अजय सिंह चौहान || कुछ दिनों पहले मैंने सूना कि हिमालय की एकांत और दुर्गम कंदराओं या गुफाओं में आज भी कई ऐसे साधु-सन्यासी तपस्या में लीन हैं जो मात्र 10-20 साल या 40-50 सालों से नहीं बल्कि सैकड़ों-हजारों सालों लगातार तप करते आ रहे हैं। हम सब ये बात तो जानते हैं कि हिमालय के तमाम क्षेत्रों कई साधु-सन्यासी तपस्या में लीन रहते हैं।
लेकिन, जब मैंने सूना कि कुछ साधू ऐसे भी हैं जो सैकड़ों-हजारों सालों से वहां आज भी जीवित हैं तो मुझे बिल्कुल भी विश्वास नहीं हुआ। बस फिर क्या। मैंने अपने स्तर पर इस बारे में तमाम तरह से खोज शुरू कर दी। इंटरनेट पर कई इंटरव्यू देखे, पढ़े, सूने और उनका अध्ययन किया।
हो सकता है कि कई लोगों ने भी इस बारे में बहुत कुछ सूना हो। ये भी हो सकता है कि कई लोग शायद मुझसे भी ज्यादा जानकारी रखते हों या फिर मेरी इन बातों पर बिल्कुल भी विश्वास ना करें। लेकिन, इस बारे में मैं यही कहूंगा कि इसमें न तो मैं अपने विचार बता रहा हूं और ना ही कोई मनगढ़ंत किस्से या कहानियां। मैंने अपने स्तर पर उन सभी प्रकार की जानकारियों को कम से कम शब्दों में समेटने का प्रयास किया है जो-जो भी मेरे हाथ लगी, और उनसे जो निष्कर्ष निकला उसको मैं यहां एक या दो भागों में नहीं बल्कि फिलहाल कुल सात या आठ भागों में बांट कर पेश करने का प्रयास कर रहा हूं। जिसमें से ये उसका पहला भाग हैः –
असल में, आज की ये जानकारी एक वास्तविक घटना पर आधारित है जो वर्ष 1942 में घटित हुई थी। और क्योंकि 1942 के समय भारत में अंग्रेजों का कब्जा था इसलिए उन दिनों मिस्टर एल.पी. फैरेल नामक व्यक्ति भारत में पश्चिमी कमान के एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी थे। वे भारतीय धर्म और दर्शन में इतनी दिलचस्पी लेने लगे थे कि उन्होंने भारत में आने के बाद सबसे पहले शुद्ध शाकाहारी दिनचर्या को अपना लिया था।
जब मिस्टर एल.पी. फैरेल की इस दिलचस्पी के बारे में कुमाऊं के उस समय के राजा ने सूना तो मिस्टर फैरेल को उन्होंने अपने राज्य की कुछ विशेष पहाड़ियों की सैर के लिए आमंत्रित किया। मिस्टर एल.पी. फैरेल ने तुरंत ही आमंत्रण को स्वीकार भी कर लिया।
कुमाऊं के राजा के साथ की गई उन विशेष पहाड़ियों की उस यात्रा के दौरान मिस्टर फैरेल को अनुभव हुआ उसे उन्होंने न सिर्फ सबके साथ बांटा, बल्कि उस अनुभव को सरकारी रिकाॅर्ड में भी दर्ज किया गया।
उस घटना और उसके अनुभवों के कुछ दिनों बाद, मिस्टर एल.पी. फैरेल के द्वारा वहां अपने साथ घटित उस विशेष घटना का जिक्र 17 मई, 1959 के सप्तहिक हिन्दुस्तान की हिन्दी पत्रिका में प्रकाशित भी किया गया जो इस प्रकार से है –
मेरा, यानी एल.पी. फैरेल और कुमाऊं के राजा और रानी का कैंप नैनीताल के पास प्राकृतिक सौंदर्य से भरी एक पहाड़ी पर लगा हुआ था। इस पहाड़ी के सौंदर्य ने मुझे इतना मंत्रमुग्ध कर दिया कि हमने वहीं डेरा डाल कर रात बिताने का फैसला कर लिया। कुछ देर बाद वहां दर्जनों टेंट खड़े हो गये। इसके बाद वो एकांत जगह हमारे सेवकों की कोलाहल और हलचल से भर गयी।
आधी रात तक गपशप और खान-पान चलता रहा। फिर सभी लोग बिस्तर पर चले गए और पूरे दिन की थकान के कारण, तुरंत गहरी नींद में सो गए। नींद का पहला चरण शायद ही खत्म हुआ था जब मैंने महसूस किया कि मेरी खाट के पास कोई है।
मैं जाग गया और स्पष्ट रूप से सुना- “हमें उस स्थान की आवश्यकता है जहां आप लोगों के टेंट लगे हुए हैं। आप इस जगह को खाली कर दें। यदि आप मेरी बात को समझ नहीं पा रहे हो, तो आप अपने सामने उस उत्तर-पश्चिमी पहाड़ी पर आ जाइए। मैं तुम्हें सब कुछ समझा दूंगा।”
‘लेकिन आप हैं कौन?’ – यह कहते हुए मैं बिस्तर से उठा और अपनी मशाल जलाई। लेकिन वहां कोई नहीं था। मैं, अपने डेरे से बाहर आ गया, लेकिन वहाँ भी किसी को नहीं देखा जा सका और न ही किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। एक क्षणभर के डर के बाद मैं सामान्य हो गया और सोने के लिए फिर से अपने बिस्तर के पास गया। मेरी घड़ी के अनुसार यह सुबह करीब 3.30 का समय था।
इसके बाद काफी कोशिश करने के बावजूद भी मैं सो नहीं सका। किसी तरह मैं अपनी आँखें बंद रखे हुए था। तभी एक बार फिर से मैंने किसी की उपस्थिति महसूस की। बिस्तर पर लेटे-लेटे हुए मैंने आँखें खोलीं तो देखा कि एक व्यक्ति की छाया मेरे सामने खड़ी है। इस बार फिर उसने वही शब्द बोले। उस व्यक्ति की पहचान करने के लिए, जैसे ही मैंने मशाल जलाई, वह वहां से फिर गायब हो गया, उसकी परछाई भी वहां नहीं थी। अब तो मेरा शरीर थरथराने लगा और पसीना भी आने लगा।
मेरे जैसा सेना का अधिकारी, जो कभी युद्ध में भयानक रक्तपात को देखकर भी भयभीत नहीं हुआ था, क्षण भर में अलौकिक हो गया और अलौकिक होने की कल्पना मात्र से एक गूंगे की भांति हो गया। सुबह तक मैं अपनी आँखें बंद किए बिस्तर में लेटे रहा, लेकिन इसके बाद मैंने उस आवाज को नहीं सुना।
इस घटना के बाद, मेरे भीतर एक अजीब सी मनः स्थिति उत्पन्न हो गई थी। उस अलौकिक आत्मा द्वारा बताई गई उत्तर-पश्चिम की उस पहाड़ी पर हिल रहे कुछ छायादार वृक्षों को मैं देखे जा रहे था। मैंने अपने कपड़े और जूते पहने, तम्बू से बाहर आया और चुपचाप उस पहाड़ी की ओर चल दिया।
इस घटना के बारे में मिस्टर एल.पी. फैरेल स्वयं बताते हैं कि, जिस स्थान पर मुझे पहुँचने का निर्देश दिया गया था, वह रास्ता बहुत ही कठिन, संकरा और खतरनाक था। मैं अपने आप से ऊपर चढ़ने में सक्षम नहीं था लेकिन मुझे लगातार ऐसा महसूस हो रहा था कि कोई मुझे रास्ता दिखा रहा है और ऊपर चढ़ने की ऊर्जा भी प्रदान कर रहा है।
साढ़े तीन घंटे के कठिन प्रयास के बाद मैं ऊपर चढ़ सका। भारी सांस और पसीने के कारण आगे जाना मुश्किल लग रहा था। तब मैं वहां एक पत्थर पर बैठ गया और कुछ आराम करने के लिए उस पर लेट गया। मुश्किल से दो मिनट बीते थे कि उसी आवाज ने मुझे जगाया। मिस्टर फैरेल! अब तुम अपने जूते उतार दो और धीरे से पत्थर पर चढ़ जाओ और मेरे पास आओ।
कानों में इन शब्दों के साथ, मैंने चारों ओर देखा और देखा कि एक संत, बहुत कमजोर शरीर वाला लेकिन माथे पर शानदार भव्यता के साथ, मेरे सामने खड़ा था। किसी परिचित की बात तो छोड़ ही दें, मैं तो उससे पहले कभी मिला तक नहीं था और ना ही पहले कभी देखा था। तो फिर भला वो मेरा नाम कैसे जान सकता था?
अगर वह संत यहाँ है, तो फिर रात में उसकी छाया मेरे तम्बू में कैसे पहुँची? हमारे बीच कोई रेडियो या माइक्रोफोन आदि जैसे संचार लिंक भी नहीं थे। फिर उसकी आवाज मुझ तक कैसे पहुँच सकती थी? इस तरह के कई सवाल मेरे मन में उठे। मेरे तमाम सवालों के अनसुलझे पड़ाव पर विराम लगाते हुए साधु ने कहा- ”जो कुछ भी तुमने सुना और देखा है, उसे सामान्य मानव मन नहीं समझ सकता। क्योंकि इस उद्देश्य के लिए व्यक्ति को लंबी साधना और योग का अभ्यास करना होता है, सांसारिक सुखों और इंद्रियों के आकर्षण को छोड़ना पड़ता है। लेकिन, क्योंकि, एक विशिष्ट उद्देश्य है इसीलिए इस समय आपको यहाँ बुलाया गया है।”
मैं यह तय नहीं कर सका कि वह संत कोई व्यक्ति था या देवता। मेरे मन में उठ रहे विचारों को उस व्यक्ति द्वारा एक खुली किताब की तरह लगातार पढ़ा जा रहा था।
मैं कुछ ही समय में उस चट्टान पर चढ़ गया और उस स्थान पर पहुँच गया जहाँ अन्य संत भी बैठे थे। वह स्थान इतना छोटा था कि केवल एक व्यक्ति ही वहाँ विश्राम कर सकता था। धूनी में आग जलने के अलावा वहां और कुछ भी नहीं था।
फैरेल आगे लिखते हैं- “साधु ने अपने कमजोर हाथ से मेरी पीठ पर थपथपाया और मैं दंग रह गया कि उस बूढ़े शरीर में बिजली जैसी शक्ति कैसे हो सकती है? मेरा शरीर जो, कि थकावट के कारण दर्द से लगभग टूट रहा था – अब एक फूल की तरह हल्का लग रहा था। उनके प्रति सम्मान के विनम्र इशारे के रूप में मैंने उनके पैर छुए।
मैंने वहां अन्य कई साधुओं को भी देखा था, और महसूस किया कि भारतीय अध्यात्म ओर दर्शन को प्रभावित करने वाले और उसकी गरिमा को बढ़ाने वाले ये साधु और संत, उन लोगों की भांति वे नहीं थे जो सड़कों पर घूम रहे थे, बल्कि वे तो वास्तव में ऐसे ही एकांत को समर्पित व्यक्ति थे। देखने में उनके शरीर का वजन मात्र 35 से 40 किलोग्राम तक हो सकता है, लेकिन उनकी ऊर्जा और शक्ति की तीव्रता हजार बमों से अधिक थी और वे ज्ञान के भंडार थे।”
उस साधु ने मुझसे कहा- “मैंने एक युवा को उस जगह तक पहुँचने के लिए प्रेरित किया है जहाँ इस समय आप के टेंट को खड़ा किया गया है। पिछले जन्म में वह मेरा शिष्य था। लेकिन, उसकी साधना अभी आधी-अधूरी है। अब मैं उसको साधना और सार्वभौमिक कल्याण के लिए, साधना और तपस्या करने के लिए फिर से मार्गदर्शन करना चाहता हूं। लेकिन उसके पिछले जन्म की यादें फिलहाल सुप्त और निष्क्रिय हैं। इस जन्म के प्रभाव और परिस्थितियाँ उसे आकर्षित कर रही हैं। इसलिए वह फिर से उस साधना को करने में या आगे बढ़ाने में असमर्थ है। मैंने आत्म शक्ति और सूक्ष्म प्रेरणा से उसे उस स्थान पर बुलाया है जहां इस समय आप लोगों के तंबू गड़े हुए हैं। यदि वो यहां आता है और मेरेे द्वारा बताइ गई उस जगह का कोलाहल देखकर या पता लगाने में असमर्थ हो जाता है, तो वह भ्रमित हो जाएगा। ऐसे में, जो मैं चाहता हूं, वह संभव नहीं हो सकेगा, इसलिए, कृपया उस स्थान को आप तुरंत खाली कर दें।“
मैंने कहा – “भगवान! कृपया मेरे पिछले जन्म के बारे में भी कुछ बातें बताएं?”
साधु ने जवाब दिया- “मेरे बेटे! ये सिद्धियाँ प्रदर्शन के लिए नहीं होतीं। ये तो कुछ विशेष उद्देश्यों के लिए हैं और यही बेहतर है कि ये केवल उसी के लिए उपयोग की जायें। बेशक, यदि आप चाहें तो आप भी उस समय उपस्थित हो सकते हैं जब मैं उसे उसके पिछले जन्म की घटनाओं को दिखाऊंगा। अब तुम जाओ, क्योंकि शिविर में लोग तुम्हें खोज रहे हैं। मैं भी जल्दी में हूं।”
इसके बाद मैं शिविर में लौट आया। आकर देखा कि शिविर के लोग तो सचमुच ही मुझे खोज रहे थे।
मैंने अपने साथ बिती इस घटना को उसी समय राजा को सुनाया। जिसके बाद उन्होंने भी उस स्थान को छोड़ने पर सहमती जताई और शिविर को वहां से लगभग 200 गज दूर खड़ा कर दिया।
उस दिन की शाम तक एक युवक वास्तव में उस स्थान की खोज में आया था। सभी तरह से संतुष्ट होने के बाद, वह वहीं बैठ गया। इसी बीच मैं भी वहां पहुंच गया। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, उनकी उत्सुकता और अधिक बढ़ती जा रही थी। थोड़ी ही देर में वे साधु भी वहाँ पहुँच गए। मैंने और उस युवक ने उनके पैर छुए और उनके निर्देशों का इंतजार करने लगे। वह स्थान वृक्षों से घिरा था।
अग्नि प्रज्जलित करने के बाद साधु ने पूजा की, कुछ मंत्रों का पाठ किया और हमें एक ध्यान मुद्रा में बैठने के लिए कहा। उस साधु के माथे से निकली प्रकाश की एक अद्भूत किरण से वहां के एक मोटे घने पेड़ के तने पर प्रकाश का एक गोलाकार स्थान बन गया। इसके बाद तो उन्होंने उस गोलाकार स्थान में जो कुछ भी दिखाया, वह वास्तव में एक सिनेमा की तरह ही था।
मैंने उसमें स्पष्ट देखा था कि दर्शाये गये पात्र वास्तव में किसी सिनेमा के पर्दे पर दिखाये जाने वाले पात्रों की भांति ही चलते और बात करते हैं। एक सिनेमा की तरह ही, मैंने भी उस युवा के पिछले जन्म की कुछ घटनाओं को अपनी नग्न आँखों से देखा। इस बीच वह युवा उत्साहित हो जाता था और कहता था – “हां-हां मैंने ऐसा किया था“।
अंत में, उस युवा ने साधु के पैर छुए और कहा “भगवान! अब सांसारिक दुनिया से मेरा लगाव टूट गया है। मैं अपने पिछले जीवन की अधूरी साधना को अपनाने के लिए तैयार हूं। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें, ताकि मैं अधूरे कार्य को पूरा कर सकूं।“
इस पर उस साधु ने कहा – “मेरे बेटे! आज तुम यहाँ विश्राम करो और सुबह होते ही अपने घर लौट जाना। उचित समय पर, मैं तुम्हें बुला लूंगा।”
उसके बाद मुझे तो कभी पता नहीं चल पाया कि उस युवा को साधु ने फिर कब बुलाया होगा? बाद में वह क्या बना और किस नाम से वह लोकप्रिय हुआ? लेकिन, इस घटना के बाद मैं भारतीय धर्म, दर्शन और आध्यात्मिकता का और भी अधिक कट्टर भक्त बन गया।
इसी सीरीज के अगले लेख का लिंक देखें – विदेशियों की नजर में हिमालय के सिद्ध ऋषि-मुनि – भाग #2
मिस्टर फैरेल ने खुद अपने साथ घटित इस इस घटना को 17 मई, 1959 के सप्तहिक हिंदुस्तान नामक हिंदी पत्रिका में एक लेख के माध्यम से दुनिया को बताया था।