अजय सिंह चौहान | सारस को उड़ने वाली दुनिया की सबसे लम्बी तथा भारत में सबसे बड़ी चिड़िया होने का गौरव प्राप्त है। जन्तु विज्ञान ने इसको ग्रूस एंटिगोन (Grus Antigone) का नाम दिया है तथा यह ग्रइफार्मिस गण के ग्रइडी परिवार की एक प्रमुख सदस्य है। सारस की तीन प्रकार की प्रजातियां पायी जाती हैं। भारतीय सारस मध्य तथा उत्तरी भारत एवं नेपाल तथा पाकिस्तान में पायी जाती हैं। इसकी दो अन्य प्रजातिया दक्षिण पूर्वी एशिया तथा अस्ट्रेलिया में पायी जाती हैं।
दाम्पत्य प्रेम का प्रतिक –
सारस को कई देशों में निष्ठा एवं दीर्घायु का प्रतीक माना जाता है। यह अपने दाम्पत्य प्रेम के लिए विश्व प्रसिद्ध है, इसीलिए भारत में इसे सूखी वैवाहिक जीवन की सफलता का प्रतीक माना जाता है और इसीलिए इसका उल्लेख पौराणिक ग्रंथों एवं लोक-कथाओं में भी मिलता है।
कहा जाता है कि सारस (Stork) का जोड़ा सदैव एक दूसरे के साथ ही रहता है। और यदि दुर्भाग्यवश इनमें से किसी एक की मृत्यु हो जाये तो दूसरा उसके वियोग में खाना-पीना तक छोड़ देता है, जिस कारण कुछ समय पश्चात् उसकी भी मृत्यु हो जाती है।
भारत में इनके इस आदर्श दाम्पत्य प्रेम को देखकर ग्रामिण, किसान एवं आदिवासी लोग इन्हें पूज्य स्थान देने के साथ ही इनकी सुरक्षा के हर सम्भव प्रयास करते हैं। यही कारण है कि इस चिड़िया को पालतु भी बनया जा सकता है और मनुष्य के पास आने से इस चिड़िया को तनिक भी डर नहीं लगता। तभी तो यह चिड़िया भी मनुष्य की आदत एवं बोली को कुछ-कुछ समझती है।
औसत आयु –
सामान्यतः सारस (Stork) की औसत आयु 65 से 70 वर्ष अर्थात मानव की औसत आयु के बराबर निर्धारित की गई है। नर तथा मादा में कोई खास अन्तर नहीं होता है। इसकी ऊंचाई लगभग 6 फीट तक होती है, जो मनुष्य की औसत लम्बाई के बाराबर कही जा सकती है और यदि यह अपने पंखों को फड़फड़ा कर ऊपर उठा लेता है अथवा चैड़ा कर लेता है तो इसकी ऊंचाई एवं चैड़ाई लगभग आठ फीट तक हो जाती है, जो हमारी औसत लम्बाई से भी अधिक है। मादा सारस की लम्बाई नर की अपेक्षा कम होती है। यह पक्षी कठोर से कठोर सर्दी वाले मौसम को झेलने में भी पूर्णतः सक्षम होता है।
सारस की विशेषता –
उड़ान भरते समय इनके पंखों की फड़फड़ाहट लयबद्ध होने के कारण बड़ी ही मनोरंजक प्रतीत होती है। उड़ते समय यह अपनी गर्दन को आगे तथा पूंछ पीछे को उठा लेते हैं। इनके पंखों का रंग हल्का भूरा होता है तथा कान हल्के भूरे या सफेद रंग के छोटे-छोटे पंखों से घिरे हुए होते हैं। इनकी टांगों तथा उंगलियों का रंग कुछ-कुछ लाल रंग का होता है।
सारस अन्य पक्षियों के मुकाबले उड़ने में बहुत ताकतवर होते हैं तथा सामुहिक रूप में उड़ते समय हमेशा कतारबद्ध होकर अथवा अंग्रेजी के अक्षर ‘व्ही’ के आकर में उड़ते हैं। सारस प्रजनन करने वाला एक मात्र ऐसा पक्षी है जो दूर-दूर तक तथा लम्बी उड़ान भरने में सक्षम है।
सारस के शरीर का रंग हल्का सलेटी तथा सिर लाल रंग का होता है। जिस प्रकार मूर्गे के सिर पर कल्गी होती है उसी प्रकार सारस (Stork) के सिर के ऊपर भी एक छोटी-सी कल्गी होती है तथा इस छोटे से हिस्से पर हरे रंग की चमड़ी होती। इसके अतिरिक्त सिर का बाकी हिस्सा तथा गले का ऊपरी भाग संतरी या लाल रंग का होता है जो इनके मिज़ाज अथवा मनोदशा के अनुरूप रंग बदलता रहता है तथा अन्य साथियों के साथ सम्पर्क के रूप में भी वे इसका प्रयोग करते हैं।
मदमस्त सारस –
सारस देखने में जितना सुस्त लगता है वास्तव में उतना सुस्त होता नहीं। इसकी गरजती हुई तथा दूर-दूर तक पहंुचने वाली ध्वनि इसके स्वभाव का आभास कराती है। प्रजनन के समय इनकी मस्ती का अंदाज ही कुछ और होता है। इस समय ये मस्त होकर नृत्य करते तथा एक दूसरे को लुभाने का प्रयत्न करते हुए देखे जा सकते हैं। सम्मोहन के प्रयास में कभी दोनों एक दूसरे के सामने पंख फड़फड़ाकर मस्ती में झूमते हुए अभिवादन करते हैं तो और कभी एक दूसरे के आगे चक्कर काटते हुए उछल कूद करते हुए देखे जा सकते हैं।
कहां पाया जाता है सारस –
पक्षियों में भारतीय सारस ही एक मात्र ऐसी प्रजाती है जो स्थायी रूप से भारत में ही अपने अण्डे देते है तथा रहते हैं। इसके लिए वे हमेशा मैदानों, दलदली भूमि, कृषि योग्य भूमि, खेतों, खुले मैदान, पानी से भरे धान के खेतों के बीच एवं पोखरों के आसपास ही अपने घोंसले बनाते हैं। इस घोंसले के लिए वे घास, पत्तों, तिनकों एवं सरकंडों (मोटी घास) का इस्तेमाल करते हैं।
वैसे घोंसले बनाने के लिए स्थान के चुनाव में सारस को पूर्वानुमानी पक्षी माना गया है। कम वर्षा का अनुमान होने पर सारस मादा अपना घोंसला पानी के ऊपर तथा अधिक वर्षा का अनुमान होने पर पानी की पहुंच से अधिक ऊंचाई पर अपना घोंसला बनाती है। इनके इस पुर्वानुमान को देखकर ग्रामवासी सहज ही अनुमान लगा लेते हैं कि इस वर्ष वर्षा कम होगी या ज्यादा।
सारस की पहचान –
सारस के घोंसले में सामान्यतः दो अण्डे ही दिखाई पड़ते हैं। मादा सारस अपने अण्डों को 30 से 34 दिनों तक सेहती है तथा बाकी कुछ समय के लिए नर इनकी रक्षा करता है। जब अण्डों से निकलकर चूजे इस दूनिया में आते हैं तो वे पीले तथा हल्के हल्के भूरे रंग के होते हैं तथा इनकी पीठ पर गहरे भूरे रंग की दो लाइनें होती हैं। सारस के बच्चे जब तीन माह के हो जाते हैं तो उड़ना सीख जाते हैं। इनके बच्चे दो-तीन वर्षों में ही वयस्क हो जाते हैं।
सारस का प्रिय भोजन जलिय पौधे, जड़ें, मेंढक, छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े, बीज एवं अनाज है। इसीलिए इनको अधिकतर गावों के आसपास के तालाबों, पोखरों, नदियों एवं कृषि योग्य भूमि में अपना भोजन तलाशते देखा जा सकता है।
भारत में इनकी मृत्यु अधिकतर कृषि के विस्तार एवं खेतों में डाले जाने वाली अत्यधिक तेज रासायनिक दवाओं के कारण होती है। इसके अतिरिक्त प्रदूषित जल, प्रदूषित वातावरण एवं कम होते हुए जंगल भी इनकी असमय मृत्यु तथा घटती हुए संख्या का एक बड़ा कारण बनी हुई है। तो यदि सारस को नजदीक से देखने का मन हो तो उसके लिए भरतपूर पक्षी विहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं राजस्थान के जंगलों में जाना पड़ेगा है।