भले ही आज दुनिया के तमाम धर्म अपने मार्ग से भटक गये हैं और रचनात्मकता को त्याग कर विध्वंसात्मक गतिविधियों को अपना कर अपना ही सत्यानाश करने पर उतारू हो चुके हैं लेकिन, आज भी हमारी सनातन जीवन पद्धति अपनी उस मुक्तिपथ को भूली नहीं है और संपूर्ण जीवन चक्र की ओर ही अग्रसर है।
सनातन धर्म में कभी भी भौतिक जगत में लिप्त होकर वैभव को सर्वोपरी मान कर जीवन जीना सही नहीं माना गया है। सनातन धर्म का तो मानना है कि हमारी लिप्तता मात्र भौतिक जगत में ही नहीं बल्कि अपनी जीवन पद्धति और आहारचर्या को प्रकृति और योग से जोड़कर जीने की कला को अपना चाहिए। हमें अपनी शक्ति-सामथ्र्य का सदुपयोग आत्ममोत्थान और समाजसेवा में करना चाहिए।
सनातन जीवन पद्धति हमारे तन-मन को निर्मल कर देती है। बस, इस पद्धति को अपनाने की आवश्यकता है। हमें स्थूल जगत का नहीं वरन चेतना का जीवन जीना चाहिए।
जीवन यदि अनमोल है तो स्वयं के द्वारा इसकी कीमत पहचान कर समाज को भी इसके लिए उजागर करना चाहिए। इस धरती पर अनेकों धर्म आये और चले गये मगर सनातन ही एक मात्र वह पद्धति है जो आदिकाल से जस का तस बना हुआ है। इसका कारण यही है कि इस धर्म ने आपके अन्दर की अलौकिक क्षमताओं को पहचान लिया हैं।
क्यों हो रहा है नाश ?
इस संसार के समस्त लोगों को अपने-अपने धर्मों में तरह-तरह से संस्कारवान, धर्मवान तथा कर्मवान बनाया जाता है लेकिन, प्रकृति के प्रति लगाव और प्रेम से संबंधित जीवन पद्धति के विषय में कभी नहीं सिखाया जाता। जबकि सनातन में न सिर्फ अपने बल्कि संपूर्ण जगत की भलाई की कामना को सर्वोपरि मान कर ही शिक्षा दी जाती है।
हमारे वैदिक ग्रंथों में सर्वेभवंतु सुखिनः जैसी शिक्षा दी जाती है। लेकिन, आज जिस परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी है और प्रकृति का नाश किया जा रहा है उससे तो यही लग रहा है कि यदि इस धरती पर सनातन जीवन पद्धति नहीं होती तो इस धरती पर से कब की मानव सभ्यता समाप्त हो चुकी होती।
सनातन जीवन पद्धति का प्रकृति प्रेम या लक्ष्य किसी राष्ट्र या देश की सीमाओं तक ही सिमित नहीं होता बल्कि संपूर्ण विश्व और संपूर्ण मानव जीवन के हित के लिए होता है।
क्या है सनातन का लक्ष्य ?
सनातन जीवन पद्धति या धर्म का लक्ष्य आदि काल से अनीति-अन्याय और अधर्म को मिटाकर संपूर्ण मानव जाति के लिए सत्यधर्म की स्थापना करना ही रहा है। हमारे अनेकों ऋषि-मुनियों ने तभी तो मानव जाति के हीत में अनेकों वर्षों तक कठीन तपस्यायें कर के आने वाले समय और काल को समय-समय पर उजागर किया और बचाया है।
सनातन धर्म के अलावा अन्य जितने भी धर्मों के धर्मगुरु रहे हैं उन्होंने कभी भी इस प्रकार का तप या त्याग नहीं किया बल्कि अपनी भोग और विलास की जिंदगी को ही सर्वोपरि मानकर शिक्षाएं दीं और अपने अनुयायियों को भी प्रेरित किया।
आज भी हमारे कई साधू-संत ऐसे हैं जो दूसरे धर्मगुरुओं की तरह आराम का जीवन नहीं जीना चाहते बल्कि समाज कल्याण के लिए अपने शरीर को तपा रहे हैं। सनातन धर्म ही एक मात्र ऐसी धर्म है जो सीधे-सीधे परमसत्ता से जुड़ा हुआ है।
सनातन जीवन पद्धति का लक्ष्य रचनात्मक था और आज भी है, विध्वंसात्मक न कभी था और ना ही आगे भी कभी होगा। जीवन पद्धति में इस संपूर्ण धरती को मां कहा गया है क्यों कि यह में एक जन्म देने वाली माता की भांति ही अन्न और जल देती है। हम इस धरती पर पैदा हुए हैं। यहीं पर हमें शिक्षा भी मिलती है।
क्या है धर्मगुरुओं के कर्तव्य ?
वर्तमान दौर में संपूर्ण दुनिया की राजीतिक, आर्थिक और सामाजिक भेदभावों से भी स्थितियां दर्शा रही हैं कि इस दुर्दशा के लिए अधर्मी-अन्यायी और बेईमान राजनेता ही जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि ऐसे तमाम धर्मगुरु भी इसके लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं जिन्होंने ईमानदारी से अपना कर्तव्य नहीं निभाया और अपने-अपने धर्मगं्रथों की ही दुर्दशा करवा कर उनमें से अशिक्षा को ही शिक्षा के रूप में पेश कर दिया।
हमारा वैदिक युग कोई साधारण युग नहीं था। इसमें संपूर्ण जीवन पद्धति, जीवन जीने की कला, प्रकृति, अध्यात्म, परमसत्ता से सीधे संवाद, पूजा-पाठ के माध्यम से प्रकृति के नुकसान की क्षतिपूर्ति की संपूर्ण शिक्षा थी और उसपर अमल भी होता था। वैदिक युग में न सिर्फ मानव जीवन बल्कि वायुमंडल और संपूर्ण पशु-पक्षी जगत को भी इसमें भागीदार बना हुआ था।
तमाम धर्मों के लोग यदि आज भी ईमानदारी से हमारी उस वैदिक शिक्षा को अपनाकर उस पर काम करने लग जायें तो आज हर घर, हर समाज, हर राष्ट्र और इस संपूर्ण संसार में एक बार फिर से शांति और विश्वास का वही दौर लौट कर आ सकता है जैसा कि वैदिक युग में हुआ करता था।
– अमृति देवी