आज के युग की यह बहुत बड़ी विडंबना है कि अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग विशेषकर युवा वर्ग विज्ञान को ही ज्ञान या यूं कहें कि उसे ही सब कुछ मानने की भूल कर रहा है जबकि यह पूर्ण सत्य नहीं है। सत्य क्या है, यह जानना अति आवश्यक है। हमारे शास्त्रों, वेदों, अन्य धर्म ग्रंथों एवं सनातन संस्कृति में प्रकृति के ज्ञान को ही ज्ञान माना गया है। जब हम प्रकृति के ज्ञान की बात करते हैं तो उसमें ईश्वर द्वारा संचालित या चलाये जा रहे कृत्य को समझना, समझाना और उस ईश्वर को जानने की प्रक्रिया को ज्ञान कहा गया है। वैसे भी यदि विश्लेषण किया जाये कि इस सृष्टि का संचालन कैसे हो रहा है, कौन कर रहा है तो इसे जानने के लिए बहुत गहराई में जाना होगा।
गहराई से मेरा आशय यह है कि इसे जानने एवं समझने के लिए बहुत गंभीर होना होगा। सतही तौर पर इसकी जानकारी हासिल नहीं की जा सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि यह कहा जाये कि क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु ही ईश्वर है तो क्या इस बात को नकार पाना किसी के लिए संभव है। वास्तव में हमारी सनातन संस्कृति में इन्हीं पंच तत्वों को भगवान कहा गया है।
किसी भी मामले में जब विज्ञान फेल हो जाता है तो तब लोग ऊपर वाले से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर अब तेरा ही सहारा। अभी हाल ही में जब देश के प्रथम सीडीएस जनरल विपिन रावत का हेलीकाॅप्टर दुर्घटनाग्रस्त हुआ तो करोड़ों लोग ईश्वर से उनकी सलामती की दुआ मांग रहे थे। यह बात लिखने का मेरा आशय मात्र इतना ही है कि जहां विज्ञान का ज्ञान समाप्त हो जाता है, वहां ईश्वरीय ज्ञान या यूं कहें कि ईश्वर की कृपा प्रारंभ होती है। इसी ईश्वर एवं सृष्टि के बारे में यदि प्रत्येक व्यक्ति जान एवं समझ ले और दूसरों को समझाने की स्थिति में आ जाये तो भारत को पुनः विश्व गुरु के आसन पर विराजमान कराया जा सकता है और यहीं से भारत को पुनः सोने की चिड़िया बनाने की शुरुआत हो जायेगी।
यहां यह बताना अनिवार्य है कि जनरल विपिन रावत की मृत्यु के कारणों में यह बताया गया कि खराब मौसम की वजह से हेलीकाॅप्टर दुर्घटना ग्रस्त हुआ। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि आज का विज्ञान मौसम की सटीक जानकारी भले ही न दे पाये किंतु अतीत में हमारे ऋषि-मुनि एवं अन्य विभूतियां मौसम की सटीक जानकारी दे दिया करती थीं। हमारी सनातन संस्कृति में यह भी जानकारी मिल जाती थी कि यदि रात्रि में कोई स्वप्न देखा जाये तो उसका प्रभाव एवं दुष्प्रभाव क्या हो सकता है? दायीं-बायीं आख एवं अन्य अंगों के फड़कने के क्या प्रभाव एवं दुष्प्रभाव हैं, इसकी जानकारी हमारे वेदों, शास्त्रों एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों में ऋषि-मुनियों द्वारा अर्जित की गई जानकारी के आधार पर वर्णित है। क्या विज्ञान इस बात की जानकारी दे सकता है?
हमारे ऋषि-मुनि तो पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों एवं जंगली जानवरों की भी भाषा समझते थे, क्या यह विज्ञान बता सकता है। यह सब लिखने एवं बताने का मेरा आशय इस बात का प्रचार-प्रसार करना है कि हमारी सनातन संस्कृति में जीवन जीने के जो भी तौर-तरीके बताये गये हैं, वह विज्ञान पर आधारित हैं या नहीं, इस बात की शोध चल रही है यानी हमारे वेदों, शास्त्रों में जो भी जानकारियां दी गई हैं, उस पर विज्ञान शोध कर रहा है।
हमारे देश की युवा पीढ़ी यदि अपने अतीत को रंच मात्र भी जान एवं समझ जाये तो भी उसका एवं समाज का कल्याण हो सकता है। विज्ञान एवं फैशन ही सब कुछ होता तो पश्चिमी देश क्यों परेशान होते और प्राकृतिक आपदाओं की मार सबसे अधिक पश्चिम ही क्यों झेलता, जबकि वहां का विज्ञान सबसे आगे है। विज्ञान को सही अर्थों में यदि परिभाषित किया जाये तो निःसंदेह कहा जा सकता है कि विज्ञान तो मात्र अतीत में अर्जित किये गये ज्ञान को जानने एवं समझने की कार्यशाला है। अपने देश में एक बहुत पुरानी कहावत प्रचलित है कि जहां विज्ञान खत्म होता है, वहां से ज्ञान की शुरुआत होती है।
उदाहरण के तौर पर यदि कोरोनाकाल को लिया जाये तो कोरोना की पहली लहर में जब अपनी लाख कोशिशों के बावजूद मेडिकल जगत एवं विज्ञान घुटनों के बल लेटा नजर आया तो उस समय भी भारत अपने ज्ञान की बदौलत कोरोना से उत्पन्न भयावह स्थिति से मुकाबला करने में कामयाब रहा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से कोरोना से निपटने के लिए जो भी गाइड लाइन जारी की गई वह हमारी सनातन संस्कृति में अनादिकाल से ही विद्यमान रही है यानी कि अतीत का ज्ञान यहां भी विज्ञान पर भारी पड़ा। अपने देश में जीवनशैली से संबंधित जो भी क्रिया-कलाप सदियों की ज्ञान-साधना के उपरांत विकसित हुए हैं, उसके बारे में यदि घरों एवं चैराहों पर चर्चा होती है तो उसके बारे में अकसर यही कहा जाता है कि यह सब वैज्ञानिकता पर आधारित है।
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उदाहरण के तौर पर सूर्य भगवान को लोग सुबह जब जल चढ़ाते हैं तो वह सिर्फ भगवान सूर्य की आराधना ही नहीं है बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से उसके क्या लाभ हैं, इसे विज्ञान भी मान चुका है। नवजात शिशुओं को जब पीलिया की शिकायत होती है तो डाॅक्टर बच्चे को सुबह-सुबह हलकी धूप दिखाने की सलाह देते हैं। शरीर में जब विटामिन डी की कमी होती है या हड्डियां कमजोर हो जाती हैं तो डाॅक्टर धूप सेंकने की सलाह देते हैं। डाॅक्टर धूप सेंकने की सलाह वर्तमान दौर में भले ही दे रहे हैं किन्तु हमारी सनातन संस्कृति में इन बातों की जानकारी अनादि काल से ही रही है।
प्राचीन काल में लोगों को इन सब बातों की जानकारी कैसे मिलती थी, यदि इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जाये तो गुरुकुल पद्धति द्वारा दी जाने वाली शिक्षा ज्ञान अर्जन की प्रथम सीढ़ी थी। गुरुकुल पद्धति के अंतर्गत आचार्य अपने अनुभव एवं अकाट्य ज्ञान के आधार पर इस बात का पता लगा लेते थे कि किस शिष्य की रुचि किस विषय एवं क्षेत्र में है। उसी के आधार पर आचार्य शिक्षा दिया करते थे। यहां पर यह बताना अत्यंत उपयुक्त होगा कि जब भारत सोने की चिड़िया था तो उस समय भारत न केवल आर्थिक दृष्टि से मजबूत था बल्कि ज्ञान एवं अध्यात्म की चरम सीमा पर था। नालंदा एवं तक्षशिला जैसे अनेक विश्व प्रसिद्ध शैक्षणिक संस्थान उस समय भारत में मौजूद थे।
विश्व का शायद ही ऐसा कोई पाठ्यक्रम रहा हो, जिसकी शिक्षा इन शैक्षणिक संस्थानों में न दी जाती रही हो। विश्व की लगभग सभी भाषाओं में यहां के शैक्षणिक संस्थाओं में पढ़ाई होती थी। उस समय न तो कंप्यूटर हुआ करते थे और न ही कोई अन्य आधुनिक उपकरण जिसमें ज्ञान एवं जानकारी को स्टोर किया जा सके। उस समय जो भी सिखाया-पढ़ाया जाता था, उसे मस्तिष्क रूपी कंप्यूटर में ही कंठस्थ करके स्टोर करना पड़ता था। कंप्यूटर में से तो असावधानी के कारण जानकारी गायब भी हो जाती है किन्तु मस्तिष्क रूपी कंप्यूटर में एक बार जब कोई जानकारी स्टोर हो जाती है तो आजीवन वहीं पड़ी रहती है।
आज का युग तो किताबों से भी आगे निकलता जा रहा है। आज का युवा तो सब कुछ मोबाइल पर ही पढ़ लेना चाहता है। वह किताबों से भी दूरी बनाना चाहता है। आज का युवा तो दिमाग पर किसी प्रकार का जोर लगाने की बजाय बटन दबाकर ही सारी जानकारी जुटा लेना चाहता है। प्राचीन काल में वैद्य नाड़ी देखकर सभी बीमारियां बता देते थे किंतु आज के वैज्ञानिक युग के डाॅक्टर तमाम टेस्ट कराने के बावजूद बीमारियों की सटीक जानकारी देने में असमर्थ दिखते हैं तो ऐसे में शिद्दत से यह महसूस किया जा रहा है कि मेडिकल क्षेत्र के अत्याधुनिक होने के बावजूद नाड़ी देखने वाले वैद्यों की भी नितांत आवश्यकता है।
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बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। भगवान महावीर के दो सिद्धांतों – ‘जियो और जीने दो’ एवं ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाये तो निश्चित रूप से ये दोनों सिद्धांत विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरेंगे। तमाम मामलों में यह साबित भी हो चुका है। वास्तव में आज का समाज, विशेष रूप से युवा वर्ग भगवान महावीर के इन्हीं दोनों सिद्धांतों को अपना ले तो भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की समस्त समस्याओं का समाधान हो सकता है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, नस्लवाद, परिवारवाद, गोत्रवाद, भाषावाद सहित सभी समस्याओं से निपटा जा सकता है, किंतु इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि पूर्ण मनोयोग से अपने अतीत की तरफ जाना होगा।
सनातन संस्कृति में जन्म से लेकर मृत्यु तक विधिवत सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गई है। 16 संस्कारों की व्यवस्था एक झटके में ही नहीं कर दी गई है, बल्कि इसके पीछे हमारे ऋषियों-मुनियों की वर्षों की त्याग-तपस्या एवं ज्ञान पर आधारित है। बार-बार इन संस्कारों के महत्व एवं उपयोगिता को विज्ञान की कसौटी पर कसने का प्रयास किया गया है, मगर ये सभी संस्कार वैज्ञानिकता की कसौटी पर हमेशा खरे उतरे हैं। ज्ञान और विज्ञान का रिश्ता ‘तू डाल-डाल तो मैं पात-पात’ ही जैसा साबित होता है। कहने का आशय यही है कि ज्ञान हमेशा विज्ञान पर भारी पड़ता है।
ज्ञान के आधार पर यदि संस्कारों की बात की जाये तो एकलव्य ने अपने गुरु द्रोणाचार्य के कहने पर अपना अंगूठा काटकर गुरु दक्षिणा के रूप में सौंप दिया था जबकि गुरु द्रोणाचार्य ने प्रत्यक्ष रूप से एकलव्य को शिक्षा नहीं दी थी। एकलव्य ने तो उन्हें मानसिक रूप से अपना गुरु माना था किन्तु आज के आधुनिकतावादी युग में क्या देखने को मिल रहा है? वर्तमान समय में ऐसा भी सुनने को मिल जाता है कि शिष्य अपने गुरु की जरा सी भी डांट सुनने को तैयार नहीं हैं। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि कई छात्रों के द्वारा तो अपनी महिला शिक्षिकाओं के साथ इश्क लड़ाने की बातें भी समय-समय पर देखने और सुनने को मिलती रहती हैं।
यहां यह बताना भी जरूरी होगा कि कमी सिर्फ शिष्यों की ही नहीं है बल्कि इसके लिए गुरु सहित पूरा सामाजिक परिवेश जिम्मेदार है क्योंकि बच्चों को जो कुछ भी सिखाया-पढ़ाया जाता है उसी के आधार पर वे आगे बढ़ते हैं।
अतः, आज आवश्यकता इस बात की है कि वर्तमान दौर की आधुनिकता, विज्ञान, फैशन, जीवनशैली एवं अन्य तमाम बातों पर बिना बहस किये युवा वर्ग सहित पूरे समाज को अपने अतीत के बारे में जानना नितांत आवश्यक हो गया। इसके अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। अपने अतीत को जानने एवं समझने की दिशा में जितने शीघ्र अग्रसर हो लिया जाये, श्रेष्ठ देश एवं श्रेष्ठ समाज के निर्माण में उतना ही अच्छा होगा। वर्तमान हालातों में चाहे जितना भी ना-नुकुर कर लिया जाये किंतु कभी न कभी तो इस रास्ते पर आना ही होगा। द
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव भा.ज.पा.)