डॉ. स्वप्निल यादव | यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के यह शब्द आज भारतीय राजनीति के संदर्भ में एक मील का पत्थर साबित हो रहे हैं। हाल ही में पांच राज्यों के चुनाव के परिणाम और तीन राज्यों में पूर्ण बहुत के सरकार के साथ भारतीय जनता पार्टी यदि पीछे मुड़कर देखे तो पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के संकल्प को रूप देते देखेगी।
वर्ष 1951 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी, बलराज मधोक और दीनदयाल उपाध्याय ने जो जनसंघ के दीपक जलाया था उससे आज पूरा भारत प्रकाशमयी हो रहा है और पूरी दुनिया भारत की चमक को निहार रही है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जहां भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात की मेहसाणा और आंध्र प्रदेश की हनामकोंडा सीट पर ही विजय पाई थी, आज वही भारतीय जनता पार्टी देश में पूर्ण बहुत की सरकार चला रही है।
दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानववाद विचारधारा के जनक थे। उनका मानना था कि भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा। उनका मानना था कि राज्य को अस्तित्व में लाया गया राष्ट्र की रक्षा के लिए, और ऐसी स्थितियां उत्पन्न करने और बनाए रखने के लिए जिनमें राष्ट्र के आदर्शों को वास्तविकता में बदला जा सकता हो।
राष्ट्र के आदर्श चिति का निर्माण करते हैं, जो व्यक्ति की आत्मा के समान है। चिति को सही मायने में समझने के लिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है।किसी राष्ट्र की चिति को व्यक्त करने और बनाए रखने में सहायक विधियों व विधानों को उस राष्ट्र का धर्म कहा जाता है। अत: धर्म सर्वोच्च है। धर्म वह तत्व है जिसमें राष्ट्र की आत्मा बसी होती है। यदि धर्म नष्ट हो जाता है, तो राष्ट्र नष्ट हो जाता है। जो कोई भी धर्म का त्याग करता है, वह देश के साथ विश्वासघात करता है।
दीनदयाल उपाध्याय का यह मानना बिल्कुल सही था कि भारत को केवल भारतीय संस्कृति की बचा सकती है, विदेशी विचारधाराएं नहीं। भारतीय संस्कृति का पहला लक्षण यह है कि वे पूरे जीवन को एकात्म रूप में देखते हैं। यह एक अंतरंग विचारणीय मुद्दा है। विशेषज्ञों के लिए इसकी सोच उचित हो सकती है परन्तु व्यावहारिक मुद्दे से यह प्रयोगात्मक नहीं है। पश्चिम में प्रमुख रूप में समूहों में जीवन की सोच की प्रवृति में एवं कार्यों में एक दूसरे के साथ के लिए किए जाने वाले प्रयासों में भ्रान्तियाँ है। हम स्वीकार करते है कि जीवन में विविधताएँ हैं परन्तु हम सदैव एकता की खोज प्रमुखता से करते हैं। यह प्रयास पूर्णतया वैज्ञानिक होता है। वैज्ञानिक सदैव विश्व में प्रत्यक्ष अव्यवस्था से संबंधित खोज कार्य, विश्व में शासित सिध्दान्तों का पता लगाना एवं इन सिध्दान्तों पर आधारित व्यावहारिक नियमों की ढाँचें का निर्माण के संबंध में खोज करते हैं।
रसायनज्ञों ने खोज की है कि कुछ तत्व पूरे भौतिक विश्व में समाविष्ट होते है। भौतिक शास्त्र ने एक कदम इससे आगे बढ़ाकर पाया है कि केवल इन तत्वों में ही ऊर्जा समाविष्ट होती है। आज हम जानते है कि पूरे विश्व केवल ऊर्जा का ही एक रूप है। दार्शनिक मुख्य रूप से वैज्ञानिक होते हैं। पश्चिमी दार्शनिकों ने द्वैत के सिध्दान्त की युक्ति, हेगल ने शोध, प्रतिपक्ष शोध और संश्लेषण एवं कार्ल मार्क्स ने इन सिध्दान्तों का प्रयोग इतिहास एवं अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण पर आधार के रूप में प्रस्तुत किया है। परन्तु हमारे देश में हम जीवन में मुख्य रूप में एकता को देखते हैं।
हालांकि द्वैताओं के विशेषज्ञों का विश्वास है कि प्रकृति एवं आत्मा एक दूसरे के परस्पर विरोधी होने की अपेक्षा पूरक होनी चाहिए। जीवन में विविधता आन्तरिक एकता का ही शोधक है। हम बीज की एक ईकाई को इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं-जड़, तना, पत्तों की शाखाएं, फूल और पेड़ों के फल। ये सभी विभिन्न रूप एवं रंगों में होते है परन्तु तब भी हम इनमें एकता की स्पष्ट रूप में झलक दिखाई देती है।
उम्मीद की जा सकती है कि मौजूदा भारतीय राजनीति भविष्य में पूरी दुनिया को राह दिखाएगी और एकात्म मानववाद पूरे विश्व द्वारा अपनाया जाएगा।