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सिंगरौर का पौराणिक महत्व और आधुनिक इतिहास | History of Singraur

admin 11 January 2022
Shringverpur-History-and-pre-history
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अजय सिंह चौहान || उत्तर प्रदेश के प्रयागराज से करीब 35 किमी उत्तर-पश्चिम की ओर जाने पर प्रयागराज जिले में ही, गंगा नदी के किनारे, सिंगरौर (History of Singraur) नाम का एक ऐसा कस्बा आता है जिसे हम प्राचीन युग का यानी त्रेता युग के श्रृंगवेरपुर तीर्थ के नाम से पहचानते हैं। इस श्रृंगवेरपुर (History of Singraur) का उल्लेख हमें रामायण में विस्तार से मिलता है। भारतीय पुरातत्व विभाग के डाॅ. बी.बी. लाल के निर्देशन में सन 1977-1978 ई. में किये गये उत्खनन कार्यों से यह सिद्ध भी हो चुका है कि सिंगरौर का महत्व हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है।

भले ही गंगा नदी के किनारे बसे श्रृंगवेरपुर को आज हम सिंगरौर के नाम से जानते हैं लेकिन, यह वही सिंगरौर है जिसे त्रेता युग में श्रृंगवेरपुर के नाम से पहचाते थे। गंगा न दी के उत्तरी तट और लखनऊ रोड पर पर स्थित यह स्थान अयोध्या से करीब 170 किलोमीटर की दूर, एक छोटी पहाड़ी पर बसा हुआ है।

रामायण में इस स्थान का वर्णन ‘मछुआरों के राजा’ निशादराज के साम्राज्य की राजधानी के रूप में मिलता है। जबकि रामायण के अयोध्याकाण्ड में बताया गया है कि किस प्रकार से भगान श्रीराम श्रृंगवेरपुर (History of Singraur) में गंगा के तट पर पहुंचे थे और इसी स्थान पर श्रीराम, शीशम के एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड में इस वृक्ष को ‘इगुंदी’ यानी हिंगोट कहा गया है। जबकि ‘अध्यात्मरामायण’ और ‘रामचरितमानस‘ में इस वृक्ष को शीशम बताया गया है।

भगवान राम ने श्रृंगवेरपुर (History of Singraur) में यहां जिस शीशम के एक वृक्ष के नीचे रात्री विश्राम किया था बाद में उसे ‘रामचैरा‘ या ‘राम का चबूतरा‘ कहा गया और उसी चबूतरे पर भगवान राम ने राजसी ठाट-बाट का परित्याग कर के अगली सुबह अपना वनवासी का रूप धारण किया था और उसी दिन से उन्होंने उन 14 वर्षों के दिनों की गिनती भी प्रारंभ की थी।

गंगा नदी के घाट के पास ही में आज भी शीशम के वृक्ष खड़े दिखाई दे जाते हैं जिनके बारे में स्थानीय लोग कहते हैं कि ये दोनों ही वृक्ष उसी दौर के वृक्ष के बीजों से उत्पन्न वृक्ष हैं जिसके नीचे श्रीराम, सीता और लक्ष्मण जी ने विश्राम किया था। स्वयं तुलसी दास जी ने भी इस स्थान के महत्व के विषय में लिखा है।

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इसके अलावा इसी ‘श्रृंगवेरपुर’ (History of Singraur) में भगवान रामचंद्रजी की भेंट निषादराज से भी हुई थी। इसके अगले दिन यहां से भगवान श्रीराम, देवी सीता और लक्ष्मण ने केवट की नौका में बैठ कर गंगा को पार किया था और यहीं से अपने साथ आये सुमंत को उन्होंने वापस अयोध्या भेज दिया था।

लंका दहन और रावण वध के बाद अयोध्या लौटने से पहले भगवान राम का पुष्पक विमान सबसे पहले यहीं श्रृंगवेरपुर (History of Singraur) में ही उतरा था। इसके अलावा, इस स्थान का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि, यह वही स्थान है जहां गंगा नदी के किनारे अपने आश्रम में बैठ कर श्रृंगी ऋषि तप किया करते थे। इसलिए इस स्थान का नाम श्रृंगि ऋषि के नाम पर ही श्रृंगवेरपुर हो गया। हालांकि, भगवान राम के बाद से इस स्थान का नाम निशादराज की राजधानी के रूप में भी प्रसिद्ध हो गया।

प्राचीनकाल के श्रृंगवेरपुर (History of Singraur) नाम के ऊच्चारण को वर्तमान में सिंगरौर कहे जाने के विषय में कहा जाता है कि जब तक भारत में आम बोलचाल की भाषा के तौर पर संस्कृत का प्रचलन रहा तब तक तो श्रृंगवेरपुर का सही ऊच्चारण होता रहा। लेकिन, मुगलकाल के दौरान संस्कृत का प्रचलन समाप्त होता गया और आम बोलचाल की भाषाओं और बोलियों का प्रचलन बढ़ने के कारण, समय के साथ-साथ भाषा शैली और ऊच्चारण की सरलता के चलते धीरे-धीरे श्रृंगवेरपुर से बदल कर इसका नाम सिंगरौर हो गया।

सिंगरौर (History of Singraur) के प्राचीन इतिहास को लेकर अगर हम द्वापर युग के महाभारत काल के उस दौर की बात करें तो पता चलता है कि उस समय भी श्रृंगवेरपुर एक तीर्थस्थल के रूप में विकसित और प्रसिद्ध नगर हुआ करता था, क्योंकि महाभारत में भी इस स्थान को एक ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है।

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Shringverpur-History-and-pre-history-in-Modern-ageडाॅ. बी.बी. लाल के निर्देशन में इस स्थल का उत्खनन का कार्य सन 1977-1978 में किया जा चुका है जिसमें यहां से अनेकों प्रकार की ऐसी वस्तुएं प्रमाण के तौर पर मिलीं हैं, जिनसे यह सिद्ध हो चुका है कि यही वह स्थान है जो त्रेता युग में श्रृंगवेरपुर (History of Singraur) हुआ करता था और द्वापर युग में तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध था।

इसके अलावा, स्थानीय लोगों और आस-पास के अन्य ग्रामीणों का यह भी कहना है कि सन 1977-1978 ई. में किये गये उत्खनन के दौरान यहां से प्राचीन काल का बहुत सारा खजाना भी प्राप्त हुआ तथा गुप्तकालीन मिट्टी की मूर्तियाँ, कन्नौज गहड़वाल वंश के कुछ चांदी के सिक्के और मिट्टी में दबे हुए कुछ आभूषण भी मिले हैं।

इन सब से अलग, आर्य कालीन सभ्यता की मानव बस्तियों के अवशेषों के तौर पर श्रृंगवेरपुर (History of Singraur) टीले के उत्खनन कार्य में एक आयताकार तालाब भी मिला है। यह तालाब पक्की ईंटों से बना हुआ था। इसमें उत्तर दिशा की ओर से जल के प्रवेश और दक्षिण की ओर से उसके निकास के लिए नाली बनाई गई थी। पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार भारत के किसी भी पुरातात्विक स्थल से प्राप्त अब तक का यह सबसे बड़ा तालाब है।

हालांकि, एक हिंदू तीर्थ या हिंदू धर्मस्थल के तौर पर तो यह भगवान राम के समय से लेकर आज तक कभी भी गुमनाम नहीं रहा, लेकिन गहड़वाल वंश के शासन के बाद मुगलों आक्रमणों और यहां के धार्मिक स्थलों के विध्वंस के बाद लूटपाट और कत्लेआम के कारण से यह स्थान लंबे समय तक गुमनाम रहा।

जबकि रामायण कालीन व पौराणिक स्थल के रूप में भारतीय जनमानस के मन में यह स्थान सदैव श्रृंगी ऋषि की तपोभूमि और भगवान राम के वनगमन के मार्ग के रूप में एक तीर्थ स्थल के रूप में रहा है।

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अब अगर हम श्रृंगवेरपुर (History of Singraur) को लेकर मुगलकाल के दौर की बात करें तो अन्य स्थानों की तरह ही इस क्षेत्र के भी हिंदू धार्मिक स्थलों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था, और उसका असर यहां सिंगरौर तक यानी प्राचीन श्रृंगवेरपुर नगरी पर भी पड़ा। हालांकि, बाद में यहां मराठाओं द्वारा कब्जा कर लिया गया, जिसके बाद यहां के हिंदू धर्मस्थलों में एक बार फिर से चहल-पहल लौट आई। लेकिन, तब तक श्रृंगवेरपुर का अपना वह प्राचीन अस्तित्व लगभग नष्ट हो चुका था और बचा रहा सिर्फ वह स्थान जो श्रृंगवेरपुर से सिंगरौर हो गया।

वर्तमान में यह एक साधारण सा गांव है जो तीन दिशाओं से हरे-भरे खेतों से घीरा हुआ है। जबकि चैथी तरफ से गंगा नदी बहती है। तीर्थ यात्रा के तौर पर यात्रियों को यहां बारहों मास आते देखा जा सकता है। लेकिन, कुछ खास स्नान पर्वों के दौरान तो यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ भी देखी जा सकती है।

गंगा नदी के तट पर स्थित सिंगरौर यानी रामायण के दौर का श्रृंगवेरपुर, आज के दौर में कोई बहुत बड़ा तीर्थ या पर्यटन स्थल नहीं है लेकिन, उत्तर प्रदेश में इसे एक प्रसिद्ध तीर्थ और पर्यटन स्थल बनाने के लिए काम चल रहा है।

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