तमिलनाडु के करीब हर छोटे-बड़े शहर में सैकड़ों वर्ष पुराने हिंदू मंदिरों को देखा जा सकता है। द्रविड़ शैली में बने ये मंदिर एक विशेष कला और संस्कृति की झलक दिखाते हैं। तमिलनाडु के इन तमाम शहरों और आम जनजीवन में न सिर्फ प्राचीन मंदिरों की बल्कि भरतनाट्यम, तंजौर पेंटिंग और तमिल वास्तुकला से जुड़ी समृद्ध संस्कृति और भाषा के भी भण्डार हैं। लेकिन, वर्तमान दौर की राजनीति और एक विशेष संप्रदायवाद के चलते भारतीय संविधान के में लिखे गये कुछ विशेष नियम-कानूनों के कारण यह कला और संस्कृति न सिर्फ लुप्त होने की कगार पर है बल्कि अब तो यहां कत्लेआम होने की संभावनाएं भी बनती दिख रही है।
उदाहरण के तौर पर यहां हम तमिलनाडु के पेरमंबलूर जिले के कड़तुर गांव को साफ और स्पष्ट तौर पर दर्शा सकते हैं कि कैसे यहां की कला, संस्कृति और भाषा सहीत तमाम प्रकार की प्राचीन जीवनचर्या वर्तमान परिस्थितियों के आगे हार चुकी है और अंतिम सांसे ले रही है। जबकि हद तो ये है कि आम जनता के सामने तमाम प्रकार के समाचार परोसने वाला तेज-तर्राट भारतीय मीडिया भी यहां की ऐसी तमाम घटनाओं को छूपाता रहा और आज भी यही रवैया अपना रहा है।
आज स्थिति ये है कि तमिलनाडु के इस पेरमंबलूर जिले का गांव कड़तुर न सिर्फ इसी राज्य के लिए बल्कि संपूर्ण देश के लिए भी खतरा बन चुका है। वो तो भला हो सोशल मीडिया का जो वहां इस प्रकार की खबरें निकलकर सामने आ रही हैं वर्ना तो भारत के बिकाऊ मीडिया जगत ने जानबुझ कर छोड़ दिया था। आज भी यही हाल है कि वहां की खबरें हमें सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया से ही प्राप्त हो रहीं हैं।
दरअसल, हाल ही में तमिलनाडु के इस कड़तुर नाम के गांव में एक ऐसी घटना हुई जो भारतीय समाचार मीडिया की सुर्खी तो नहीं बन सकी, लेकिन, सोशल मीडिया के माध्यम से जिसको भी पता चला उसने यही कहा कि अब तो न सिर्फ इस कड़तुर गांव की बल्कि इस संपूर्ण क्षेत्र की मानवता के साथ-साथ यहां के प्राचीन मंदिर, भरतनाट्यम, तंजौर पेंटिंग्स और समृद्ध तमिल वास्तुकला एवं संस्कृति के भण्डार बिल्कुल भी नहीं बचने वाले हैं।
इस घटना के बाद जहां एक आम भारतीय को और खासतौर पर हिंदू समाज को अपने अस्तित्व के लिए सबसे पहले आगे आ जाना चाहिए था वह खुद ही मौन होकर बैठा हुआ है। दरअसल, यहां की वो खास घटना भारतीय मीडिया के माध्यम से तो नहीं लेकिन, सोशल मीडिया के माध्यम से ही आम नागरिकों तक पहुंची है। और वो खास खबर ये है कि तमिलनाडु राज्य के इस पेरमंबलूर जिले के कड़तुर गांव में पिछले सैकड़ों वर्षों से स्थानीय हिंदू समुदाय के लोग परंपरागत रथ यात्रा का आयोजन करते आ रहे थे। जैसे कि दक्षिण भारत के तमाम मंदिरों में इसी प्रकार की रथ यात्रा हर वर्ष निकलती रहती है। उसी प्रकार से इस गांव में स्थित प्रमुख मंदिरों से भी सन 2011 तक ये रथ यात्रा निर्विघ्न रुप से निकलती आ रही थी, लेकिन 2012 में ‘जमात-ए-इस्लामी तमिलनाडु’ नाम की एक संस्था ने इन परंपरागत रथ यात्राओं का विरोध करना शुरू कर दिया। जबकि इसके बाद से स्थानीय हिंदू समुदाय को डराने के लिए दो बार इस रथ यात्रा पर पथराव भी हो चुके हैं।
‘जमात-ए-इस्लामी तमिलनाडु’ ने हिंदुओं की आस्था से जुड़ी और सैकड़ों वर्षों से जारी इस परंपरागत रथ यात्रा को सेशन कोर्ट में चुनौति भी दे डाली। सेशन कोर्ट में जमात पक्ष का यह कहना था कि- ‘चूंकि गांव में उनके समुदाय की आबादी अधिक है और इस्लामिक मान्यता में मूर्ति पूजा पाप मानी जाती है और इसके अलावा, मुस्लिम समुदाय के सामने से देवी-देवताओं के रथ गुजरते हैं तो उनकी मूर्तियों को देखकर हमारा समुदाय पाप का भागी बनता जा रहा है। इसलिए इस क्षेत्र में होने वाली ऐसी किसी भी रथ यात्रा और बाकी हिंदू उत्सव और त्यौहारों पर रोक लगा दी जाए।’
हालांकि, मद्रास उच्च न्यायालय की पीठ ने ‘जमात’ को याद दिलाया कि अगर उसका यह तर्क मान लिया जाए तो फिर भारत के हिंदू आबादी वाले क्षेत्रों में तो ना मुस्लिम आयोजन हो सकते हैं और ना ही कोई जुलूस की अनुमति दी जा सकती है। ना ही कोई मस्जिद बन सकती है और ना ही मस्जिदों से लाउडस्पीकर पर अजान हो सकेगा। यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि जमात की यह दलील भारत के मुस्लिमों के उस दुस्साहस की एक ऐसी मिसाल है जो भविष्य में घातक परिणामों को जन्म देने वाली है। क्योंकि यहां खबर का दूसरा पहलू ये भी है कि पेरंबलूर जिला सेशन कोर्ट ने जमात की इस दलील को सर आंखों पर रखते हुए और उनके समुदाय की आस्था को मानते हुए ‘भारत के संविधान के पन्नों के साथ टिश्यू पेपर जैसा व्यवहार करते हुए’ और भारत की धर्मनिरपेक्षता का खुलेआम उपहास उड़ाते हुए हिंदुओं द्वारा संचालित उस रथ यात्रा पर रोक लगा दी थी।
इस विषय पर मद्रास उच्च न्यायालय की उस टिप्पणी को आम हिंदू समुदाय के द्वारा याद रखना चाहिए जिसमें उसने कहा है कि- ‘ये एक बहुत बड़े दुख का विषय है कि हिंदुओं को अपने ही देश में बहुसंख्यक होते हुए भी अपने पूजा-पाठ जैसे मूल अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय की शरण में जाना पड़ रहा है। लेकिन, सच तो ये है कि ऐसा हुआ है।’
इस फैसले में हैरान करने वाली बात एक और देखने को मिली है कि इसी फैसले में मद्रास उच्च न्यायालय ने हिंदू पक्ष को इस गांव में रथयात्रा निकालने का आदेश तो दिया, लेकिन, साथ ही साथ तमिलनाडु सरकार से कहा कि वह पूरे तमिलनाडु राज्य में इस बात की निगरानी भी करे कि हिंदुओं की पूजा और रथ यात्रा पर किसी तरह की बाधा न आने पाए। यानी कि अपने ही देश में, अपने ही धर्म के उत्सवों और आयोजनों में एक अन्य समुदाय का इतना डर है कि वहां कोर्ट को ये आदेश जारी करना पड़ता है कि राज्य सरकार ये सुनिचित करे कि उसमें कोई बाधा ना आने पाये।
अब अगर हम इस विषय के राजनीतिक पहलू पर भी गौर करें तो यहां हमें देखने को मिलता है कि एक विशेष समुदाय को वोट बैंक मानकर चलने वाली तमाम क्षेत्रिय और राष्ट्रीय पार्टियां ना सिर्फ चुप रही हैं बल्कि डीएमके ने तो इसमें जमात की पूरी मदद भी की है।
तमाम क्षेत्रिय और राष्ट्रीय पार्टियों के संरक्षण और दबावों के चलते स्थानीय न्यायालयों के फैसले भी बाधित होते जा रहे हैं और कानून व्यवस्था को को इन लोगों ने अपनी जेब में रखा हुआ है। क्योंकि इसके उदाहण के तौर पर देखें तो तेनकासी के सकंबलम गांव में मुस्लिम पक्ष की आपत्ति के बाद पुलिस ने हिंदू पक्ष को सुने बिना ही एक निर्माणाधीन मंदिर को ढहा दिया था।
तमाम राजनीतिक विष्लेषकों और जानकारों ने इस विषय पर अपनी-अपनी राय में कहा है कि तमिलनाडु में ‘जमाते इस्लामी हिंद’ और कुछ अन्य कट्टर मुस्लिम संस्थाओं ने इस्लामीकरण की शुरुआत 90 के दशक से ही शुरु कर दी थी और इसमें डीएमके का पूरा-पूरा सहयोग रहा है।
इस समुदाय विशेष का दुस्साहस देखिए कि तमिलनाडु के जिस कड़तुर नाम के गांव को उन लोगों ने अपना अधिकारक्षेत्र मान लिया है, वहां अब वे लोग अपनी अलग ही शासन पद्धति चला रहे हैं। इसी जमात ने सन 2016 में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली शहर में भी हिंदुओं की मूर्ति पूजा और ईश्वरवाद के खिलाफ ‘तमिलनाडु तौहीद जमात’ ने एक बहुत बड़ी रैली निकाल कर उसमें ऐसे-ऐसे भाषण दिए थे जो तालिबान या फिर आई.एस. के सरगना दिया करते हैं।
‘तमिलनाडु तौहीद जमात’ की इस रैली में कुछ खास मुस्लिम वकीलों ने भी भाषण दिया था। उन वकीलों ने इसमें मूर्ति पूजा का खुलकर विरोध किया और सीधे-सीधे कहा था कि मूर्तियों को नष्ट करना इस्लाम का मूल चरित्र है और यदि भारत का संविधान इसे रोकता है तो इसका सीधा सा मतलब है कि भारत का संविधान उनके समुदाय की आजादी में बाधा बन रहा है। मात्र इतना ही नहीं बल्कि, वक्ताओं के साथ-साथ इस रैली में आये सभी लोगों ने भारत में मूर्ति पूजा खत्म करने की शपथ ली और भारत के हर एक मंदिर में स्थापित मूर्ति को तोड़ने की बात कही थी। इस रैली के बाद तमिलनाडु के कई शहरों में मूर्तियों के खिलाफ बेहद भड़काऊ पोस्टर और बैनर भी देखे गये थे।
तमिलनाडु राज्य के हर हिस्से में रहने वाले हिंदू समुदाय की वर्तमान मानसिक स्थिति इस समय तनाव के माहौल में है। क्योंकि न सिर्फ मंदिरों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बल्कि शव यात्राओं के दौरान भी उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। इसके उदाहरण के तौर पर कुछ साल पहले तमिलनाडु के पेरियाकुलम कस्बे के पास बोम्बीनायिकन पट्टी गांव में एक दलित मृतक की शव यात्रा को मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र से गुजरने से न सिर्फ रोका गया बल्कि उस शव यात्रा पर भारी संख्या में पथराव भी किया गया और जमकर हिंसा का खेल खेला गया। जवाब में हिंदू पक्ष ने भी विरोध जताया तो मीडिया ने इसे उल्टा हिंदुओं के ऊपर ही दंगे भड़काने वाली शाजिश थोप दी। जबकि, इसमें मरने वाले अधिकतर हिंदू समुदाय के ही लोग थे। बावजूद इसके भारत के आम मीडिया में इस बात की ऐसी कोई खबर सामने नहीं आई कि इन दंगों के पीछे का सच क्या था, जबकि सोशल मीडिया ने ही इस खबर को उजागर किया था।
अब अगर यहां हिंदू समुदाय की वर्तमान स्थितियों और परिस्थितियों को देखें तो पता चलता है कि इस समय वे इतने डरे-सहमें हैं कि उन्होंने यहां से धीरे-धीरे पलायन शुरू कर दिया है। जबकि ‘हिंदू मक्कल काटची’ नाम का एक स्थानिय हिंदू संगठन इन कट्टरपंथी लोगों और इनके संगठनों की अराजक गतिविधियों को रोकने की मांग करता रहता है और विरोध भी करता ही है। लेकिन, क्योंकि उस विशेष समुदाय के कट्टरपंथी संगठनों और उनकी तमाम अराजक गतिविधियों को तमिलनाडु सरकार की तरफ से राजनीतिक और कानूनी संरक्षण प्राप्त है इसलिए न तो किसी हिंदू संगठन की और ना ही किसी पीढ़ित व्यक्ति की यहां कोई सूनता है और ना ही कोई इनके पक्ष में बोलना ही चाहता है।
यहां के हालातों को लेकर स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया की बात करें तो भारत के तमाम मीडिया घरानों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने भी उनकी इन अराजक गतिविधियों को एक षड्यंत्र के तहत छूपाकर रखा है। लेकिन, मीडिया में कुछ आता भी है तो उनमें से कभीकभार गंगा-जमुना तहजीब वाली कोई तस्वीर।
हालांकि, यहां हम कह सकते हैं कि भारत में संविधान का ही राज है और पूरी तरह से कानूनी प्रक्रियाओं का पालन भी किया जाता है। लेकिन, यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि संविधान की कानूनी प्रक्रियाओं के पालन की जिम्मेदारी सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, जबकि इसकी शक्तियों का इस्तमाल तो एक संप्रदाय विशेष के संरक्षण के लिए ही किया जा रहा है। और देश के असली हकदार और असली निवासियों के लिए इसमें तमाम दांव-पेच और अड़चने डालकर एक षड्यंत्र के तहत उलझा दिया जाता है, ताकि आने वाले समय में तमिलनाडु में भी वही स्थिति और हालत बन जायें जो आज बंगाल, केरल और जम्मू कश्मीर में हो रहा है।
अगर हम तमिलनाडु के पेरमंबलूर जिले के कड़तुर गांव की आज की स्थिति और आराजकता के पिछले रिकाॅर्ड देखें तो इसके लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार वे खुद ही हैं जिन्होंने इन आराजक लोगों या इस समुदाय को ‘गंगा-जमुना वाली तहजीब’ के दम पर ये अवसर दिया और सिर पर चढ़ाया था। ठीक यही अवसर आजकल दिल्ली में भी दिया जा रहा है। यही अवसर पंजाब के मलेरकोटला को भी दिया गया है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ सहीत तमाम राज्यों से भी धीरे-धीरे जमात की हरकतों वाली खबरें आने लगीं हैं, लेकिन, सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया के माध्यम से।
– अजय चौहान