वर्तमान परिस्थितियों में वैश्विक परिस्थितियों का आंकलन एवं मूल्यांकन किया जाये तो स्पष्ट तौर पर देखने में आता है कि सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। किन्हीं न किन्हीं मामलों को लेकर तमाम देश आपस में उलझे हुए हैं। सीमा विवाद के मामले तो बहुत व्यापक स्तर पर देखने को मिल रहे हैं। वैश्विक महाशक्तियां जिनकी जिम्मेदारी बनती है कि वे पूरे विश्व में शांति स्थापना एवं सकारात्मक वातावरण बनाने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य करें किन्तु देखने में आ रहा है कि महाशक्तियां सर्वत्र अपना हित साधने में लगी हैं। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है कि वे जो कुछ भी कर ही हैं उनका अन्य देशों एवं वैश्विक स्तर पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? अपना हथियार बेचने के लिए महाशक्तियां बेचैन हैं।
जाहिर सी बात है कि जब दुनिया में उथल-पुथल मची रहेगी तो हथियारों की बिक्री ज्यादा होगी। नये-नये हथियार बनाकर, एक दूसरे को डराकर एवं छद्म वातावरण बनाकर अपना माल बेचने का ऊल्लू सीधा करते रहे हैं। इस संबंध में यदि गहराई से सोचा जाये तो आतंकवाद भी हथियारों की बिक्री से ही जुड़ा हुआ नजर आता है क्योंकि महाशक्तियों द्वारा निर्मित हथियारों से ही आतंकवाद बढ़ता है।
वैश्विक स्तर पर जब कोई सम्मेलन होता है तो कई मुद्दों पर महाशक्तियों का रवैया दोहरा देखने को मिलता है। उदाहरण के दौर में भारत शुरुआती दौर में जब आतंकवाद की पीड़ा झेल रहा था तो वह महाशक्तियों से आतंकवाद के खिलाफ गुहार लगाता था किन्तु महाशक्तियां उस समय भारत की बात को नजर अंदाज कर देती थीं, मगर अमेरिका सहित कई महाशक्तियों ने जब आतंकवाद का स्वाद स्वयं चखा तो उन्हें यह समझ में आया कि वास्तव में आतंकवाद क्या होता है? इसी प्रकार घुसपैठ की समस्या पर जब विश्व स्तर पर चर्चा होती थी तो महाशक्तियों को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता था किन्तु घुसपैठियों की समस्या से महाशक्तियों एवं अन्य देशों को जब स्वयं दो-चार होना पड़ा तो वे इस संबंध में सक्रिय हुए।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि किसी भी समस्या के उत्पन्न होने पर शुरुआती दिनों में ही यदि महाशक्तियां ध्यान दे दें तो समस्या विकराल न होने पाये किन्तु अफसोस की बात यह है कि महाशक्तियां किसी भी मामले में तभी सक्रिय होती हैं जब उन पर स्वयं बीतती है अन्यथा उनका ध्यान किसी समस्या की तरफ जाता ही नहीं है। कहने का आशय यही है कि जो देश वैश्विक स्तर पर रक्षक की भूमिका में हैं उन्हें अपना दायित्व ठीक से निभाना चाहिए।
आज विश्व के अधिकांश देश जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, नस्लवाद, नक्सलवाद एवं अनेक प्रकार की समस्याओं से ग्रसित हैं। इसके अतिरिक्त बाढ़, सूखा, अकाल, बर्फबारी, भूस्खलन, आंधी, तूफान एवं अन्य प्राकृतिक आपदाएं भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं। इस प्रकार देखा जाये तो वैश्विक स्तर पर व्याप्त तमाम समस्याओं का समाधान न तो महाशक्तियों के पास है और न ही किसी अन्य देश के पास।
इन परिस्थितियों में निःसंदेह भारत पर नजर दौड़ाई जाये तो वैश्विक समस्याओं के समाधान की क्षमता भारत में है। चूंकि, भारतीय सभ्यता-संस्कृति में आदिकाल से ऐसी खूबियां हैं जिनसे वैश्विक स्तर पर व्याप्त किसी भी समस्या का निदान किया जा सकता है यानी भारत ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म एवं अन्य किसी भी रूप में विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम है। भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ‘विश्व बंधुत्व’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना निहित है। कहने का आशय यह है कि भारतीय संस्कृति में विश्व कल्याण की भावना निहित है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ यानी पूरी वसुंधरा को एक परिवार माना गया है।
जाहिर-सी बात है कि यदि विश्व के सभी व्यक्तियों में यही भावना आ जाये कि पूरा विश्व ही अपना परिवार है और विश्व के प्रत्येक व्यक्ति का सुख-दुख अपना है तो इसी भाव से ही सभी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। भगवान महावीर के दो उपदेश ‘अहिंसा परमो धर्मः’ एवं ‘जियो और जीने दो’, पूरे विश्व में सुख-शांति की स्थापना में बेहद कारगर साबित हो सकते हैं।
भारतीय संस्कृति में ऋषियों-मुनियों के आश्रमों में शेर-बकरी, सांप-नेवला एवं बिल्ली-चूहा जैसे एक दूसरे के धुर विरोधी प्राणी एक साथ ही रहा करते थे यानी यह उसी सिद्धांत पर आधारित है कि स्वयं जियो और दूसरे को भी जीने दो। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ से स्वतः स्पष्ट होता है कि अहिंसा से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है यानी अहिंसा के रास्ते पर चलकर जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने विपरीत परिस्थितियों में भी अहिंसा का मार्ग चुना।
भारत में कहीं भी पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन एवं धार्मिक कार्य संपन्न होते हैं तो यही बात अकसर सुनने एवं देखने को मिलती है कि ‘सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः’ यानी कि सभी लोग सुखी एवं संपन्न रहें। मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों पर जब लोग नारे लगाते हैं तो यह ध्वनि अकसर सुनने को मिलती रहती है कि ‘विश्व का कल्याण हो’। कभी यह सुनने को नहीं मिलता कि भारत का कल्याण हो। इससे भी बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में जितने भी पर्व, त्यौहार, रीति-रिवाज एवं रहन-सहन के तौर-तरीके विकसित हुए हैं, उनमें से अधिकांश वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित भी हैं।
मानवता के लिए- शक्ति का सदुपयोग हो न कि दुरुपयोग…
आज पूरे विश्व में प्राकृतिक आपदाओं से आये दिन तबाही देखने को मिलती रहती है, जबकि भारतीय संस्कृति में यह बात सर्वत्र बताई गई है कि हमें प्रकृति से सिर्फ उतना ही लेना चाहिए जितना जीवन यापन के लिए आवश्यक हो। प्रकृति का दोहन यदि आवश्यकता से अधिक होगा तो उसके दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे ही। नदियों का पेटा यदि पटेगा और नदियों के पेटों में यदि महल एवं होटल बनेंगे तो बाढ़ आयेगी ही। जंगलों को बेतहाशा काटा जायेगा तो सूखे का सामना करना ही होगा। जड़ी-बूटियों का संरक्षण-संवर्धन नहीं हो पायेगा तो महामारियों से निपटने में दिक्कत आयेगी ही। पहाड़ों को काटकर यदि बेतरतीब विकास कार्य होंगे तो भूस्खलन का खतरा रहेगा ही।
इस प्रकार यदि देखा जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में मिलता है कि जहां भी प्रकृति से छेड़-छाड़ हुई वहीं तबाही का आलम देखने को मिला है। प्रकृति का संरक्षण-संवर्धन अनवरत होता रहे, इसके लिए भारतीय संस्कृति में अनेक पर्व-त्यौहार मनाये जाते हैं जिससे प्रकृति का संरक्षण-संवर्धन होता है। भारतीय संस्कृति में देवी-देवताओं के साथ नदियों, पहाड़ों, जीव-जन्तुओं एवं अन्य प्राणियों को पूजने की प्रथा विराजमान है। उदाहरण के तौर पर नाग पंचमी के दिन सांपों को दूध पिलाया जाता है, इसका सीधा सा अभिप्राय है कि सांप जैसे विषधर जीवों का भी अस्त्तिव बना रहे।
भारतीय संस्कृति में प्रकृति यानी ‘जल, थल, पावक, गगन, समीरा’ यानी जल, पृथ्वी, अग्नि, आकाश एवं वायु में सृष्टि का पूरा अस्त्तिव ही समाया हुआ है। सही अर्थों में देखा जाये तो इसे ही भगवान कहा जाता है। जाहिर सी बात है कि जिसमें सबका अस्त्तिव निहित है अर्थात प्रकृति अर्थात भगवान। यदि हम उसकी शरण में सर्वत्र रहेंगे तो हमें किसी प्रकार के कष्ट नहीं झेलने पड़ेंगे और न ही प्राकृतिक आपदाओं से दो-चार होना पड़ेगा।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि यदि पूरी दुनिया को प्रकृति के महत्व के बारे में बताया जाये और पूरा विश्व उस पर अमल करने लगे तो वैश्विक स्तर पर व्याप्त तमाम समस्याओं का समाधान स्वतः हो सकता है। सिर्फ आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय संस्कृति की खूबियों से पूरे विश्व को परिचित एवं अवगत कराया जाये। जिस दिन पूरी दुनिया भारतीय संस्कृति को जान एवं समझ जायेगी उसके बाद वैश्विक स्तर पर शांति एवं सद्भाव का मार्ग प्रशस्त होना शुरू हो जायेगा।
कोरोना काल में देखने को मिला कि दुनिया के वे देश जिनकी स्वास्थ्य सेवाओं की मिसाल दी जाती थी, उनके भी हाथ-पांव फूल गये। उनकी समझ मंे यही नहीं आ रहा था कि इस भीषण संकट से आखिर वे कैसे उबरें? किन्तु भारत अपनी श्रेष्ठ परंपराओं, रहन-सहन एवं रीति-रिवाजों की बदौलत कोरोना नामक महामारी से निपटने में काफी हद तक कामयाब रहा।
‘विश्व बंधुत्व’ एवं ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ ही सभी मस्याओं का समाधान…
विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से कोरोना से निपटने के लिए जो भी प्रोटोकाल निर्धारित किये गये। भारतीय संस्कृति में सदियों से वे सभी बातें प्रचलन में रही हैं। बार-बार हाथ धोना, साफ-सफाई हमारी संस्कृति में सदैव से रहा है। कोई व्यक्ति या अतिथि यदि कहीं से आये तो उसका हाथ-पैर धुलवाना भारतीय संस्कृति में आदिकाल से प्रचलन में रहा है।
मोटा खाना एवं मोटा पहनना भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहा है जबकि इसके विपरीत पाश्चात्य संस्कृति में बारीक से बारीक पीस कर फास्ट फूड जैसे व्यंजनों के रूप में जहर शरीर में उतारा जा रहा है जिससे न केवल शारीरिक क्षमताएं कम हो रही हैं बल्कि नई-नई बीमारियों का भी जन्म हो रहा है।
भारत भूमि में ऐसी-ऐसी लुप्त होती जा रही दुर्लभ जड़ी-बुटियां हैं जिनके बारे में विज्ञान भी आश्चर्यचकित है और उन जड़ी-बूटियों का प्रभाव लाइलाज बीमारियों में सटीक होता रहा है। जानकारी और ज्ञान के अभाव में एवं अपनी धरोहर को तुच्छ समझ कर हमने उनका त्याज्य किया हुआ है जो कि हमारी भूल है।
भारत में पश्चिमी संस्कृति की तुलना जब भारतीय संस्कृति से की जाती है तो बड़े-बुजुर्ग हमेशा यही कहते हैं कि हमारी संस्कृति ही सर्वोत्तम है। पश्चिमी संस्कृति से तो तमाम प्रकार की विकृतियां पैदा हो रही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे खान-पान और रहन-सहन को पश्चिमी संस्कृति ने विकृत किया है। यदि अपनी गौरवमयी संस्कृति को पुनः मजबूत करने के लिए प्रयास नहीं किये गये तो स्थिति दिन-प्रतिदिन और बदतर होती जायेगी।
कोरोना काल में लोगों ने काढ़ा, तुलसी, हल्दी, गुनगुना पानी, गिलोय आदि का प्रयोग करना शुरू किया तो ऐसा लगा कि इसका प्रयोग वक्त के साथ कम हो जायेगा किन्तु प्रसन्नता की बात है कि युवा पीढ़ी इस तरफ और अधिक आकर्षित हो रही है और इसका सेवन बहुतायत में करने लगी है यानी कोरोना काल में कोरोना से निपटने के लिए जिन-जिन वस्तुओं का सेवन हो रहा था, उसका प्रयोग आज भी हो रहा है।
कोरोना काल में इस बात को मानने एवं स्वीकार करने के लिए पूरी दुनिया विवश हुई कि भारतीय संस्कृति विश्व को रास्ता दिखाने में सक्षम है। आज यह बात पूरा विश्व मानने के लिए विवश हुआ है कि भारत अपनी संस्कृति की बदौलन पूरे विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम है। यही कारण है कि आज विश्व के तमाम देशों के लोग भारत आध्यात्मिक शांति की तलाश में आ रहे हैं और यह जानने की कोशिश में लगे हैं आखिर वे कौन से कारण हैं जिनकी बदौलत लंबी गुलामी के बावजूद भारत अपनी संस्कृति को बचाये रखने में अभी तक कामयाब है।
भारतीय संस्कृति में जगह-जगह इस बात की स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि यदि समस्या है तो समाधान भी है यानी कोई भी ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान न हो। भारतीय संस्कृति में बीमारियों एवं महामारियों से निपटने के लिए जड़ी-बूटियों एवं वनस्पतियों की जितनी जानकारी दी गई है, यदि उनकी जानकारी पूरे विश्व को हो जाये तो कोरोना क्या, उससे भी भयंकर महामारी से सुगमता से निपटा जा सकता है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि आज विश्व में जितनी भी समस्याओं का अंबार है, भारतीय संस्कृति पर अमल कर उनसे निपटा जा सकता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि लोग भारतीय संस्कृति को जानें-समझें एवं उस पर अमल करें। भारतीय संस्कृति पर अमल करने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। आज नहीं तो कल विश्व को इस रास्ते पर आना ही होगा।
– सिम्मी जैन
दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।