उज्जैन, यानी जिसका पौराणिक नाम उज्जयिनी है, वह मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में स्थित एक बहुत ही प्राचीन नगरियों में से एक है। क्षिप्रा नदी के पूर्वी किनारे पर बसी यह नगरी सात पवित्र तथा मोक्षदायिनी पूरियों में से एक है। हालांकि, उज्जैन को जिस खास और सबसे महत्वपूर्ण कारण से संपूर्ण विश्व में जाना जाता है वह है भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग में तीसरे स्थान पर पूजे जाने वाले कालों के काल भगवान महाकालेश्वर का ज्योतिर्लिंग मंदिर।
लेकिन, इस रहस्य को बहुत ही कम लोग जानते होंगे कि आखिर कैसे इस ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति हुई और उसकी उत्पत्ति का रहस्य क्या है? तो आज हम यहां आपको भगवान शिव की वह महिमा बतायेंगे जिससे कि उन्हें हम भगवान महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में भी जानते और पूजते हैं।
शिव पुराण के अनुसार उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन नाम के एक राजा का शासन हुआ करता था। वह राजा भगवान शिव के परम भक्तों में माना जाता था। वहीं एक अन्य देश का राजा मणिभद्र राजा चंद्रसेन का अच्छा मित्र था।
एक बार उस मित्र राजा मणिभद्र ने उज्जयिनी के अपने मित्र राजा चंद्रसेन को उपहार के रूप में एक मणि प्रदान की। वह मणि बहुत ही तेजोमय और चमत्कारी थी।
राजा चंद्रसेन ने उपहार में प्राप्त उस मणि को अपने गले में धारण कर लिया। गले में धारण करते ही राजा चंद्रसेन का भाग्य चमकने लगा। अब तो उसके हर प्रकार के कार्य और फैसले प्रजा के हीत में ही होने लगे। उज्जयिनी का राजकोष बढ़ने लगा, और प्रजा पहले से कहीं अधिक खुश रहने लगी।
राजा चंद्रसेन के यश और उसकी कीर्ति की चर्चा दूसरे देशों के राजाओं में भी होने लगी, और जल्द ही इस बात का भी पता चल गया कि राजा चंद्रसेन की इस सफलता के पीछे का रहस्य वह मणि है जो उसे उसके परम मित्र राजा मणिभद्र ने उसे उपहार में दी थी।
अब तो राजा चंद्रसेन के प्रति उसकी प्रजा के मन में पहले से कहीं अधिक सम्मान और यश देखकर अन्य कई राजाओं ने उस मणि को प्राप्त करने के लिए कई प्रकार के लालच देने शुरू कर दिए। और क्योंकि वह मणि राजा को अत्यंत प्रिय थी इस कारण से राजा ने किसी को भी वह मणि नहीं दी।
जब राजा चंद्रसेन पर किसी भी प्रकार के लालच का कोई असर नहीं पड़ा तो उन राजाओं ने उसके खिलाफ षड्यंत्रकारी योजनाएं बनानी शुरू कर दी। जब राजा चंद्रसेन ने किसी भी राजा को वह मणि नहीं दी तो आस-पास के कई राजाओं ने राजा चंद्रसेन से वह मणि छिनने की योजना बनाई।
उन सभी राजाओं ने योजना बनाई कि हम सभी उज्जयिनी पर आक्रमण करेंगे, और वह मणि जिसके हाथ लगेगी वही उसका असली हकदार होगा। एक बहुत बड़े आक्रमण की उस योजना की भनक जब राजा चंद्रसेन के पास पहुंची तो चंद्रसेन अपने अराध्य भगवान शिव की शरण में चले गये और उज्जयिनी के किसी मंदिर में शिवलिंग के सामने समाधि लगाकर बैठ गये और ध्यान करने लगे।
जिस समय राजा चंद्रसेन शिवलिंग के सामने समाधि लगाकर बैठे थे उसी समय वहां महाकाल वन के कोने में एक छोटे से घर में रहने वाली एक स्त्री भी अपने लगभग 5 वर्षीय गोप नाम के छोटे से बालक को लेकर उस मंदिर में भगवान शिव के दर्शन करने पहुंची थी। राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक गोप भी शिव पूजा करने के लिए प्रेरित हो गया।
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अपने घर पहुंच कर बालक गोप भी कहीं से एक पत्थर ले आया और उसे शिवलिंग मान कर एकांत में उसी प्रकार से उस पर फूल चढ़ाकर उसकी पूजा करने लगा। और जिस प्रकार से बैठकर राजा चंद्रसेन उस मंदिर में ध्यान कर रहे थे वह भी उसी मुद्रा में बैठ गया और भगवान शिव का ध्यान करने लगा।
कुछ समय बाद वह बालक भी भक्ति में इतना लीन हो गया कि माता के द्वारा बार-बार बुलाने पर भी उसका ध्यान नहीं टूटा। क्रोधित होकर माता ने उसी समय बालक को पीटना शुरू कर दिया और पूजा का सारा समान उठा कर फेंक दिया। इसके बाद, ध्यान से मुक्त होकर बालक गोप जब चेतन अवस्था में आया तो उसे अपनी पूजा को नष्ट देखकर बहुत दुख हुआ। तब उसने एक बार फिर से उस ध्यान अवस्था में जाने का मन बनाया।
लेकिन, तभी अचानक उसके सामने एक चमत्कार हुआ और भगवान शिव की कृपा से वहां एक अति सुंदर मंदिर प्रकट हो गया। उस मंदिर के मध्य में वही दिव्य शिवलिंग विराजमान था जिसकी वह पूजा कर रहा था और जिसके सामने वह ध्यान लगाकर बैठा था।
बालक ने यह भी देखा कि जिस प्रकार से उसने शिवलिंग पर पुष्प अर्पित किये थे वे सभी उसी प्रकार से रखे हुए थे। पूजा की वह थाली जिसको उसकी माता ने क्रोधित होकर फेंक दिया था वह भी उसी प्रकार से यथावत सज्जित थी। यह सब देखकर बालक को तो कोई आश्चर्य नहीं हुआ लेकिन, उसकी माता आश्चर्यचकित हो गई। इस दिव्य चमत्कारी घटना की खबर उज्जयिनी में ही नहीं बल्कि पूरे संसार में आग की तरह फैल गई।
जैसे ही इस चमत्कारी घटना की जानकारी राजा चंद्रसेन को मिली, वह उसी समय उस शिवभक्त बालक से मिलने महाकाल वन में उसके घर पर पहुंच गया।
राजा ने उस चमत्कार के बारे में गोप नाम के उस बालक से जानकारी प्राप्त की तो पता चला कि उस बालक को स्वयं राजा से ही भगवान शिव की पूजा और अराधना करने की प्रेरणा मिली थी, कि, किस प्रकार से भगवान शिव की आराधना की जानी चाहिए।
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कुछ देर बाद वहां वे सभी राजा भी उस शिव भक्त बालक गोप के चमत्कार को देखने वहां आ पहुंचे। उन राजाओं ने जब उस बालक के मुख से अपने राजा चंद्रसेन से मिली प्रेरणा के विषय में सूना तो वे भी दंग रह गये। उन राजाओं ने उसी समय राजा चंद्रसेन से अपने अपराध की क्षमा मांगी।
राजा चंद्रसेन ने उन सभी को क्षमा दे दी और उन सभी राजाओं ने भी उस शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने की तैयारी कर ली।
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जैसे ही वे सभी राजा वहां पूजा-अर्चना प्रारंभ करने वाले थे, उसी समय रामभक्त श्री हनुमान जी भी प्रकट हो गये और उन्होंने उस बालक गोप को आशिर्वाद देते हुए वहां उपस्थित जनसमुदाय को और उन राजाओं को संबोधित करते हुए भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया और बताया कि कैसे उस बालक गोप ने, बिना किसी मंत्र अथवा विधि-विधान के सच्चे मन से आराधना करके भगवान शिव को प्राप्त कर लिया।
श्री हनुमान जी ने कहा कि, क्योंकि यह शिवलिंग एक चमत्कार के रूप में प्रकट हुआ है इसलिए इसे ज्योतिर्लिंग माना जायेगा और जिस स्थान पर यह प्रकट हुआ है वह स्थान महाकाल वन में है इसलिए इसे महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जायेगा।
श्री हनुमान जी ने आगे कहा कि क्योंकि जिस समय अवंति नगरी पर आक्रमण का भयंकर काल छाया हुआ था उसी समय राजा चंद्रसेन ने भगवान शिव को स्मरण किया था और परिणामस्वरूप भगवान शिव ने उस काल को अपने चमत्कार से वश में कर लिया है इसलिए इसलिए इस चमत्कारी महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग को कालों का काल महाकाल के नाम से भी पहचाना जायेगा।
श्री हनुमान जी ने आगे कहा कि भगवान शिव का परम और श्रेष्ठ भक्त यह बालक समस्त गोपजनों की कीर्ति बढ़ाने वाला है। इस लोक में यह बालक अखिल अनंत सुखों को प्राप्त करेगा और मोक्ष को प्राप्त होगा। इसी गोप के वंश का आठवां पुरुष महायशस्वी नंद कहलायेगा, और उसी नंद के पुत्र के रूप में स्वंय नारायण कृष्ण के नाम से अवतरित होंगे।
पौराणिक साक्ष्यों और मान्यताओं के अनुसार कालों के काल भगवान महाकाल तभी से अवंतिका नगरी यानी उज्जैन नगरी में स्वयं विराजमान है। अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी महाकाल की असीम महिमा का वर्णन मिलता है। भगवान महाकालेश्वर को उज्जयिनी का राजा कहा जाता है और उन्हें राजाधिराज देवता भी माना जाता है।
– अमृति देवी