर्माण किसी भी अवैध जगह पर या छीनी गई जगह पर नहीं किया जा सकता। क्योंकि इस्लाम धर्म में यह प्रतिबंधित है।
हालांकि, आजादी के बाद 23 दिसम्बर 1949 को जब अवैध रूप से मस्जिद में राम की मूर्तियों को रखा गया, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के उस समय के मुख्यमंत्री जेबी पंत को एक पत्र लिखकर उस गड़बड़ी को सुधारने की मांग की थी। नेहरू ने उस पत्र में लिखा था कि क्योंकि ‘‘इससे वहां एक खतरनाक मिसाल स्थापित होती है।‘‘ बावजूद इसके वहां के उस समय के स्थानीय प्रशासक और फैजाबाद के उपायुक्त के.के. नायर ने नेहरू की चिंताओं को खारिज कर दिया था। हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि मूर्तियों की स्थापना ‘‘एक अवैध कार्य था‘‘ और नायर ने मस्जिद से उन मूर्तियों को हटाने से मना करते हुए यह दावा किया कि ‘‘इस गतिविधि के पीछे जो गहरी आस्था और भावनाएं जुड़ी हैं… उसे कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।‘‘
जन्मभूमि पर मस्जिद का जो ढांचा बना हुआ था उसमें खुदे दो संदेशों से इस बात का संकेत मिला है कि सन 1528 में अपने अयोध्या पड़ाव के दौरान बाबर ने जन्मभूमि पर मस्जिद निर्माण का आदेश दिया था। इसके अलावा बाबरनामा के नाम से लिखी गई बाबर की जीवनी में भी इसके संकते मिलते हैं। ढांचे में खुदे संदेशों में खासतौर से उल्लेख है कि, ‘जन्नत तक जिसके चर्चे हैं, ऐसे महान शासक बाबर के आदेश पर दयालु मीर बकी ने फरिश्तों की इस जगह को मुकम्मल रूप दिया।‘