इतिहासकारों के साथ-साथ विज्ञान ने भी इस बात को साबित किया है कि जिस समय भारती लोग विकसित जीवन जी रहे थे उन दिनों बाकी दुनिया में लोगों को घर बनाने और नगर बसाने की कला भी नहीं आती थी। लेकिन, आज हमारी समस्या यह है कि इस बात को हम ठीक प्रकार से किसी दूसरे को ना तो समझा पाते हैं और ना ही हम उसको तथ्यों के साथ सबके सामने रख पाते हैं। अगर किसी को उदाहरण के तोर पर समझाया जा य तो सबसे आसान सी बात है कि त्रेता युग में भगवान राम के समय में न सिर्फ रथों का प्रयोग किया जाता था और उनकी सवारियां की जाती थी बल्कि पुष्पक विमान तक भी प्रयोग में लाया जाता था।
इसका मतलब तो यही हुआ कि हजारों वर्ष पहले भी भारत में ना सिर्फ पहिया घुमता था बल्कि विमान भी उड़ते थे। और अगर उसी हजारों वर्ष पूर्व के विज्ञान और मानव सभ्यता के विषय में यूरोप के देशों की बात करें तो पता चलता है कि उसके बारे में तो हमें लगभग न के बाराबर का इतिहास मिलता है। अर्थात उस दौर में यानी कि त्रेता युग में यूरोपीय क्षेत्रों में मानव जीवन का ही कोई अस्तीत्व नहीं था। और अगर मानव जीवन का अस्तीत्व रहा भी होगा, तब भी वह इतना विकसित नहीं था जितना की भारतीय उप महाद्वीप में हुआ करता था। एक प्रकार से हम यह बात मान सकते हैं।
जिस काल में या जिस दौर में भारत को एक आदर्श के तौर पर आधुनिक युग में दुनिया के सामने अपने आप को एक मिसाल के तौर पर पेश होना चाहिए था उस समय या यूं कहें कि उन वर्षों के दौरान यहां, यानी भारत पर एक ऐसी काली छाया का प्रभाव पड़ता जा रहा था जिसके कारण भारत का ना सिर्फ नैतिक और राजनैतिक इतिहास बदला बल्कि आर्थिक रूप से भी कमजोर होता गया और इसका भौगोलिक इतिहास तक भी बदलता गया और कई हिस्सों में बंट गया। बदकिस्मती तो यह है कि वह काली छाया आज भी भारत के ऊपर लगभग वैसी की वैसी ही मंडरा रही है।
हालांकि, यहां यह बात एक दम सच है कि अगर वह काली छाया भारत पर नहीं पड़ती तो आज भारत की यह स्थिति नहीं होती। क्योंकि, आज से लगभग 1300 वर्ष पहले तक भारत अपने जिस सुनहरे दौर से गुजर रहा था और सोने की चीढ़िया के रूप में दुनियाभर में आंखों का तारा बना हुआ था, वह दौर अगर आज भी जारी रहता तो संभव था कि आज संपूर्ण दुनिया भारत की मुट्ठी में होती।
दरअसल, यहां हम जिस काली छाया की बात कर रहे हैं वह है लगभग 1300 साल पहले के उस दौर की जिस दौर में भारत पर कई विदेशी आक्रमणकारियों ने लूटपाट की मंशा से आक्रमण किए और उनमें भी सबसे अधिक मुगल आक्रांताओं के रूप में कई प्रकार के घृणित कार्य किए और भारत में हर प्रकार से बेतहाशा लूटपाट का नंगा खेल खेला।
हमारे सामने इस बात के सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों ऐसे उदाहरण हैं जिनमें स्पष्ट रूप से देखने को मिल जाता है कि मुगलों ने किस प्रकार से भारत को लूटा और उस लूट के माल को भारत से बाहर ले गये।
उदाहरण के तौर पर हमारे पास उस दौर के इतिहास की सैकड़ों प्रामाणिक ऐतिहासिक पुस्तकें उपलब्ध हैं। और ना सिर्फ उस दौर की सैकड़ों प्रामाणिक ऐतिहासिक पुस्तकें उपलब्ध हैं, बल्कि हमारी आंखों के सामने उस दौर के आज भी सैकड़ों या यूं कहें कि हजारों स्पष्ट और साक्षात प्रमाण मौजूद हैं। उन प्रमाणों हम सब बचपन से देखते आ रहे हैं और हमारी अगली पीढ़ियां भी उन्हें देखेंगी।
जी हां हम बात कर रहे हैं हमारी उन धरोहरों की जिनको मुगल आक्रांताओं ने ना सिर्फ लूटने के इरादे से नष्ट किया था बल्कि हमारी परंपरा, हमारे धर्म और हमारी जीवन पद्धति को नष्ट करके यहां इस्लाम का झंडा लहराने की शाजिश के तहत ऐसे-ऐसे घृणित कृत्य किये गये कि आज भी उन घटनाओं को पढ़कर हमारी आत्मा कांप उठती है।
हमारा प्रामाणिक इतिहास बताता है कि किस प्रकार से उन लोगों ने हमारे समृद्ध मंदिरों पर लगातार हमले किये और उनमें लूटपाट की। कितना कीमती सामान वे लोग यहां से लूटकर अपने साथ ले गये और कितनी ही भव्य इमारतों को नष्ट कर दिया। ये भी सच है कि उसके बावजूद वे लोग आज भी बद से बदतर जिंदगी जी रहे हैं और अपनी उन्हीं करतुतों के कारण दुनियाभर में बदनाम भी हैं।
दरअसल, वे खूद भी हैरान होते थे और सोचते थे कि आखिर ऐसी क्या बात है कि इतना लूटने के बाद भी भारत में सोना-चांदी कम नहीं हो रहा है? इसलिए वे धीरे-धीरे भारत के कई राजाओं और राज्यों पर कब्जा कर उनकी सत्ता पर अधिकार जमाने लग गये। और सत्ता पर अधिकार जमाने के लिए उन्हें यहां बसना जरूरी था। जबकि इसी दौरान उनका मजहब यहां भी धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहा था और जड़ें पकड़ रहा था।
दरअसल, उनके मजहब को एक पहचान चाहिए थी, इसलिए उसके अनुयायियों ने किसी भी कीमत पर उसे सत्ता हथियाने और क्रुर से क्रुर तरीकों का इस्तमाल कर अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने और धन की कमी को पूरा करने के लिए भारत के अतिरिक्त कोई और क्षेत्र या देश फायदेमंद नहीं लगे। भारत उन दिनों सोने की चीढ़िया कहलाता था। इसलिए यहां लूटपाट करना और सत्ता को हथियाना उनके लिए बहुत आसान लगने लगा था।
उस दौर में, यानी आज से लगभग 1300 वर्ष पहले तक भारत के लिए और सनातन धर्म के लिए सबसे बड़ी समस्या और सबसे बड़ी बाधा यही थी कि हमारे पूर्वज या यूं कह लें कि सनातन धर्म केे अनुयायी इसे एक जीवन पद्धति के तौर पर ही जी रहे थे। जबकि उधर, पश्चिम की तरफ कई प्रकार की राजनैतिक और धार्मिक उथल-पुथल मची हुई थी।
हालांकि हमारे पूर्वज हर प्रकार से उन गतिविधियों को जानते थे और उस पर नजर भी रखी हुई थी। लेकिन, बावजूद इसके उन्होंने अपनी जीवन पद्धति से हट कर इसमें अपनी आत्मरक्षा के रूप में कुछ नये बदलाव नहीं किये।
सनातन धर्म एक जीवन पद्धति है और इसमें बिना किसी कारण के क्रूर कार्य करना, लूट-पाट करना, हत्या करना और बिना किसी कारण किसी के साथ अत्याचार करने जैसी कोई शिक्षा और अनैतिकता का कोई स्थान नहीं था और ना ही आज तक भी है। देखा जाये तो आज भी सनातन धर्म अपनी उसी परंपरागत पद्धति का पालन कर रहा है और उन्हीं नियमों के अनुसार चल रहा है और यही सनातन की एक सबसे बड़ी कमजोरी रही है कि वह हर किसी को क्षमा करने की प्रवृत्ति पाले बैठा है, जबकि अन्य समुदाय और मजहब इसी का फायदा उठा कर हम पर बार बार आक्रमण करते रहे और आज भी हमारे पतन का कारण बन रहा है।
इसे भी पढ़े: कितना पुराना है हमारा देश | Ancient History of India
संभवतः यही सबसे बड़ा और सबसे खास कारण रहा है कि आज से 1300 वर्ष पहले जो अत्याचार और आक्रमण हमारी संस्कृति पर हुए और हमारी भूमि पर हुए। आज हम जिस प्रकार का अपमान और हताशा को जी रहे हैं या झेल रहे हैं यह वही कारण है। बावजूद हमारी नेतृत्व क्षमता इस बात को समझने को तैयार नहीं है और सदैव भ्रम की स्थिति पाले रहती है और विशेष समुदायों पर शत-प्रतिशत भरोसा करने लगते हैं।
आज भी सनातन धर्म के ऊपर और खास कर भारत के ऊपर उसी काली छाया ने अपने फन फैला कर रखे हुए हैं और इसको एक सीमित दायरे में बांध कर रख दिया। आज भी वह मजहब एक विशेष अवसर की तलाश में बैठा है और यही वे कारण थे कि पहले भी इस्लाम भारत की सनातन संस्कृति पर भारी पड़ने लगा और उसके बाद क्रिश्चियनिटी ने भी हमारा भरपूर शोषण किया। यह समस्या भारत के साथ आज से 1300 साल पहले भी थी और आज भी लगभग वैसी ही है।
हालांकि, ऐसा नहीं था कि उस दौर में हमारा धर्म किसी भी आक्रांता को जवाब नहीं दे सकता था या उसका समूल नाश नहीं कर सकता था। लेकिन, उस दौर की जो एक सबसे बड़ी और सबसे घातक कमजोरी रही उसका आभास आज भी हमें खलता है वह यह कि हमारी सनातन और परंपरागत जीवन पद्धति मात्र आत्मरक्षा के तौर पर ही कार्य कर रही थी।
यदि 1300 वर्ष पहले हमारी वह जीवन पद्धति या यूं कहें कि हमारा सनातन धर्म अपनी जीवन पद्धति में आवश्यकता के अनुसार थोड़ा-सा भी बदलाव कर लिया होता और उन आक्रांताओं को मुंहतोड़ बवाब देकर, उनके घर में घूस कर उनको समूल नष्ट कर दिया होता तो संभव है कि आज हमारे सामने यह काली छाया उत्पन्न ही नहीं होती।
भले ही हमारा सनातन धर्म एक जीवन पद्धति है और इसमें बिना किसी कारण के क्रूर कार्य करना, लूट-पाट करना, हत्या करना और बिना किसी कारण किसी के साथ अत्याचार करने जैसी कोई शिक्षा और अनैतिकता का कोई स्थान नहीं था और न ही आज तक भी है। लेकिन, क्या आवश्यकता के अनुसार इसमें बदलाव नहीं किया जाना चाहिए था? क्या आज भी हम उसी पद्धति को अपनाते रहें जिससे हमें नुकसान ही नुकसान होते रहे। आने वाला समय क्रूरता से भरा और शक्तिप्रदर्शन का ही रहने वाला है। ऐसे में हमारी प्राचीन सनातन पद्धति में भी बदलाव की आवश्यकता है।
क्या सनातन धर्म के अनुयायी आज भी इस बात को नहीं समझ पाये कि यदि जीवित रहना है तो आत्मरक्षा तो करना ही होगा? यदि हमारे प्रत्येक देवी और देवताओं के हाथों में घातक हथियार थे तो इसका मतलब तो यही है कि उन्हें भी हथियार उठाने पड़े थे। तो क्या आज भी हम मात्र यही सोचकर रह जायें कि एक बार फिर से कोई न कोई विष्णु का अवतार या फिर किसी देवी का अवतार होगा और इस भारत भूमि से ही नहीं बल्कि इस संपूर्ण धरती से फिर से अत्याचारों और अत्याचारियों को समाप्त कर देगा?
ये भी सच है कि आज 1300 वर्ष पहले की भांति हथियार उठाकर यह लड़ाई लड़ने की आवश्यकता नहीं है और ना ही सीमाओं पर जाकर हर किसी सनातनी को खड़ा होना है। आवश्यकता तो इस बात की है कि अपने अंदर की उन विशेष शक्तियों और विचारों को एक बार फिर से जागृत करना होगा जिनसे हम अपने भविष्य को और मात्र उतनी ही सीमाओं को सुरक्षित रख सकें जिनमें हमें सनातन को जीवित रखना है। आज हमें संपूर्ण संसार की नहीं, संपूर्ण मानवता की नहीं बल्कि खुद को जीवित रखने की आवश्यकता है।
– मनीषा परिहार, भोपाल