अजय सिंह चौहान || जहां एक ओर ईसाई धर्म में महिलाओं को मात्र ‘लेडी’ का दर्जा प्राप्त है वहीं इस्लाम में भी महिलाओं को मात्र ‘औरत’ के तौर पर एक ‘भोग्या’ का ही दर्जा प्राप्त है। जबकि हिंदू धर्म में नारी को अनादिकाल से ‘शक्ति’, ‘प्रकृति’ और देवी के रूप में पूजा जा रहा है। इसका मतलब तो यही हुआ कि हिंदू धर्म की महिलाओं ने अनादिकाल से ही पुरुष सत्ता से ऊपर का दर्जा हासिल कर रखा है। लेकिन, अफसोस है कि इस बात की जानकारी स्वयं हिंदू समाज से आने वाले इन मुरारी और जग्गी जैसे अन्य कई तथाकथित ज्ञानियों को है ही नहीं। इसका कारण यही है कि वे न तो वेद और न ही पुराणों को पढ़ते हैं, और न ही समाज में रह कर समाज के साथ जुड़ते हैं और न ही समाज से संवाद करते हैं।
जहां एक ओर भारत के कुछ तथाकथित संत जैसे मुरारी बापू ने इस्लाम को भारत में बढ़ावा देने की खुलेआम जिम्मेदारी उठा ली है वहीं एक अन्य तथाकथित सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने भी इस्लाम और ईसाईयत का प्रचार एवं प्रसार करने का मन बना लिया है। हालांकि, भले ही मुरारी और जग्गी जैसे अन्य अनेकों तथाकथित संत आज ‘कालनेमि’ के रूप में हिंदू समाज को सीधे-सीधे भारी नुकसान पहुंचाने का काम कर रहे हैं और खुलेआम अपने हिंदू विरोधी एजेंडों को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन, इसके बाद भी हिंदू समाज की नारी को उनसे कोई डर नहीं है, क्योंकि हिंदू समाज की नारी को आज से नहीं बल्कि अनादिकाल से देवी का वह दर्जा प्राप्त है जहां ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे देवता भी छोटे हो जाते हैं।
हालांकि वर्तमान हिंदू समाज एक ऐसी विशेष प्रकार की ‘सैक्युलर नींद’ में सोया हुआ है कि अब, उस निंद के कारण हिंदू महिलाओं और बच्चियों यानी ‘शक्ति’, ‘प्रकृति’ और देवी रूपी नारी की इज्जत के ऊपर धीरे-धीरे खतरा मंडराने लगा है। बावजूद इसके, हिंदू समाज की नींद टूटने का नाम नहीं ले रही है।
यही कारण है कि मुगल काल के दौर में अपनी इज्जत बचाने की खातिर विवश होकर हिंदू महिलाओं में जिस ‘जौहर’ प्रथा यानी ‘सति’ प्रथा का चलन शुरू हुआ था वह एक बार फिर से शुरू हो चुका है और आज भी आये दिन इसकी खबरें भी सुनने को मिल रही हैं, लेकिन, न तो हिंदू समाज इसके विरूद्ध आवाज उठाने को तैयार है और न ही सरकारें कुछ बोलना चाहती हैं।
अंतर्राष्ट्री षड्यंत्रों के तहत आज न सिर्फ हिंदू समाज से बल्कि दूसरे धर्मों से आने वाले अन्य कई तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता और अपने-अपने धर्मों के ज्ञाता तथा महात्मा सिर्फ और सिर्फ हिंदू महिलाओं को ही पूर्ण अधिकार दिलाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आवाजें उठाते फिरते हैं। लेकिन, ये लोग खूद अपने ही समाज और अपने ही धर्मों की महिलाओं को न सिर्फ पर्दे से बाहर लाना चाहते हैं बल्कि उन्हें समाज में पुरूषों के मुकाबले आधे अधिकार तक भी नहीं दिलाना चाहते हैं। हमारे सामने उदाहण है कि अमेरिका जैसे आज के सबसे धनी और सबसे सभ्य कहे जाने वाले देश और उसकी संस्कृति में महिलाओं की जो दुर्दशा है वो करीब-करीब दुनिया के किसी भी अन्य देश में नहीं है।
महिलाओं के अधिकारों के नाम पर करीब चार सौ वर्षों के लोकतांत्रिक इतिहास के बाद भी अमेरिका ने अभी तक किसी भी महिला को राष्ट्रपति पद पर स्थान नहीं दिया गया है, जबकि भारत ने अपने एक छोटे लोकतांत्रिक समय में अब तक दो महिलाओं को राष्ट्रपति पद पर बैठा किया है। इसके बाद भी वे लोग मानवाधिकारों के नाम पर हिंदू महिलाओं को ही निशाना बनाते हैं। जबकि ईसाई और इस्लाम धर्म की महिलाओं को हिंदू धर्म की महिलाओं के मुकाबले आधे भी अधिकार अब तक प्राप्त नहीं हो सके हैं, जबकि ईसाई धर्म के अधिकतर देश आज अपने आप को दुनिया के सबसे अधिक उन्नत और शक्तिशाली और सभ्य और मानवतावादी मानते हैं।
बात यदि इस्लाम की करें तो भारत में तो आज भी महिलाओं को आजादी के नाम पर उकसा कर उल्टा उन्हें जबरन बुर्के में रहने के लिए न सिर्फ विवश किया जा रहा है बल्कि उनके सामाजिक और पारिवारिक अधिकारों को भी कम किया जा रहा है। पूर्ण रूप से पुरुष सत्ता का प्रतीक इस्लाम अपने समाज की महिलाओं को इज्जत का प्रश्न बनाकर उनके सार्वजनिक स्थानों पर जाने या परदे से बाहर निकलने पर तरह-तरह से बंदिशें लगाता है ताकि महिलाएं उन पर हावी न हो सकें और पुरुष प्रधान सत्ता कायम रह सके। हालांकि, ईसाई धर्म में लगभग 21वीं शताब्दी के बाद से महिलाओं को कुछ हद तक स्वतंत्रता दी जाने लगी, लेकिन इसके बावजूद आज भी उन्होंने महिलाओं को वो अधिकार नहीं दिये हैं जो हिंदुओं ने अपने समाज की महिलाओं को अनादिकाल से दे रखा है।
ईसाई और इस्लामिक मानसिकता में महिलाओं को पुरुषों से कम आंकने और उनके सामाजिक अधिकार एवं आजादी को छीनने की प्रवृत्ति प्रारंभिक दौर से ही रही है और प्रारंभिक दौर से ही महिलाओं को बेड़ियों में जकड़ कर रखा गया है। इसका कारण भी यही है कि क्योंकि, ये दोनों ही धर्म कहीं न कहीं पुरुष सत्ता का प्रतीक रहे हैं इसलिए उनकी सत्ता हाथ से न फिसल जाये इसलिए इन धर्मों ने अपने समाज की स्त्रियों पर कठीन से कठीन सामाजिक प्रतिबंध लगाए ताकि उनकी महिलाएं एक सीमित दायरे में ही रहें।
लेकिन, आज के दौर की उन सभी गैर हिंदू महिलाओं ने भी अब हिंदू महिलाओं के समान ही अपने अधिकारों की मांग उठाना प्रारंभ कर दिया है। क्योंकि, जिस प्रकार से हिंदू समाज ने अपनी महिलाओं को जो अधिकार दे रखे हैं उसके करीब-करीब आधे के बराबर अधिकार भी दुनिया के अन्य किसी देश या धर्म ने अपने समाज की महिलाओं को वो अधिकार अब तक नहीं दिये हैं। इसका ताजा उदाहरण आज देखने को मिल रहा है ईरान में।
ईरान की महिलाएँ पिछले कुछ दिनों से हिजाब के विरोध में न सिर्फ सड़कों पर उतर आई हैं बल्कि अब तो वे अपने अधिकारों और सामाजिक आजादी के लिए मौत को भी स्वीकारने को तैयार हो चुकी हैं। हालांकि, इसके ठीक उल्टे भारत के मुस्लिम समाज की महिलाएं आज भी स्वयं को हिजाब में बंद रखने के लिए तैयार बैठीं दिख रही हैं। हालांकि, मुस्लिम समाज से आने वाली कुछ भारतीय महिलाओं ने भी अब हिजाब के विरोध में आवाज उठानी प्रारंभ कर दी है और इसका ताजा उदाहरण हमें नोएडा से देखने को मिला है। हालांकि, हिंदू महिलाओं के अधिकारों की तुलना में इसे काफी नहीं कहा जा सकता।
बुर्का या परदा प्रथा को लेकर दुनियाभर के जानकार यही कहते हैं कि किसी भी अन्य धर्म या देश में ऐसी प्रथा यदि है तो उसका दोष सिर्फ इस्लाम को ही जाता है, क्योंकि महिलाओं के प्रति इस्लामिक पुरूषों की क्रुरतम मानसिकता के कारण ही परदा प्रथा को अपनाया गया था। विशेषकर भारत में तो यह और भी अधिक रहा है। यही कारण है कि स्वयं इस्लाम की महिलाओं को भी इसमें प्रारंभिक दौर से ही कैद होना पड़ा। आज भारत की ही नहीं बल्कि दुनियाभर की महिलाओं के सामने कई प्रकार की समस्याएं देखने को मिल रही हैं, लेकिन उन पर कोई बात करने को तैयार नहीं है, बल्कि उल्टा संपूर्ण महिला समाज को हिजाब में कैद करने के लिए संपूर्ण इस्लाम की पुरुष सत्ता तैयार बैठी है।