अजय सिंह चौहान || जब से बाॅलीवुड की फिल्मों और कलाकारों ने देश में अपनी पहचान बनाई है तभी से इसके कलाकारों के मन में ये बात भी घर कर गई थी कि हिन्दुस्तान में उनसे बड़ा कोई भी स्टार नहीं है और न ही उनसे अच्छी फिल्में कोई और दे सकता है। बाॅलीवुडिया ये बंदर और बंदरिया ये भी मानते हैं कि वे किसी ऐसे दूसरे कलाकार को अपने इस उद्योग में पनपने नहीं देंगे जो हमारे ही खानदान या दोस्ती-यारी से बाहर का होगा। बाॅलीवुड के इसी घमंड के चलते देश में क्षेत्रिय और भाषाओं के आधार पर देश में अन्य कई फिल्म इंडस्ट्रियां भी बनती गईं जिनमें टाॅलीवुड, कालीवुड, पाॅलीवुड, छाॅलीवुड, जाॅलीवुड वगैरह-वगैरह।
भारत की इतनी सारी अलग-अलग भाषाओं और क्षेत्रों की फिल्म इंडस्ट्री तो हालांकि अभी कुछ वर्षों पूर्व ही प्रारंभ हुई है, जबकि इसके पहले तक बाॅलीवुड ने ही हिंदी के दर्शकों को पिछले साठ से सत्तर के दशक तक बांधे रखा था। हालांकि, इसमें बंगाली और दक्षिण भारत की फिल्म इंडस्ट्री ने भी कुछ हद तक काफी समय पहले से संघर्ष करना प्रारंभ कर दिया था, लेकिन, इसने भी बाॅलीवुड की तर्ज पर अपने यहां एक विशेष समुदाय के इशरों पर सांस्कृतिक जेहाद के साथ-साथ कम्युनिष्ट विचारधारा को ही महत्व दिया, जिसके कारण वह आम हिंदी दर्शकों के बीच न तो प्रतियोगिता कर पाया और न ही क्षेत्र से बाहर निकल पाया।
बॉलीवुड और बंगाली फिल्म उद्योग के इस ‘कल्चरल’ जैहाद के परे यदि हम दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग की बात करें तो इसने न सिर्फ यह साबित किया है कि वह आज भी उसी परंपरागत सनातन संस्कृति और कुटुंब तथा पारिवारिक विचारधारा के दम पर फिल्में बनाकर एक बड़ा उद्योग कायम कर सकता है बल्कि अपने कलाकारों को भी वह विश्व स्तर पर स्थापित कर सकता है।
फिल्मों से जुड़ी प्रतियोगिता के इस संघर्ष में दक्षिण भारत की फिल्म इंडस्ट्री ने भी बाजी मार ही ली और न सिर्फ बाॅलीवुड की फिल्मों को बल्कि बाॅलीवुड के कलाकारों की असली औकात दिखाते हुए उन्हें सिर्फ और सिर्फ नचनिये, नशेड़ी घोषित करवा ही दिया। साथ ही साथ ये भी उजागर करवा दिया कि जैहाद और गुंडागर्दी के दम पर चलने वाला बाॅलीवुड और इसके कलाकार एक्टिंग के काबिल है ही नहीं। बल्कि मुंबईया लोग तो सिर्फ अपनी गंदी सोच और कल्चरल जैहाद के लिए ही काम करते हैं।
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आज के आम हिंदी दर्शकों को एहसाह हो गया है कि दक्षिण मूल की फिल्में और बाॅलीवुड में बनने वाली हिंदी फिल्मों के बीच की दूरी खत्म होती जा रही है। वहीं अब फिल्मों के निर्माताओं और निर्देशकों को भी इस बात का एहसास हो गया है कि दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग में बनने वाली फिल्में जल्द ही बाॅलीवुड को अपने गंदे खेल में आगे बढ़ने से अब रोक देंगी।
आम भारतीय जान चुका है कि दक्षिण भारतीय फिल्में अब एक बड़े उद्योग के तौर पर हमारे मजबूत लोकतंत्र में योगदान देने की तैयारी कर रही हैं, क्योंकि डबिंग की आसान तकनीक के आ जाने से भाषा के बंधन अब उनके लिए पहले जैसी कोई बाधा नहीं है जो बाॅलीवुड ने जानबूझ कर बना रखी थी। बल्कि सच तो ये है कि इंटरनेट पर अब बाॅलीवुड से कहीं ज्यादा दक्षिण भारतीय फिल्मों और इनके ट्रेलर को न सिर्फ देखा जा रहा है बल्कि अब तो हिंदी के अखबार भी अब दक्षिण भारतीय फिल्मों की समीक्षा को महत्व देने लगी है। हालांकि, इसमें उन अखबारों को कमाई नहीं होती है फिर भी अपने पाठकों की मांग पर उन्हें यह सब करना पड़ रहा है।
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इसके अलावा बात अगर इंटरनेट की करें तो यदि किसी को विश्वास नहीं होता हो तो वे ‘यू-ट्यूब’ पर इन दक्षिण भारतीय फिल्मों को देखे गये आंकड़ों यानी उनके व्यूवस की संख्या और उनके रिव्यूव्स को खुद भी देख सकते हैं। इनमें से कुछ फिल्में तो करोड़ों बार देखी जा चुकी हैं। जबकि बाॅलीवुड की कई फिल्मों के ट्रेलर का आंकड़ा तो मात्र कुछ ही लाख तक पार कर पाता है।
बॉलीवुड और दक्षिण भारतीय के बीच शुरूआत से ही चली आ रही इस प्रतियोगिता की बात करें तो दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग सामूहिक रूप से अपनी कहानियों में गांव-देहात और घर-परिवार से जुड़ी सच्चाई के साथ अपने दर्शकों को बांधे चला आ रहा है और आज भी आम जनजीवन से जुड़ी कहानियों में विश्वास करते हैं, क्योंकि इससे उन्हें जन-जन तक पहुंचने में मदद मिलती है।
अगर हम बाॅलीवुड यानी मुंबईया फिल्मों को देखें तो इनमें बेवजह का गैंगवार, जैहाद, बेवजह के गाने, घिसी-पीटी कहानियां, अभिनेत्रियों की छोटी-छोटी पौशाकें और न जाने क्या-क्या होता है जो देखने लायक ही नहीं होता। बाॅलीवुड से कई बार यह आवाज भी उठ चुकी है कि यहां भारत विरोधी गतिविया चल रहीं है और यह सब कुछ देश के बाहर से किसी एक के इशारे पर हो रहा है।
इधर दक्षिण भारतीय फिल्मों की इतनी प्रसिद्धी तब हो रही है जब इनका न ही हिंदी के दर्शकों के बीच प्रमोशन हो रहा है, और न ही इनके लिए देशभर में कोई बड़े स्तर पर स्क्रिन का प्रबंध हो पाता है, और तो और इन फिल्मों और इनके किसी भी कलाकार के प्रमोशन के लिए कोई जैहादी विचारधारा वाला मंच, यानी कपिल शर्मा शौ जैसे कोई मंच भी तैयार नहीं हैं।
दक्षिण भारतीय फिल्मों की इस लोकप्रियता का कारण यह है कि इनमें वे लोग आज भी बाॅलीवुड से कहीं ज्यादा अच्छी तरह से एक्शन, ड्रामा और काॅमेडी से भरपूर वीरता और देशभक्ति पर आधारित फिल्में समाज को दे रहा है। वे आज भी जीवन से जुड़ी कहानियों में विश्वास करते हैं, और शायद यही कारण है कि इससे उन्हें जन-जन तक पहुंचने में मदद मिलती है।
उदाहरण के तौर हम दक्षिण भारतीय फिल्मों में रोबोट, केजीएफ, बाहुबलि, और अभी जो चल रही है उसमें फिल्म पुष्पा को देख सकते हैं। इन फिल्मों ने न सिर्फ आर्थिक बल्कि मानसिक और पारिवारिक रूप से भी भारतीय संस्कृति को सहयोग दिया है। इसके अलावा ऐसी और भी ढेरों फिल्में हैं जो बार-बार देखने लायक हैं। जबकि बाॅलीवुड की फिल्मों की लंबी लिस्ट में से मात्र कुछ ही फिल्में हैं जो अर्थव्यवस्था के अलावा सांस्कृतिक और पारिवारिक स्तर पर टीक सकी हों।