कहते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। जैसे-जैसे व्यक्ति की आवश्यकताएं बढ़ती गयीं, उसने नित-नयी वस्तुओं का अविष्कार करना शुरू किया। सुई से लेकर हवाई जहाज तक उसने बना डाले। उसी प्रकार से चश्मा (spectacles) का अविष्कार भी आवश्यकता के अनुसार ही हुआ था।
भले ही चश्मे के विकास में चीन का योगदान काफी महत्वपूर्ण रहा हो। लेकिन, इसका जन्म भारत में ही हुआ था। कहा जाता है कि जब चीनी लोगों की आंखों की रोशनी कम जो जाती थी तो वे दासों को यह काम सौंपते थे कि वे उन्हें पढ़कर सुनाएं। आंखों के चश्मे के बारे में तकनीकी ज्ञान औ लैंस के प्रयोग की बात चीन ने भारत से सीखी।
के.एस. लेटोरेट नामक एक लेखक ने अपनी पुस्तक ‘चीनी इतिहास एवं सभ्यता’ में लिखा है कि चीनियों ने चश्में (spectacles) के लैंस का प्रयोग भारत से ही सीखा है। इसी सम्बन्ध में एक दूसरे लेखक एफ.एच. गेरीसन के अनुसार लगभग 1260 में चीनियों ने इसे तुर्किस्तान से सीखा और तुर्किस्तान ने भारत से।
चश्मे के अविष्कार (Invention of glasses & spectacles) से संबंधित ये जानकारियां अगर किसी भारतीय ने लिखी होती तो कोई विश्वास नहीं करता। लेकिन यहां विदेसी इतिहासकारों ने इस बात को स्पष्ट किया है कि नेत्र विज्ञान और चश्में का जन्म मूलरूप से भारत में ही हुआ है और यहीं से फिर दूसरे देशों में गया, इसलिए यहां यह बात एक दम सच साबित हो जाती है कि चश्मे का अविष्कार भारत में ही हुआ था।
दरअसल, तेरहवीं शताब्दी के अन्त में चीन में चश्मा ऊंचे पद का प्रतीक माना जाने लगा था। चीनी लोग कछुए को पवित्र मानते थे। इसीलिए वे कछुए की पीठ की हड्डी से चश्में का फ्रेम बनाते थे जो अत्यंत मजबूत होता था। उसी प्रकार से चश्में के विकास में इटली का भी उतना ही योगदान रहा जितना की चीन का।
इटली में भी तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आंखों की रोशनी बढ़ाने के लिए लैंस का प्रयोग किया जाने लगा था। जबकि सन 1480 तक लैंस की सहायता से चश्में बनाये जाने की शुरू हो चुकी थी। जबकि सन 1785 में बाईफोकल चश्में के अविष्कार के बाद दो अलग-अलग चश्मे रखने का संकट भी दूर हो गया।
चश्मे की दुनिया में एक महत्वपूर्ण अविष्कार सन 1887 में तब हुआ, जब आंखों के अन्दर ‘काॅन्टेक्ट लैंस’ लगाने में सफलता मिली। यह लैंस आंखों की पुतलियों में लगाया जाता है।
इस प्रकार चश्मा आज न केवल भारत, चीन या इटली का बन कर रह गया है, बल्कि समूची दुनिया में आज इसका प्रयोग होने लगा है। आजकल तो चश्में विभिन्न रंगों और आकृतियों में उपलब्ध हैं और फैशन का प्रतीक भी बन चुके हैं।
– ज्योति सोलंकी, इंदौर