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कितने सुरक्षित हैं हम…

admin 24 February 2024
Milavatkhori
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देश पूरी दुनिया के साथ कदमताल करते हुए विकास की तेज रफ्तार से दौड़ रहा है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति देखने को मिल रही है। समाज ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ की जरूरतों से बहुत आगे निकल चुका है। रोटी, कपड़ा और मकान के अतिरिक्त भी लोगों की अन्य बहुत सी आवश्यकताएं हैं। इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति में व्यक्ति हवा की रफ्तार की तरह भाग रहा है। समाज में ऐसे तमाम लोग मिलेंगे, जिन्हें ईश्वर ने सब कुछ दिया है किंतु वे भी बेचैन हैं या किसी न किसी रूप में परेशान दिख रहे हैं। स्वास्थ्य, टेक्नोलाजी सहित तमाम क्षेत्रों में काफी तरक्की हुई है किंतु उसके बाद भी बार-बार एक प्रश्न उठता है कि वास्तव में हम कितने सुरक्षित हैं?

यह एक ऐसा प्रश्न है जिसकी व्याख्या अपने-अपने हिसाब से हर कोई कर सकता है। पहले के मुकाबले व्यक्ति की औसत आयु में वृद्धि हुई है किंतु हम यदि एक बात का विश्लेषण करें कि पहले हम अधिक सुरक्षित थे या आज हैं। हालांकि, इस संदर्भ में पहले और आज के मामले में तमाम तरह के अंतर्विरोध हो सकते हैं किंतु इतना बिना संकोच के कहा जा सकता है कि संस्कारों की वजह से पहले हम अधिक सुरक्षित थे। संस्कारों की वजह से मां, बहनें एंव बेटियां सुरक्षित थीं, संस्कारों की वजह से लोगों का बुढ़ापा सुरक्षित था, संस्कारों की वजह से बच्चों का भविष्य सुरक्षित था, संस्कारों की वजह से बीमार सुरक्षित थे, संस्कारों की वजह से बिना ताले के मकान सुरक्षित थे। इस प्रकार की तमाम बातें हमें ऐसी देखने को मिलती हैं, जहां संस्कारों में कमी की वजह से दिक्कतें आ रही हैं। संस्कारों की कमी के कारण ही वृद्धाश्रम, विधवा आश्रम एवं बाल आश्रम बढ़ते जा रहे हैं। आज की शिक्षा व्यवस्था चाहे जितनी भी आधुनिक हो गई है किंतु वह बच्चों को संस्कार देने के मामले में फिसड्डी ही साबित हो रही है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि यदि समाज संस्कारयुक्त होता तो तमाम तरह की समस्याओं से हमें निजात मिल जायेगी।

सुरक्षा की दृष्टि से यदि आज के समाज का आंकलन एवं मूल्यांकन किया जाये तो देखने में आता है कि सब कुछ के बावजूद लोग कदम-कदम पर असुरक्षित हैं। जन्म लेने से लेकर शमशान तक पहुंचते-पहुंचते खतरे ही खतरे देखने को मिलते हैं। सुबह से शाम तक लोग जो कुछ भी खाते-पीत हैं उनमें कौन-सा सामान मिलावटी है, उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। नकली दारू पीकर मरने वालों की खबरें देखने एवं सुनने को प्रायः मिलती रहती हैं। इसी के साथ मिलावटी व दूषित भोजन से फूड प्वाइजनिंग की भी घटनाएं आये दिन देखने-सुनने को मिलती रहती हैं। भारतीय समाज में एक पुरानी कहावत प्रचलित है कि यदि मानव को शुद्ध पानी एवं हवा मिल जाये तो तमाम समस्याओं का समाधान हो जायेगा। हिंदुस्तान के छोटे-बड़े महानगरों एवं शहरों की बात की जाये तो अमूमन हवा एवं पानी दूषित मिलेगा। हवा-पानी दूषित होने से बीमारियों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि खाने-पीने की वस्तुओं के मामले में हम कितने सुरक्षित हैं?

खाने-पीने की मिलावटी वस्तुओं से बीमारियां यदि लगातार बढ़ रही हैं तो बीमारियों को ठीक करने का स्वास्थ्य क्षेत्र भी बीमार ही पड़ा है। स्वास्थ्य क्षेत्र को बीमार लिखने का मेरा आशय इस बात से है कि इस पूरे क्षेत्र की तह तक जायें तो पूरा का पूरा गड़बड़झाला ही मिलेगा। जब दवाएं ही मिलावटी आ रही हैं तो भगवान ही मालिक है। नकली दवाओं की खबरें आये दिन देखने-सुनने को मिलती रहती हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर मेडिकल इंश्योरेंस का धंधा बहुत जोरों पर है। जिस व्यक्ति के पास इंश्योरेंस की सुविधा है, उससे पैसे वसूलने के लिए अस्पताल तरह-तरह की तरकीब निकालते रहते हैं या इसे यूं भी कहा जा सकता है कि कई मामले में इंश्योरेंसधारी व्यक्ति को सदा के लिए बीमार बनाने की भी बातें देखने-सुनने को मिलती रहती हैं। प्राइवेट सिस्टम में इलाज इतना महंगा है कि सभी लोग उसके अंतर्गत इलाज नहीं करवा पाते हैं। इलाज महंगा होने के साथ-साथ एक बात यह भी है कि योग्य डाॅक्टरों से मुलाकात भी बहुत भाग्य से ही हो पाती है वरना दिल्ली के एक नामी-गिरामी प्राइवेट अस्ताल में बायें पैर की जगह दायें पैर का आपरेशन कर दिया गया था।

इलाज के लिए आये लोगों की किडनी निकाल लेने की घटनाएं तो अमूमन सभी लोगों ने सुनी होगी। गलत दवा, गलत इंजेक्शन एवं लापरवाही से जान गंवाने वालों की खबरें सुनने-देखने को मिलती रहती हैं। सरकारी अस्पतालों की स्थिति तो यह है कि वहां त्वरित एवं उचित इलाज के लिए जुगाड़ होना जरूरी है। सरकारी अस्पतालों में सभी लोगों का इलाज ठीक समय पर यदि ठीक से हो जाता तो प्राइवेट अस्पतालों में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। सरकारी अस्पतालों में ऐसी भी घटनाएं देखने-सुनने को मिली हैं कि इलाज के दौरान मरीज का पर्चा ही बदल जाता है। उदाहरण के तौर पर यदि किसी व्यक्ति ने इलाज के लिए अपना ब्लड सैंपल दे दिया और उस पर गलती से किसी दूसरे व्यक्ति के नाम की चिप्पी लग गई तो दूसरे व्यक्ति का इलाज शुरू हो जाता है। ऐसी असावधानियों एवं लापरवाहियों से आम लोगों का पाला पड़ता रहता है। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि नकली दवाओं एवं व्यावसायिक स्वास्थ्य क्षेत्र के दम पर व्यक्ति की जान कितनी सुरक्षित है, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

आर्थिक रूप से सुरक्षा की बात की जाये तो आनलाइन फ्राड बहुत व्यापक स्तर पर देखने को मिल रहा है। किसका पैसा बैंक से कब निकल जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता है। आनलाइन फ्राड को रोकने के लिए सरकार तरह-तरह के उपाय कर रही है, सख्ती भी हो रही है किंतु फ्राडिये फ्राड करने के नये-नये रास्ते निकाल लेते हैं। इन बातों के अलावा भारत में एक प्राचीन कहावत प्रचलित है कि ‘माल खाये मदारी, नाच करे बंदर’, कहने का भाव यह है कि नाचता तो बंदर है किंतु इनाम में जो कुछ मिलता है, उसका उपयोग तो मदारी ही करता है। इस कहावत से स्थितियों का यदि मूल्यांकन किया जाये तो देखने में आता है कि कोई सामान्य व्यक्ति यदि ऋण लेकर न भर पाये तो उसे आत्महत्या तक करने की नौबत आ जाती है किंतु कोई बड़ा व्यक्ति सरकारी ऋण लेकर न भरना चाहे तो वह विदेश भाग जाता है और विदेश में बहुत ही ऐशो-आराम वाला जीवन जीता है। इस प्रकार देखा जाये तो बड़ी विचित्र विडंबना है। कोई खाकर मर रहा है तो कोई खाये बिना मरने की स्थिति में है। लोगों का व्यक्तिगत डाटा कितना सुरक्षित है, इसके बारे में कोई भी व्यक्ति शंकाओं से मुक्त नहीं है।

पहले बड़ों का आदर-सम्मान करना, परदे में रहना, परदे में खाना, परदे में भजन इत्यादि दिखाना सीधा जीवन शैली का हिस्सा रहे हैं लेकिन अब तो खुलेपन और पारदर्शिता के नाम पर नंगा नाच होते देखा जा रहा है। यही कारण है कि समाज में दया, करुणा और नैतिक मूल्यों के क्षीण होने के साथ-साथ मानवता भी समाप्त होती दिख रही है और इन सबका एक ही कारण है अर्थ यानी पैसे की होड़। विदेशी कंपनियों द्वारा अपने उत्पादों के विभिन्न प्रकार से प्रचार-प्रसार करने और आम जनता पर थोपने की प्रवृत्ति के चलते अब न सिर्फ ऐशो-आराम बल्कि संस्कारों पर भी दुष्प्रभाव होते दिख रहा है।

व्यक्ति सड़क पर कितना सुरक्षित है, इस संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता है। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था बहुत दुरुस्त न होने के कारण निजी वाहनों की संख्या सड़कों पर अनवरत बढ़ती जा रही है। निजी वाहनों की संख्या अनवरत बढ़ने से कब, कहां जाम की समस्या से पाला पड़ जाये कुछ कहा नहीं जा सकता है। शासन-प्रशासन की लापरवाही से सड़कों पर लुच्चे-लफंगों, शराबियों एवं आवारा तत्वों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है। शराब पीकर गाड़ी चलाना कुछ लोगों की रूटीन आदत में शामिल हो गया है। कोई व्यक्ति यदि ट्रैफिक नियमों के मुताबिक एवं ठीक से गाड़ी चला रहा है तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वह बिल्कुल सुरक्षित है, क्योंकि अगल-बगल एवं आगे-पीछे वाले गाड़ी किस प्रकार चला रहे हैं, काफी हद तक उस पर भी निर्भर करता है। पीछे वाला यदि शराब के नशे में आगे वाले को टक्कर मार दे तो आगे वाला निर्दोष होने पर भी बेवजह परेशान होगा। अमूमन ऐसा हम आये दिन देखते-सुनते रहते हैं। इसके साथ ही एक प्रमुख समस्या यह है कि यदि कोई व्यक्ति सड़क पर घायल हो जाये तो तमाम लोग उसकी मदद करने की बजाय इसलिए भाग जाते हैं कि कहीं वे किसी अन्य मुसीबत में न फंस जायें। मदद करने वाला व्यक्ति बेवजह की जांच-पड़ताल में नहीं पड़ना चाहता है। इस संबंध में इस प्रकार का वातावरण बनाया जाये, जिससे लोग सड़कों पर घायल लोगों की मदद करने से कन्नी न काटें।

सुविधाओं की दृष्टि से देखा जाये तो इसका विकास एवं लाभ बहुत हुआ है किंतु इसमें जरा भी असावधानी हुई तो उसके बेहद घातक परिणाम आते हैं। रसोई गैस सिलेंडर में आग लगने एवं फटने की घटनाएं अकसर देखने-सुनने को मिलती ही रहती हैं। घरों की वायरिंग में यदि कहीं से शार्ट सर्किट हो जाये तो घरों में आग लग जाती है। पिछले वर्ष एक घटना सुनने को मिली कि एक बच्ची अपना कपड़ा प्रेस करने के बाद स्विच बंद करना भूल गयी जिससे उसके कपड़ों में आग लग गई और मामला यहां तक पहुंच गया कि पूरे घर में आग लग गई। यह सब मेरे लिखने का आशय यह है कि यदि हम सावधानी से नहीं रहेंगे तो कदम-कदम पर मानव जीवन के लिए खतरा बरकरार है। इस दृष्टि से आवश्यकता इस बात की है कि जितनी जरूरत सुविधाभोगी वस्तुओं की है, उतनी ही जरूरत लोगों को सावधान रहने की भी है। राष्ट्र एवं समाज में एक बड़ी समस्या के रूप में भू-माफिया भी खड़े हैं।

भू-माफिया शासन-प्रशासन में घुसपैठ करके लावारिस, सरकारी एवं कमजोर लोगों की भूमि पर कब्जा कर लेते हैं। इन भू-माफियाओं के खिलाफ खड़ा होना सबके लिए संभव नहीं होता क्योंकि सिस्टम में पकड़ के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी ये बेहद मजबूत होते हैं। बड़े-बड़े महानगरों में ग्रामीण भारत से एक भारी आबादी दाल-रोटी की तलाश में ग्रामीण भारत से आई और उसमें से अधिकांश आबादी महानगरों एवं छोटे शहरों में बस गई किंतु समस्या यह हुई कि लंबे समय तक गांव से बाहर रहने के कारण तमाम लोगों की जमीनों पर कब्जा हो गया। दिल्ली, मुंबई से आये दिन गांवों में जाकर मुकदमा लड़ना एवं कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटना संभव नहीं है। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, कुछ घटनाएं ऐसी भी मिल जायेंगी कि शहरों में रहने वाले लोग अपने गांव के दस्तावेजों में मृतक घोषित कर दिये जाते हैं। ऐसे लोगों को जिंदा होने का प्रमाण देने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। कभी-कभी तो दस्तावेजों में जिंदा होेने के लिए काफी लंबा समय लग जाता है। सुरक्षा की दृष्टि से यदि इस मामले में विचार किया जाये तो यह बड़ा मामला है। इसे मानवीय दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए।

देश के तमाम स्थानों पर कमजोर सुरक्षा व्यवस्था के चलते गली, मोहल्लों एवं गांवों में आवारा किस्म के लुच्चों-लफंगों के कारण स्थानीय लोगों को बहुत दिक्कत होती है। ये लुच्चे-लफंगे बाात-बात में किसी से भी झगड़ा कर अपमानित कर देते हैं। कमाल की बात यह है कि इनके खिलाफ कार्रवाई करवा पाना भी इतना आसान नहीं होता है, क्योंकि स्थानीय प्रशासन में भी ये अपनी पकड़ बना लेते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह एक गंभीर मामला है, इस पर प्राथमिकता के आधार पर विचार होना चाहिए।

आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से बात की जाये तो देश में इतने अधिक घुसपैठिये हो गये हैं जो राष्ट्र विरोधी साजिश रचने में लगे रहते हैं। कब कहां किस रूप में गद्दारी कर जायें, कुछ कहना मुश्किल है। पूरी दुनिया में हथियारों की अधिकता इतनी अधिक हो गई है कि किसी भी मुद्दे पर कुछ भी अनहोनी होने की आशंका हमेशा बरकरार रहती है। इजरायल-फिलिस्तीन और रूस-यूक्रेन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। फिलिस्तीन एवं यूक्रेन में भारी संख्या में लोग अपनी भूमि से पलायित हुए हैं। इस प्रकार की समस्या कभी भी किसी भी देश में हो सकती है। इस लिहाज से भी देखा जाये तो हम कहीं सुरक्षित नहीं हैं।

उपरोक्त सभी मामलों के अतिरिक्त भारत सहित पूरी दुनिया में एक सामाजिक समस्या यह है कि किसी भी व्यक्ति का बुढ़ापा कैसा बीतेगा, इसकी कोई सुनिश्चितता नहीं है क्योंकि सभी के मुकद्दर में ऐसा नहीं हो पाता कि आर्थिक दृष्टि से अपना आखिरी वक्त ठीक से बिता सके। कमजोर आर्थिक स्थिति में औलादों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों एवं समाज पर ही निर्भर रहना पड़ता है। अब यह जरूरी नहीं है कि सबकी औलाद लायक ही निकले या अपने मां-बाप एवं अन्य आश्रितों की देखभाल कर सके। शायद इन्हीं बातों की कल्पना हमारे समाज में अतीत काल में की गई थी कि चार पैसे बचाकर रखें जिससे कोई मुसीबत आने पर उससे उबरा जा सके। इसके साथ ही समाज में एक कहावत अति प्राचीन काल से ही प्रचलित है कि ‘अंत भला तो सब भला’ यानी जिसका आखिरी समय यानी बुढ़ापा ठीक से कट जाये तो वह सबसे भाग्यशाली है।

इस प्रकार यदि देखा जाये तो तमाम ऐसी छोटी-छोटी बातें हैं जिनका मूल्यांकन एवं विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आता है कि उपरोक्त सभी बिंदुओं की तरफ सरकार, शासन-प्रशासन, समाज एवं व्यक्तिगत रूप से भी सचेत रहने की आवश्यकता है, जिससे असुरक्षा के बोध को कम किया जा सके। इस दृष्टि से जितना शीघ्र सचेत हो लिया जाये, उतना ही अच्छा होगा।
आज नहीं तो कल इसी रास्ते पर आना होगा।

– सिम्मी जैन (दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।)

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