अजय सिंह चौहान || दिल्ली से सटे हरियाणा राज्य में यानी दिल्ली-एनसीआर के घनी आबादी वाले बल्लभगढ़ शहर के सैक्टर 4 में सन 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में क्रांति की मशाल जलाने वाले और उस क्रांति में शहीद होने वाले अग्रणी क्रांतिकारियों में शामिल नामों में से एक वीर योद्धा और महान जाट राजा नाहर सिंह भी थे। उन्होंने कई बार अंग्रेजी हूकुमत का सीधे तौर पर मुकाबला किया और जीते जी अपनी रियासत को न सिर्फ पूरी तरह अंग्रेजों से सुरक्षित रखा था बल्कि किसी भी गोरे को अपने राज्य की सीमाओं में आने पर प्रतिबंध भी लगा रखा था।
दरअसल, राजा नाहर सिंह को ब्रिटिश सरकार ने सन 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह करने के आरोप में धोखे से गिरफ्तार करके 9 जनवरी सन 1858 को लालकिले के सामने चांदनी चैक में फांसी पर लटका दिया था। और इस बात की भी भरपूर कोशिश की थी कि उनसे जुड़ी सभी प्रकार की निशानियों को भी नष्ट कर दिया जाय, ताकि उनकी प्रेरणा लेकर स्वतंत्रता आंदोलन के लिए दूसरे क्रांतिकारी ना पैदा हो सके।
नाहर सिंह का जन्म 6 अप्रैल, सन 1821 को बल्लभगढ़ में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा राम सिंह और माता का नाम बसंत कौर था। जब वे मात्र 9 वर्ष के ही थे तभी उनके पिता राजा राम सिंह का निधन हो गया था इसलिए बल्लभगढ़ राज्य के मामलों को चलाने की जिम्मेदारी उनके चाचा नवल सिंह ने ही संभाली थी। और नाहर सिंह जब 18 वर्ष के हो गये तब सन 1839 में उनकी ताजपोशी की गई थी। ताजपोशी से पहले नाहर सिंह ने कई तरह से युद्ध नीतियों और युद्ध कलाओं का प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था।
नाहर सिंह ने राजा बनते ही अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाना शुरू कर दिया था। बताया जाता है कि उस समय संपूर्ण भारतवर्ष में राजा नाहर सिंह एकमात्र ऐसे निडर और साहसी राजा थे जिन्होंने अपने राज्य की सीमाओं में अंग्रेजों का प्रवेश बिल्कुल बंद कर दिया था। उनके इस फरमान से जहां एक ओर देश के अंदर क्रांतिकारियों को उदाहरण के तौर पर एक नई ऊर्जा मिलनी शुरू हो गई थी वहीं अंग्रेजी हुकूमत में उनके खिलाफ गुस्सा और तिलमिलाहट साफ देखी जा रही थी।
राजा नाहर सिंह के इस प्रकार के क्रांतिकारी कार्यों और साहस की चर्चा देशभर में होने लगी। जिसके बाद, सन 1839 में, उत्तर प्रदेश के मुक्तेश्वर में आयोजित एक बैठक में कई प्रमुख हस्तियों जैसे राव कृष्ण गोपाल, तात्या टोपे, ग्वालियर के राजा श्रीमंत जयजीराव सिंधिया और अन्य कई महत्वपूर्ण हस्तियों की एक बैठक हुई जिसमें राजा नाहर सिंह ने भी मुख्य रूप से हिस्सा लिया और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनता को जागृत करने और विद्रोह की आग को भड़काने का काम करने का निर्णय लिया गया।
उसी के बाद से राजा नाहर सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सीधे-सीधे विद्रोह कर दिया और अंग्रेजी हुकूमत के किसी भी फरमान को मानने से इनकार कर दिया और बल्लभगढ़ की सीमाओं के भीतर किसी भी अंग्रेज व्यक्ति के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। उसका परिणाम यह हुआ कि यह खबर आग की तरह पूरे देश में फैल गई और कुछ ही दिनों में देश के तमाम नागरिकों में अंग्रेजी हूकुमत और अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा फूटने लगा। क्रांतिकारियों के बीच राजा नाहर सिंह एक उदाहरण के तौर पर चर्चा का विषय बनते गये।
उधर, राजा नाहर सिंह की इस बगावत के कारण अंग्रेजी हुकूमत में भी उनके खिलाफ गुस्सा और तिलमिलाहट साफ-साफ देखी जानी लगी थी। जिसके बाद उनके खिलाफ अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा सीधे-सीधे ताकत के इस्तमाल पर चर्चा और षड्यंत्रों का दौर शुरू हो गया और बल्लभगढ़ रियासत पर अंग्रेजी हुकूमत ने आक्रमण कर दिया। लेकिन, राजा नाहर सिंह की हिम्मत और हौसलों के आगे अंग्रेजी सेना बूरी तरह से परास्त हो गई।
और क्योंकि उस समय बल्लभगढ़ की रियासत दिल्ली के अधिन थी और दिल्ली की गद्दी पर आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर की हुकूमत चलती थी इसलिए उनका साथ देना, उनकी रक्षा और सहायता करना भी बल्लभगढ़ रियासत का ही दायित्व बनता था। इसके अलावा राजा नाहर सिंह को दिल्ली के शासक बहादुर शाह जफर का सबसे भरोसेमंद भी माना जाता था। ऐसे में अंग्रेजी हुकूमत का सारा ध्यान दिल्ली की ओर ही लग गया। अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा दिल्ली पर जोरदार आक्रमण करने के बावजूद राजा नाहर सिंह की सेनाओं ने दिल्ली की सीमाओं में अंग्रेजी सेनाओं घुसने नहीं दिया।
भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़े गये उस पहले भीषण युद्ध में, राजा नाहर सिंह ने 16 मई सन 1857 को, दिल्ली को अंग्रेजों से आजाद करवा लिया। इस युद्ध के दौरान उन्होंने दिल्ली से बल्लभगढ़ तक कई सैन्य पहरेदार और गुप्तचर स्थापित किए हुए थे।
राजा नाहर सिंह की सेनाओं ने बादली-की-सराय, हिंडन नदी और दिल्ली की सीमाओं के आसपास के अन्य क्षेत्रों की लड़ाईयों के दौरान ब्रिटिश सेनाओं के द्वारा किए गए हर प्रकार के हमलों को विफल कर दिया और दिल्ली के दक्षिणी तथा पूर्वी द्वारों को अभेद्य रख कर दिल्ली को अंग्रेजी सेनाओं से सुरक्षित रखा था।
दिल्ली की पूर्वी सीमाओं की तरफ से यानी बल्लभगढ़ की ओर से होने वाले ब्रिटिश सेनाओं के हर प्रकार के हमलों को राजा नाहर सिंह के द्वारा विफल कर दिए जाने के कारण बल्लभगढ़ को ‘‘दिल्ली का लोहे का द्वार‘‘ कहा जाने लगा था। अंग्रेजों के मन में राजा नाहर सिंह की सेनाओं का खौफ इतना ज्यादा हो गया था कि अंग्रेज सैनिकों की कोई भी टुकड़ी इस द्वार में घुसने का साहस नहीं कर पा रही थी।
जाॅन लाॅरेंस नामक एक अंग्रेज जो उस समय पंजाब का कमिश्नर था, उसने तत्कालीन गवर्नर-जनरल, लाॅर्ड कैनिंग को एक पत्र लिख कर बताया था कि, ‘‘दिल्ली के पूरब और दक्षिण के द्वारों को बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह की मजबूत सेनाओं द्वारा संरक्षित किया गया है और उसकी सैन्य ताकत के कारण यह संभावना नहीं है कि हम इस दीवार को तोड़ सकते हैं। लिहाजा जब तक हम चीन या इंग्लैंड से अपने और अधिक सैनिकों को यहां नहीं बुला लेते तब तक हम जित नहीं पायेंगे।”
और फिर वही हुआ जिसका डर था। 14 सितंबर, सन 1857 को अंग्रेजों ने दिल्ली पर पश्चिम दिशा से एक बड़ा हमला बोल दिया और कश्मीरी गेट के सुरक्षा चक्र को तोड़ कर दिल्ली में प्रवेश कर गए। लंबे समय तक की गई घेराबंदी और लगातार चलने वाली भीषण लड़ाई के बाद, अंग्रेजों ने 21 सितंबर को दिल्ली पर नियंत्रण कर लिया। जबकि इसके पहले राजा नाहर सिंह की सेनाएं अंग्रेजी सेनाओं के हर प्रकार के हमलों को विफल करती रहीं और लगातार 120 दिनों तक दिल्ली की सीमाओं को सुरक्षित रखने में कामयाब रही थी।
इस बीच बहादुर शाह जफर, लाल किले से भाग कर लगभग 8 किलोमीटर दूर हुमायूं के मकबरे में शरण ले चुके थे। राजा नाहर सिंह ने बहादुर शाह जफर को हुमायूं के मकबरे से सुरक्षित बल्लभगढ़ लाने के लिए कई बार कोशिशें की। लेकिन, बताया जाता है कि बहादुर शाह जफर के साथ मिर्जा इलाही बख्श नामक एक रिश्तेदार भी था जिसने बहादुर शाह जफर को धोखा दे दिया और अंग्रेजों का साथ देकर उनको गिरफ्तार करवा दिया।
बहादुर शाह जफर के गिरफ्तार होने के बाद राजा नाहर सिंह की शक्ति भी कमजोर हो चुकी थी। लेकिन, उसके बावजूद भी अंग्रेजी सेना सीधे तौर पर राजा नाहर सिंह से मुकाबला करने में डर रही थी। ऐसे में हडोन नाम का एक ब्रिटिश जनरल जो पिछली कुछ मुठभेड़ों में राजा नाहर सिंह की ताकत और हौंसले को पहचान चुका था उसने एक षड्यंत्र रचा। उस षड्यंत्र के तहत वह सफेद झंडे के साथ बल्लभगढ़ गया और वहां उसने शांति वार्ता का झांसा देकर राजा नाहर सिंह को मनाने का प्रयास किया।
राजा नाहर सिंह अंग्रेजों के झांसे में आ गये और उन्होंने उस अंग्रेज अधिकारी की बातों पर भरोसा कर लिया। दरअसल, अंग्रेजों ने उनसे कहा था कि हम आपकी मौजूदगी में बहादुरशाह जफर से संधि करना चाहते हैं। राजा नाहर सिंह अपने 500 घुड़सवारों और टुकड़ियों के साथ अंग्रेजों के साथ शांतिवार्ता के लिए दिल्ली रवाना हो गए। और जैसे ही राजा नाहर सिंह ने लाल किले में प्रवेश किया, अंग्रेजी सेनाओं ने धोखे से उनको घेर कर गिरफ्तार कर लिया।
राजा नाहर सिंह को गिरफ्त में लेने के बाद उस ब्रिटिश जनरल हडोन ने राजा नाहर सिंह को कहा कि उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य से माफी मांगनी पड़ेगी। लेकिन, राजा नाहर सिंह ने निडर होकर एक सच्चे देशभक्त और बहादूर योद्धा की तरह उन अंग्रेजों के आगे माफी मांगने से इनकार कर दिया। उसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने राजा नाहर सिंह पर अंग्रेजों की हत्या और सरकारी खजाने को लूटने का आरोप लगा कर उन्हें दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा सुना डाली। और 9 जनवरी, सन 1858 को 36 वर्ष की युवा अवस्था में राजा नाहर सिंह को चांदनी चैक में फांसी दे दी। उनके साथ उनके दो अन्य साथी भूरा सिंह और गुलाब सिंह सैनी को भी फांसी की सजा दे दी गई।
जिस स्थान पर राजा नाहर सिंह को फांसी की सजा दी गई थी आज के दौर में उस पवित्र स्थान का दुर्भाग्य यह है कि आज भी लाल किले के ठीक सामने चांदनी चैक में उस स्थान को सरेआम अपमानित होते और उसकी दुर्गती होते देखा जा सकता है।
हालांकि, अब उनकी याद और उनके ऐतिहासिक तथ्यों या उनके वजूद के नाम पर राजा नाहर सिंह महल के नाम से बल्लभगढ के सैक्टर 4 में मात्र एक महल ही खड़ा है। और राजा नाहर सिंह के नाम का अस्तित्व भी तभी तक बचा हुआ है जब तक वह महल वहां खड़ा है। हालांकि, इस महल को देखने के लिए बहुत ही कम लोग वहां जा पाते हैं। लेकिन, जो लोग वहां तक जाते हैं उन्हें भी ठीक से यह नहीं मालूम कि राजा नाहर सिंह का वास्तविक इतिहास क्या था?
अगर कोई यह महल देखना चाहता है तो उसके लिए हम बता दें कि देश की राजधानी दिल्ली के करीब होने के कारण यहां तक आने के लिए लगभग हर प्रकार के साधन आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। यहां का सबसे नजदिकी मेट्रो स्टेशन भी राजा नाहर सिंह के नाम से ही बनाया गया है। जबकि दिल्ली के हजरत निजामउद्दीन रेलवे स्टेशन से इसकी दूरी लगभग 28 किलोमीटर है। फरीदाबाद का रेलवे स्टेशन भी यहां से लगभग 11 किलोमीटर दूर है और अगर आप सूरजकुंड भी घूमने जात हैं तो वहां से भी इसकी दूरी लगभग 16 किलोमीटर है।