अजय सिंह चौहान || हमारे मनीषियों ने वर्ष में दो बार नवरात्रों को मनाने का विधान बनाया है। जिसमें से विक्रम संवत के पहले दिन से, यानी चैत्र मास में मनाई जाने वाली नवरात्र को चैत्र नवरात्र कहा जाता है। चैत्र नवरात्र, चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा यानी पहली तिथि से प्रारंभ होकर अगले नौ दिनों तक यानी नवमी तक मनाया जाता है। इसलिए इसे चैत्र नवरात्र कहा जाता है।
इसी प्रकार इसके ठीक छह महीनों बाद यानी आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ होकर महानवमी अर्थात विजयादशमी के एक दिन पूर्व तक मनाये जाने वाले नवरात्र को आश्विन नवरात्र कहा जाता है। और क्योंकि इस नवरात्र के बाद शरद ऋतु का आगमन हो जाता है इसलिए इसे विशेष शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है। इन दोनों ही नवरात्र के अवसरों पर मां दुर्गा के नौ अलग-अलग रूपों की पूजा आराधना की जाती है।
वर्ष में दो बार क्यों नवरात्र –
आज के दौर में हमारे लिए भले ही यह एक परंपरा और उत्सव मात्र बन कर रह गया है। लेकिन, इन दोनों ही नवरात्र पर्वों का अपना विशेष महत्व है। जिसमें शारदीय नवरात्रों का सिद्धि और साधना की दृष्टि से थोड़ा ज्यादा महत्व माना जाता है। शारदीय नवरात्रों के अवसर पर लोग अपनी आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक शक्तियों का संचय करने के लिए विभिन्न प्रकार से यज्ञ, भजन, पूजन, व्रत, संयम, नियम, और योग साधनाएं करते हैं।
नवरात्रों की नौ रात्रियों में सभी सिद्ध पीठों और शक्ति पीठों पर, भक्तगण उमंग और उत्साह से शक्ति की उपासना के लिए एकत्रित होते हैं और उत्सव के रूप में मनाते हैं। लेकिन, जो उपासक इन शक्ति पीठों पर नहीं भी पहुंच पाते, वे अपने आस-पास या निवास स्थल पर ही आदि शक्ति का आह्वान करते हैं।
क्या है नवरात्र –
नवरात्र के ये दोनों ही अवसर माता की आराधना के लिए जितने उत्तम माने जाते हैं उतने ही प्राकृतिक तौर पर भी वैज्ञानिक दृष्टि से महत्व के होते हैं। क्योंकि, इसके आध्यात्मिक, मानसिक और वैज्ञानिक तर्क और रहस्य के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही प्रकृति के वैज्ञानिक रहस्यों को समझ लिया था इसीलिए तो उन्होंने इन विशेष नौ दिनों को आदिशक्ति की उपासना और नौ रात्रियों को सिद्धि के प्रतीक के रूप में माना और पूजन तथा जप के लिए चुना।
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दिन में क्यों नहीं होती आराधना –
हालांकि, वर्तमान दौर के अधिकांश उपासक रात्रि में शक्ति की पूजा करने की बजाय दिन में ही पुरोहितों को बुलाकर पूजा-पाठ संपन्न करा देते हैं। इनमें न सिर्फ सामान्य भक्त बल्कि, अब तो कई साधु-महात्मा और ज्ञानी पंडित भी नवरात्रों की इन नौ रातों में रातभर जागना नहीं चाहते। हालांकि, आज भी कई उपासक विशेष रूप से रात को ही माता की उपासना करते हैं। लेकिन, अब ऐसे बहुत ही कम उपासक अपने आलस्य को त्याग कर आत्मशक्ति, मानसिक शक्ति और यौगिक शक्ति की प्राप्ति के लिए रात्रि के समय का उपयोग करते देखे और सूने जाते हैं।
क्या है वैज्ञानिक आधार –
खास तौर से नवरात्र के अवसर पर की जाने वाली देवी की आराधाना को हमारे सभी ऋषि-मुनियों ने दिनों की बजाय रात्रि में करने के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता और वैज्ञानिकता के आधार पर समझने और समझाने का सरलता से प्रयास किया है। ऋषि-मुनियों का कहना है कि रात्रि के समय में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं। इसीलिए मंदिरों या पूजास्थलों में बजने वाले घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर-दूर तक का वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है।
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ऋषि-मुनियों का मत –
हमारे ऋषि-मुनियों ने यह हजारों पहले ही बता दिया था कि पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के लिए एक वर्ष की चार संधियां होती हैं यानी चार प्रकार के ऋतु परिवर्तन या मौसम के बदलाव होते हैं। उन परिवर्तनों को अगर हम अंग्रेजी के महीनों के अनुसार माने तो उनमें मार्च और सितंबर के माहीनों में पड़ने वाली दो मुख्य संधियों में नवरात्र आते हैं। और इन्हीं दो प्रमुख संधियों के समय में रोगाणुओं के द्वारा प्रकृति और मानव जाति पर आक्रमण की सर्वाधिक संभावना भी होती है। इन्ही दो ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक और मानसिक बीमारियाँ अधिक बढ़ती हुई देखी जाती हैं, अतः इस काल में ना सिर्फ शरीर को शुद्ध रखने के लिए, बल्कि, मानसिक तथा आध्यात्मिक रूप से भी निर्मल और पवित्र रहने के लिए ‘नवरात्र’ रूपी प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।
आधुनिक विज्ञान और नवरात्र –
आधुनिक विज्ञान भी इस बात से सहमत है कि दिन में आवाज दी जाए तो वह दूर तक नहीं जाएगी, लेकिन, वही आवाज रात्रि के समय में बहुत दूर तक जाती है। आधुनिक विज्ञान के तथ्य बताते हैं कि इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा सूर्य की किरणें भी आवाज की उन तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं। इसका मतलब तो यही हुआ कि आज से हजारों वर्ष पहले ही हमारे ऋषि-मुनि प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे।
इसी तरह रात के समय की जाने वाली विशेष आराधना के मंत्रों का ऊच्चारण सीधे वायुमंडल में प्रवेश करते हुए देवी तथा देवताओं तक पहुंच जाते हैं और संपूर्ण प्रकृति सहीत मानव जाति को भी लाभ पहुंचाते हैं। इसका एक सीधा और सरल उदाहरण देखें तो हमारे दैनिक जीवन में की जाने वाली संध्या आरती या संध्या वंदना की भी यही वैज्ञानिकता है।
एक अन्य उदाहरण के तौर पर देखें तो पता चलता है कि कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन के समय में साफ-साफ सुनना मुश्किल होता है, लेकिन, सूर्यास्त के बाद उन्हीं कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को हम आसानी से सुन लेते हैं। यानी, आधुनिक विज्ञान भी आज इस बात से पूरी तरह से सहमत है।
आराधना में शंखनाद का रहस्य –
यही मंदिरों में बजने वाले घंटे और शंख की आवाज का भी वैज्ञानिक रहस्य है। इसी वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए उन विशेष नौ रात्रियों में संकल्प और ऊच्च अवधारणा के साथ अपने शक्तिशाली विचार और मंत्रों की ध्वनि तरंगों को हम वायुमंडल में इस उद्देश्य के साथ भेजते हैं कि हमारी कार्यसिद्धि और मनोकामना के सभी शुभ संकल्प सफल हों और हमारा मानसिक तथा आध्यात्मिक संपर्क उस आदिशक्ति से और उन देवीय शक्तियों से सीधा हो सके।
खास तौर से बड़े-बड़े महानगरों और अन्य स्थानों पर कुछ विशेष अवसरों पर कुछ परिवारों या मंडलियों के द्वारा किये जाने वाले माता के उन जागरणों में भले ही अब आस्था और आध्यात्मिकता का अनुसरण नहीं किया जाता, लेकिन, उन जागरणों का रात में आयोजन किया जाना भी यही दर्शाता है कि माता की आराधना के लिए रात का समय ही सही समय होता है।