अजय सिंह चौहान || यह बात तो हम सभी ने सुनी और देखी भी होगी कि भगवान महाकालेश्वर की उज्जैन नगरी में स्थित भगवान भैरोनाथ जी मदिरा का सेवन करते हैं और उन्हें प्रसाद के तौर पर मदिरा ही चढ़ाई जाती है। लेकिन, क्या किसी ने यह सूना या देखा है कि सनातन धर्म और संस्कृति में किसी देवी माता को भी मदिरापान करवाया जाता है और वह भी खुद कलेक्टर के हाथों से?
जी हां यह एक दम सत्य है। नवरात्रि की महाअष्टमी के दिन यहां के एक मंदिर में विराजित माता को यहां के कलेक्टर महोदय खुद अपने हाथों से मदिरा का सेवन करवाते हैं और उसके बाद ही नगर पूजा के तहत अन्य दूसरे देवी-देवताओं को यह भोग अर्पण किया जाता है।
जैसा कि उज्जैन का यह देवी महामाया और महालाया का मंदिर जिसे अब 24 खंभे वाली माता के मंदिर के नाम से जाना जाता है, यह एक अति प्राचीन और सिद्ध मंदिर है। अवंतिका यानी उज्जैन नगरी के प्राचीन द्वार पर विराजमान इन दो देवियोंको नगर की सुरक्षा करने वाली देवियों के रूप में माना जाता है। इस मंदिर में स्थित राजा विक्रमादित्य की मूर्ति के अलावा बत्तीस पुतलियों की मूर्तियों को भी दर्शाया गया है।
चैबीस खंबा माता का यह मंदिर एक ऐसे स्थान पर बना हुआ है जो पौराणिक इतिहास में महाकाल वन का प्रवेश द्वार कहा जाता था और यह वही प्राचीनकाल का महाकाल वन है जिसमें आज भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक भगवान महाकाल का ज्योतिर्लिंग मंदिर है। सम्राट विक्रमादित्य से संबंधित साहित्य से पता चलता है कि यह द्वार और इसके दोनों तरफ स्थापित देवी महामाया और देवी महालाया के रूप में स्थापित मूर्तियां सम्राट विक्रमादित्य के समय भी स्थापित थीं।
बेशकीमती रत्नों से जड़ित यह द्वार अवन्तिका नगरी की उत्तर दिशा की ओर है। लेकिन, मुगलों के आक्रमणों के दौरान बेशकीमती रत्नों से जड़ित यह द्वार लूट लिया गया और इसकी चारदिवारी को भी भारी नुकसान पहुंचाया गया।
हालांकि वर्तमान में यह द्वार बेशकीमती रत्नों से जड़ित नहीं है लेकिन, इस द्वार की भव्यता को देख कर लगता है कि पौराणिक इतिहास के दौर में यह अवश्य ही बेशकीमती रत्नों से जड़ित रहा होगा।
पौराणिक इतिहास के अनुसार वर्तमान का यह मंदिर विक्रमादित्य के समय में एक विशेष प्रवेश द्वार हुआ करता था। और सम्राट विक्रमादित्य स्वयं भी इसी प्रवेश द्वार से होकर भगवान महाकाल और माता हरसिद्धि के दर्शन करने के लिए आया-जाया करते थे।
वर्तमान द्वार की वर्तमान संरचना लगभग 1,000 वर्ष पुरानी मानी जाती है जो कि परमार वंश के शासनकाल की बनी हुई है। उस समय इस संरचना के दोनों ओर सुरक्षा के लिए काले पत्थरों की एक दीवार का ऊंचा परकोटा बना हुआ था।
हालांकि वर्तमान में वह ऊंचा परकोटा, यानी नगर की चार दिवारी अब लगभग नष्ट ही हो चुका है और प्राचीन समय में इस मंदिर के चारों तरफ जहां कभी महाकाल नाम का घना वन हुआ करता था आज उस स्थान पर यानी इस मंदिर के चारों तरफ घनी आबादी की बसावट देखने को मिलती है।
यह मंदिर भगवान महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर से मात्र कुछ ही दूर गुदरी चैराहे पर स्थित है। चैबीस खंभा माता के नाम से प्रसिद्ध इस मंदिर में महामाया और महालाया नामक दो देवियों की प्रतिमाएं प्रवेश द्वार के दोनों तरफ, यानी दायें और बायें तरफ बना हुआ है और बीच में आने-जाने के लिए प्रवेश द्वार है।
द्वार के दोनों ओर सिंदूरी चोले से लिपटी देवी महामाया और महालाया की मूर्तियां विराजित हैं। ये मूर्तियां कितनी पुरानी है इस विषय में भी स्पष्ट जानकारी नहीं है।
स्थानिय लोगों के अनुसार इस द्वार के अलावा यहां लगभग 100 वर्ष पहले तक भी घना जंगल हुआ करता था और दूसरा ऐसा कोई प्रवेश द्वार या मार्ग या फिर उसके निशान महाकालेश्वर मंदिर की ओर जाने के लिए नहीं था। लेकिन, वक्त के साथ-साथ सब कुछ बदलता गया और अब यह प्रवेश द्वार ही सुरक्षित बचा हुआ है, जबकि इसकी चारदीवारी तो लगभग नष्ट ही हो चुकी है और उसके अवशेष भी अब देखने को नहीं मिलते।
वैसे तो इस प्रवेश द्वार को राजा विक्रमादित्य प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। लेकिन, वर्तमान में तो अब यह 24 खंभा वाली माता का मंदिर के नाम से ही पहचाना जाता है।
इसके अलावा यहां एक शिला-लेख भी है, जिसके अनुसार इस मंदिर में पशु बलि की प्रथा भी चलन में थी। लेकिन 12वीं शताब्दी में उस पशु बलि की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया गया।
इसके 24 खंबा माता मंदिर नाम के विषय में स्पष्ट तथ्य यह है कि यह प्रवेश द्वार दोनों ओर से 12-12 खंभों पर टीका हुआ है। यानी इसमें भव्य, आकर्षक और विशाल आकार वाले काले पत्थरों से तैयार कुल 24 खंभे लगे हुए हैं। इसीलिए इसको 24 खंबा माता मंदिर का नाम दिया गया।
पौराणिक साक्ष्य और परंपरा के अनुसार, सम्राट विक्रमादित्य ने महाअष्टमी के दिन ही प्रातःकाल यहां आकर इस मंदिर में पूजा-अर्चना की थी। इसीलिए आज भी सम्राट विक्रमादित्य युग की उसी परंपरा का पालन करते हुए नगर प्रमुख के द्वारा यानी उज्जैन प्रशासन के मुखिया के द्वारा नगर प्रमुख के रूप में महाअष्टमी के महापर्व पर यहां पूजन का विशेष आयोजन किया जाता है।
इस अवसर पर ढोल-नगाड़ों के साथ कलेक्टर के द्वारा अन्य प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी में सुबह लगभग 7 बजे इस चैबीस खंभा माता मंदिर में मदिरा का प्रसाद चढ़ाकर नगर पूजन की शुरुआत की जाती है। इस अवसर पर बड़ी संख्या में स्थानिय श्रद्धालु और भक्तगण पूजन और आरती में शामिल होते हैं।
स्थानिय लोगों में मान्यता है कि सम्राट विक्रमादित्य जब भी इन देवियों की आराधना करने के लिए आया करते थे तो वे स्वयं अपने हाथों से इन देवियों को मदिरा का सेवन करवाया करते थे।
यह मंदिर तंत्र साधना के लिए भी प्रसिद्ध माना जाता है। इसकी इसी मान्यताओं के चलते यहां भी भैरो मंदिर की तरह ही दर्शनार्थियों की संख्या में कमी नहीं देखी जाती।
हालांकि, सनातन धर्म और संस्कृति के अनुसार किसी भी मंदिर में स्थापित देवी या देवता की मूर्ति को मदिरापान करवाये जाने के कोई विशेष और स्पष्ट पौराणिक साक्ष्य या प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इसलिए इस मंदिर में प्रसाद के तौर पर माता को मदिरापान कब, क्यों और किसके द्वारा प्रारंभ करवाया गया कहना थोड़ा मुश्किल है। स्थानीय स्तर पर प्रचलित मान्यता है कि सम्राट विक्रमादित्य जब भी यहां आते थे वे माता को मदिरापान अवश्य करवाते थे।
जबकि, कई लोगों का मानना है कि आज यहां मंदिर में माता की मूर्ति को जो मदिरापान करवाया जाता है वह वास्तव में मदिरा नहीं सोम रस होना चाहिए। लेकिन, हमारी आस्था पर चोट करने वालों ने इसे सोम रस को ही मदिरा कहना शुरू कर दिया और अब उसी मदिरा को देवी-देवताओं पर भी अर्पित किया लगा है। यह एक बहुत ही घर्णित और धर्म का नाश करने वाली प्राथा कही जा सकती है। कोई भी इस विषय और क्रिया पर न तो कुछ कहना चाहता है और ना ही आवाज उठाना चाहता है। और तो और स्थानीय लोग इसे एक बहुत बड़ा चमत्कार मानते हैं।
हमारे वेदों के अनुसार सोम नाम की एक वनस्पति होती है। जबकि इसके रस यानी सोम रस की अगर बात की जाय तो यह पेय पदार्थ एक शत-प्रतिशत प्राकृतिक रस होता था जिसे दूध में मिलाकर देवी-देवताओं को अर्पित किया जाता था और इसी सोमरस का वर्णन तो हमारे ऋग्वेद में भी मिलता है। वेदों के अनुसार, सोम का संबंध अमरत्व से भी है।
दरअसल, सोम नाम से एक पौधा होता था जो बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग में पाया जाता था। यह पौधा उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, राजस्थान के अर्बुद, विंध्याचल, हिमाचल की पहाड़ियों आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता था। इसी के रस को दूध में मिलाकर सेवन किया जाता था। वर्तमान में इस पौधे की पहचान करना संभव नहीं हो पाया है। हाालांकि, कुछ विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर यह सोम नाम का यह पौधा अब भी पाया जाता है।
हालांकि, इसके अलावा राजस्थान के नागौर जिले में स्थित माता भुवाल काली का मंदिर भी है जिसमें माता को मदिरा का सेवन करवाया जाता है। और ठीक इसी तरह का एक अन्य मंदिर भी है जो कवलका माता मंदिर के नाम से उज्जैन के नजदीकी रतलाम जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर सातरुंडा गांव में बताया जाता है। इस मंदिर में भी कालभैरव मंदिर की तरह ही प्रसाद के रूप में मदिरा चढ़ाई जाती है। यहां कवलका माता के साथ-साथ काल भैरव और काली मां को भी मदिरा पान करवाये जाने की परंपरा है।