![Rural Indian woman working hard in village](https://i0.wp.com/dharmwani.com/wp-content/uploads/2021/06/Rural-Indian-woman-working-hard-in-village.jpg?fit=600%2C400&ssl=1)
जब से पूरे विश्व में कोरोना का पर्दापण हुआ है तब से ज्ञानियों, विज्ञानियों एवं अन्य तमाम विशेषज्ञों की ऐसी-तैसी हुई पड़ी है। लाख उपायों के बावजूद वैश्विक स्तर पर कोरोना को औकात में रखने का विकल्प ढूंढ़ने में अभी तक कोई कामयाबी हासिल नहीं हो पाई है। अभी तक कोरोना का सटीक इलाज भले ही नहीं मिल पाया है किन्तु उसके इलाज के नाम पर लाखों रुपये कमाने का फार्मूला वैश्विक स्तर पर जरूर ढूंढ़ लिया गया है। पिछले वर्ष कोरोना की पहली लहर को जैसे-तैसे लोगों ने झेल लिया परन्तु दूसरी लहर तो इतनी भयावह निकली कि भारत सहित पूरा विश्व तबाह हो गया। आये दिन कोरोना के नये-नये वैरियंट की चर्चा होती रहती है।
कोरोना प्राकृतिक है या मानव निर्मित, इसका पता लगाने का कार्य वैश्विक स्तर पर जारी है। कोरोना के इलाज, उत्पत्ति, फैलाव एवं अन्य मामलों में सटीक जानकारी अभी तक भले ही नहीं मिल पाई है किन्तु इससे बचने के लिए पूरी दुनिया में मोटे तौर पर जो भी उपाय किये जा रहे हैं, उससे भारतीय सभ्यता-संस्कृति का डंका पूरे विश्व में लगातार और मजबूती से बजता ही जा रहा है यानी सनातन संस्कृति या यूं कहें कि सनातन जीवनशैली की तरफ फिर से वापस आना भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की मजबूरी बनती जा रही है।
सनातन जीवनशैली के बारे में यदि मोटे तौर पर कहा जाये तो जिस जीवनशैली में कदम-कदम पर प्रकृति के साथ मिलकर चलने की परंपरा है, वही वर्षों से चली आ रही सनातन जीवनशैली है। कैसे रहा जाये, क्या खाया जाये, क्या किया जाये, मौसम के बदलते वक्त में किस प्रकार रहा जाये, इन सब बातों की विधिवत व्याख्या सनातन जीवनशैली में की गई है। कोरोना काल में शारीरिक दूरी, मास्क पहनना, साफ-सफाई, गुनगुना पानी, हल्दी, काढ़ा एवं अन्य उपायों की व्याख्या हमारे सनातन जीवनशैली में प्राचीनकाल से ही है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सनातन संस्कृति एवं सनातन जीवनशैली पूरी तरह प्रकृति पर ही आधारित है।
प्रकृति के करीब रहने का मतलब यह है कि हमें अपनी मनमानी छोड़नी होगी और प्राकृतिक संदेशों को समझकर उस पर अमल करना ही होगा। बेवक्त यदि सूखा, बाढ़, तूफान या अन्य प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो इससे मानव जाति को बिना किसी किन्तु-परंतु के यह समझ लेना चाहिए कि उसने कोई न कोई गलती जरूर की है। सनातन संस्कृति में जितने भी व्रत, त्यौहार एवं उत्सव हैं, वे सब प्रकृति एवं समय-समय पर होने वाले प्राकृतिक बदलावों को ध्यान में रखकर ही बनाये गये हैं। अब यह हम सभी पर निर्भर करता है कि उसको कितना जानने का प्रयास करते हैं एवं उस पर कितना अमल करते हैं? अपने देश में दूसरी लहर ने यह बहुत ही अच्छी तरह बता दिया कि आक्सीजन का क्या महत्व है? कृत्रिम आक्सीजन एवं वैक्सीन की डोज कुछ दिनों के लिए राहत तो दे सकती है किन्तु लंबे समय तक स्वस्थ रहने के लिए इस पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है।
प्रकृति यानी पंचतत्वों यानी आकाश, पृथ्वी, जल, वायु एवं अग्नि पर आधारित जीवन। यदि मानव जाति इन पंचतत्वों पर गंभीरता से विचार करे तो पांचों तत्वों के उपभोग का सौभाग्य मात्र मनुष्यों को ही प्राप्त है। देवताओं को भी यह सौभाग्य प्राप्त नहीं है। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी हो या अन्य तमाम बीमारियां, यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि यदि हम प्रकृति के साथ चलते रहेंगे तो न सिर्फ बीमारियों से बचे रहेंगे बल्कि बिना इलाज के लंबे समय तक ऋषियों-मुनियों की तरह स्वस्थ रहते हुए जीवन जीते रहेंगे।
प्रकृति के पंचतत्वों की बात की जाये तो मानव ने पहले जमीनों को बेचना एवं उस पर कब्जा करना शुरू किया, जिसका दुष्परिणाम यह देखने को मिला कि थोड़ी-सी बरसात होने पर प्रलयकारी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। नदियों की जलधारा को जगह-जगह रोक कर बांध बनाकर पानी रोकने से सूखे एवं बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती रहती है। नदियों के पेटों में जब होटल एवं आलीशान मकान बनेंगे तो बाढ़ आयेगी ही।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि नदियों को प्राकृतिक जलधारा के मुताबिक फैलने एवं बढ़ने का मौका नहीं मिला, उसका दुष्परिणाम हमारे सामने है। जमीन के बाद प्रकृति द्वारा निःशुल्क प्रदत्त जल का भी व्यवसाय होने लगा। नदियों का पानी जगह-जगह रोका जायेगा तो सूखा एवं बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होगी ही और ऐसी स्थिति में तबाही से कौन रोक सकता है? जमीन और जल की बिक्री के बाद कोरोना की दूसरी लहर में बहुत व्यापक स्तर पर लोगों ने कृत्रिम आक्सीजन का भी आनंद लिया परंतु यह कृत्रिम आक्सीजन कितने दिनों तक राहत देगी?
अंधाधुंध जंगलों एवं पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, उसके अनुपात में नये पेड़ों के न लग पाने से वातावरण में आक्सीजन की कमी तो आयेगी ही। इसके अतिरिक्त बरगद, पीपल, नीम, महुआ एवं आम जैसे पेड़ जो आॅक्सीजन के प्रमुख स्रोत हैं, यदि इनका नाम भी लोग भूलने लगें तो इसका परिणाम क्या हो सकता है, यह सबके सामने है। कोरोनाकाल में यह देखने को मिल रहा है कि जितनी अधिक संख्या में लोग बैकुंठवास को गये, जलाने के लिए न तो ठीक से लकड़ी नसीब हो सकी और दफनाने के लिए न तो जमीन।
पंचतत्वों में अग्नि के महत्व की बारीकियों को ध्यान से न जानने का प्रयास किया गया तो भी इतना जान लेना पर्याप्त है कि इलेक्ट्रिक ‘शवदाह’ चलाये रखने के लिए भी अग्नि की आवश्यकता पड़ेगी। अग्नि यानी बिजली बिना पानी के संभव नहीं है इसलिए भी भूमि एवं जल संरक्षण की नितांत आवश्यकता है। पंचतत्वों में यदि आकाश की बात की जाये तो पर्यावरण एवं प्रदूषण की रफ्तार पर रोक न लगायी गई तो किसी दिन ऐसा भी समय आयेगा जब चांद एवं तारों का दिखना बंद हो सकता है। आसमान एवं वायुमंडल प्रदूषण रहित होंगे तभी प्राणवायु यानी आक्सीजन का प्रवाह वायुमंडल में ठीक से हो पायेगा।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि पंचतत्वों का संरक्षण हमें प्राकृतिक नियमों के तहत करना ही होगा और इन पंचतत्वों का उपयोग हमें सिर्फ उतना ही करना होगा, जितना हमारे जीवन के लिए नितांत आवश्यक हो। हमारे पूर्वज पंचतत्वों की विभिन्न तौर-तरीकों से पूजा एवं संरक्षण की जो विधि दे गये हैं, उसके कुछ तो कारण होंगे ही। हमारे पूर्वजों ने धार्मिक एवं आध्यात्मिक रूप से जो कुछ भी किया है, उन सबके वैज्ञानिक महत्व भी हैं। उदाहरण के तौर पर जब हम भगवान सूर्य को जल चढ़ाते हैं तो उसका न सिर्फ धार्मिक महत्व है अपितु उसका वैज्ञानिक महत्व भी है।
भारत सहित पूरे विश्व में हर वर्ष ‘छठ पूजा’ बहुत ही व्यापक रूप से मनाई जाती है। इस व्रत में डूबते एवं उगते सूर्य की पूजा की जाती है। साथ ही नदियों, तालाबों एवं पानी के किनारे इसकी पूजा होने के कारण जल की भी पूजा होती है। इस व्रत में सिर्फ यह मान लेना ही पर्याप्त नहीं है कि इसमें सिर्फ भगवान सूर्य एवं गंगा मैया की पूजा होती है बल्कि यह प्रकृति के संरक्षण, संवर्धन एवं सभी के पालन-पोषण की दृष्टि से किया जाने वाला सबसे बड़ा धार्मिक पर्व है।
प्रकृति में पंचतत्वों के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है। सनातन संस्कृति में अमावस्या एवं पूर्णिमा दो ऐसी तिथियां हैं, जिनको समझना सभी के लिए बहुत जरूरी है। पूर्णिमा के दिन भण्डारा, हवन, यज्ञ एवं पूजन जो भी किया जाता है, उसके बारे में आम धारणा है कि यह सब देवताओं की प्रसन्नता एवं संतुष्टि के लिए किया जाता है। पंचतत्वों में से जिस तत्व को प्राप्त करने का सौभाग्य देवताओं को भी नहीं है, उसका उपभोग देवता इन्हीं माध्यमों से करते हैं। इसी प्रकार अमावस्या को जो कुछ भी दान, पुण्य, भण्डारा, हवन, यज्ञ आदि किया जाता है पितरों एवं पूर्वजों को मिलता है।
कहने का आशय यह है कि मानव के जीवन में सुख, शांति एवं समृद्धि बरकरार रहे, इस दृष्टि से पूर्णिमा एवं अमावस्या का बहुत महत्व है। वातावरण की शुद्धी एवं प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन की दृष्टि से इनके महत्व एवं उपयोगिता पर विस्तृत रूप से लिखा जा सकता है किन्तु अभी सिर्फ इतना जान लेना जरूरी है कि उपरोक्त सभी बातों का संबंध प्रकृति के संरक्षण, संवर्धन एवं संतुलन की दृष्टि से विशेष महत्व है।
भारत में जब भी मौसम परिवर्तन होता है तो उसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए हमारी सनातन संस्कृति में विधिवत व्याख्या की गई है। वास्तव में यदि देखा जाये तो इस प्रकृति में सजीव एवं निर्जीव जितनी भी प्रजातियां हैं, उन सबका कुछ न कुछ महत्व है। बेकार यानी निरर्थक कुछ भी नहीं है इसीलिए अपने भारतीय समाज में एक बहुत ही प्राचीन कहावत प्रचलित है कि ‘जहां सुई की जरूरत है, वहां तलवार कुछ भी नहीं कर सकती।’ छोटे से छोटे जीव-जन्तु, कीड़े-मकोड़ों, पेड़-पौधों, पहाड़ों, नदियों आदि सभी का अपना महत्व है। संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति से लेकर आज तक सृष्टि में जो कुछ भी उपलब्ध है, उसके मूल में पंच तत्व ही हैं। ईश्वरीय देन है प्रकृति यानी पंचतत्व।
प्रकृति के सभी अंगों में जब तक सामंजस्य एवं संतुलन बना रहता है तब तक मनुष्य भी सुख-चैन से जीवन जीता रहता है किन्तु जरा-सा भी संतुलन बिगड़ा तो जीवन नरक सा बन जाता है। नवरात्रों एवं अन्य अवसरों पर व्यापक स्तर पर जब हवन, यज्ञ एवं पूजा-पाठ किया जाता है तो धार्मिक महत्व के साथ-साथ उसका वैज्ञानिक महत्व यह है कि इस समय मौसम परिवर्तन होता है और मौसम परिवर्तन के समय में कीड़े-मकोड़ों एवं बैक्टीरिया की उत्पत्ति बहुत तेज गति से होती है जिसे शांत करने के लिए हवन एवं यज्ञ बहुत आवश्यक हो जाता है। हवन एवं यज्ञ से एक बहुत ही महत्वपूर्ण लाभ यह होता है कि इससे वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण होता है और नकारात्मकता दूर होती है।
हमारे पूर्वजों ने विभिन्न त्यौहारों एवं व्रतों के माध्यम से समय-समय पर पंच तत्वों की पूजा का जो विधान बनाया है, उसका मकसद यही है कि किसी भी रूप में वातावरण एवं वायुमंडल में इन पंचतत्वों की कमी न हो पाये और संतुलन बना रहे। इन पंचतत्वों में से यदि एक की भी कमी होती है तो उसका सीधा-सा आशय है कि तबाही को आमंत्रण देना। अभी हमने कोरोना की दूसरी लहर में आक्सीजन यानी हवा की कमी का दुष्परिणाम देखा है। आज आवश्यकता इस बात की है कि देश की युवा पीढ़ी को यह बताने एवं समझाने का प्रयास किया जाये कि प्रकृति के साथ चलने एवं रहने में किन-किन बातों का ध्यान रखना जरूरी है? मौसम के मुताबिक कैसे रहा जाये, क्या खाया जाये और क्या किया जाये? इन सब बातों की जानकारी होना नितांत आवश्यक है।
हमारे लिए यह बेहद गर्व की बात है कि आज पूरे विश्व में हमारी सनातन जीवनशैली यानी प्रकृति पर आधारित जीवनशैली का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। ऐसे में हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि हम स्वयं प्रकृति के साथ चलें और दूसरों को भी चलने के लिए प्रेरित करें क्योंकि अब प्रकृति के साथ चलने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं है। इस रास्ते पर हम जितनी तेज गति से बढ़ेंगे उतना ही लाभ होगा।
– सिम्मी जैन, दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।