अजय सिंह चौहान | अगर हम महाराष्ट्र के औरंगाद जिले या औरंगाबाद क्षेत्र के इतिहास की बात करें तो उसमें सबसे पहले पैठण का जिक्र जरूर आता है। ऐसा इसलिए क्योंकि पैठण के बारे में हमको स्पष्ट रूप से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि ये वो स्थान है जिसको स्वयं ब्रह्मा जी ने ही आबाद किया था, यानी बसाया था। पैठण सहीत यहां की संपूर्ण भूमि अनादीकाल से लेकर आज तक भी देवभूमि के रूप में प्रसिद्ध है। ऐसे में अगर यहां हम मौर्य काल या फिर गुप्त काल या मध्य काल के किसी भी अन्य हिंदू राजा या फिर किसी भी मुगल सल्तनत के इतिहास को महत्व नहीं भी दें तब भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। पैठण के प्राचीन इतिहास और महत्व को लेकर आज जो भी ऐतिहासिक दस्तावेज और साक्ष्य उपलब्ध हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि ये स्थान दक्षिण भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण हुआ करता था।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद (Aurangabad) जिले की, यानी कि औरंगाबाद क्षेत्र के इतिहास की बात करें तो सबसे पहले हमको इसके मध्यकालीन इतिहास के हट कर अति प्राचीन इतिहास पर गौर करना चाहिए, क्योंकि ये नगर दक्षिण भारत के कुछ सबसे खास और सबसे प्राचीन नगरों में से एक है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि पैठण नगर की स्थापना ब्रह्मा जी ने स्वयं की थी। जबकि महाभारत में भी इस नगर का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
औरंगाबाद जिले का पौराणिक इतिहास –
पुराणों में उल्लेख मिलता है कि पैठण जैसे एक अति सुन्दर नगर को ब्रह्मा जी ने अपनी तपोभूमि के लिए चुना था। अगर आप यहां के उन टूटे-फूटे और बिखरे हुए प्राचीन अवशेषों को देखेंगे तो पता चलता है कि ब्रह्मा जी के द्वारा बसाया गया वही पैठण नगर आज भी अपनी उस प्राचीनता का परिचय दे रहा है।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद (Aurangabad) शहर से मात्र 30 कि.मी. की दूरी पर दक्षिण में गोदावरी नदी के उत्तरी किनारे पर बसा हुआ पैठण हालंाकि, कोई महानगर तो नहीं है लेकिन, यहां की व्यस्त जिंदगी किसी महानगर से कम भी नहीं है।
कई ऐतिहासिक और पौराणिक तथ्य बताते हैं कि पैठण अति प्राचीन काल का एक बहुत ही प्रसिद्ध व्यापारिक और धार्मिक स्थान हुआ करता था। भले ही आज इसको पैठण के नाम से पहचाना जाता है लेकिन, इसके कुछ नाम ऐसे भी हैं जो इसकी प्राचीनता का परिचय देते हैं, जैसे कि ‘पोतान‘, ‘प्रतिष्ठान‘ और ‘पैठान‘ जैसे शब्द वे शब्द हैं जो इसकी स्थापना के दौर के नाम हैं।
कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने स्वयं इस नगर का नाम सर्वप्रथम ‘पाटन‘ या ‘पट्टन‘ रखा था और फिर स्वयं ब्रह्मा जी ने ही इसको अन्य नगरों से अधिक महत्व देने के लिए इसका नाम बदल कर ‘प्रतिष्ठान‘ कर दिया था, ताकि, ये नाम और ये नगर दोनों ही सबसे ऊपर रहे।
पैठण (Aurangabad) का मुगलकालीन इतिहास –
भारत पर हुए मुगलों के आक्रमणों के दौर में यहां पैठण पर भी कई छोटे-बड़े आक्रमण हुए और यहां की धार्मिक महत्व की तमाम संरचनाओं और कई विश्व प्रसिद्ध मंदिरों में लूटपाट के बाद उन्हें भारी नुकसान पहुंचाया गया, और कुछ प्राचीन मंदिरों पर तो अतिक्रमण करके उनका अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया।
आज भले ही ब्रह्मा जी के द्वारा बसाया गया वो ‘पैठण नगर’ अपने मूल रूप में नहीं है और ना ही आज उसकी वह पवित्रता ही शेष बची है। लेकिन, इसकी प्राचीनता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां के संपूर्ण ‘पैठण नगर’ सहीत औरंगाबद क्षेत्र में आज भी उस दौर के वो सैकड़ों-हजारों प्राचीन अवशेष बिखरे पड़े हैं जिसने इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि पैठण अपने उस प्राचीन दौर में कितना समृद्धशाली रहा होगा।
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बौद्ध साहित्य में पैठण –
अब अगर हम पैठण से जुड़े इसके बौद्ध साहित्य के प्रारंभिक इतिहास की बात करें तो उसमें भी ये नगर सातवाहन वंश के नरेशों के शासनकाल में एक समृद्धशाली नगर के तौर पर पहचाना जाता था। सातवाहन नरेशों का शानकाल यहां ईसा मसीह के जन्म से भी 230 साल पहले से लेकर दूसरी शताब्दी तक, यानी ईसा के बाद तक हुआ करता था।
और क्योंकि गोदावरी यहां की प्रमुख नदी है इसलिए दक्षिण भारत और उत्तर भारत के बीच किये जाने वाले व्यापार के लिए ये नदी मार्ग एक प्रमुख माध्यम हुआ करता था और उसके लिए पैठण एक प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र था इसीलिए बौद्ध साहित्य में पैठान को दक्षिणापथ का मुख्य व्यापारिक केन्द्र माना जाता था।
विदेशी साहित्य में पैठण –
अब अगर हम पैठण से जुड़े कुछ अन्य ऐतिहासिक तथ्यों को जाने तो इस विषय पर ग्रीक से आये एक लेखकर एरियन ने पैठन को अपने साहित्य में ‘प्लीथान‘ लिखा है। जबकि एक अन्य भूगोलविद टाॅलमी ने भी, इस स्थान के बारे में अपने साहित्य में ‘बैथन‘ लिखा है और इसको सातवाहन नरेश श्री पुलोमावी द्वितीय की राजधानी बताया है।
सातवाहन नरेश श्री पुलोमावी द्वितीय का शासनकाल यहां दूसरी शताब्दी में सन 138 से 170 ई. तक रहा था। जबकि टाॅलमी ने भी अपनी भारत यात्रा इसी शताब्दी में ही की थी।
ऐतिहासिक साक्ष्य –
हालांकि, पैठण में उस दौर की सभी इमारतें खंडहर हो चुकी हैं इसलिए, इस समय ऐसी कोई भी प्राचीन इमारत देखने को नहीं मिलती जो अपनी प्राचीन अवस्था में शेष बची हो। लेकिन, सन 1734 ई. में गोदावरी नदी नागाघाट बना एक ऐसा मंदिर जरूर बचा है जिसे ऐतिहासिक कहा जा सकता है। इसके अलावा इसी मंदिर के पास प्राचीन काल का अन्य मंदिर भी हैं जो भगवान गणेश का है।
जबकि यहां एक ऐसा कूप यानी कुंआ आज भी है जो करीब दो हजार वर्षों से भी अधिक पुराना है। इस कुंए के बारे में पौराणिक तथ्य बताते हैं कि ये वही कुआं है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसमें शालिवाहन अपनी और अन्य कई सारे सैनिकों तथा हाथी और घोड़ों की मिट्टी से बनी प्रतिमाएं डालता रहा था।
कहा जाता है कि बाद में वही मूर्तियां जीवित होकर युद्ध में उसकी सहायता करतीं थी। उन्हीं मूर्तियों के दम पर शालिवाहन की उस आक्रमणकारी सेना ने उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य से भी रक्षा की थी। वर्तमान में उस कूप यानी उस प्राचीन कुएं पर अतिक्रमण हो चुका है और अब वहां एक मसजिद का निर्माण हो चुका है।
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यहां की अन्य ऐतिहासिक संरचनाओं में एकनाथ मंदिर तथा मुक्तेश्वर मंदिर शामिल हैं। एकनाथ मंदिर के अवशेष गोदावरी नदी के तट पर देखे जा सकते हैं। पुरातत्त्व संबंधी खुदाई में पैठण से प्राप्त प्राचीन मकानों के खंडहरों के अलावा कई सिक्के, राजघरानों के प्रतिक चिह्न और मिट्टी से बनी मूर्तियाँ, हाथी दांत और शंख से बनी वस्तुएं प्राप्त हो चुकीं हैं।
पैठण के महापुरुष –
वैसे तो प्राचीन काल से ही पैठण को एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ के रूप में मान्यता प्राप्त है, लेकिन, वर्तमान में ये स्थान महाराष्ट्र के वारकरी सम्प्रदाय के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थान और यहां के प्रसिद्ध संत एकनाथ जी की जन्मभूमि के तौर पर भी जाना जाता है।
जबकि ‘पैशाची प्राकृत‘ के प्रसिद्ध आचार्य श्री गुणाढ्य के विषय में कहा जाता है कि वे भी इसी ‘प्रतिष्ठान’ यानी पैठण नगर के निवासी थे। आचार्य श्री गुणाढ्य का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ ‘बृहत्कथा‘ हालांकि अब उपलब्ध नहीं है, लेकिन जानकार मानते हैं कि ये गं्रथ 12वीं शताब्दी तक भी उपलब्ध हुआ करता था।
आचार्य श्री गुणाढ्य द्वारा रचित ‘बृहत्कथा’ ‘पैशाची भाषा’ में रचित काव्य था। ‘वृहत्कथा’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘लम्बी कथा’। कहा जाता है कि इस ग्रंथ में एक लाख से भी अधिक श्लोक थे। वर्तमान में तो ‘बृहत्कथा’ अपने मूल रूप उपलब्ध नहीं है। लेकिन, जानकार मानते हैं कि पंचतंत्र, हितोपदेश और वेतालपंचविंशति जैसे कथा संग्रह भी शायद उसी ‘वृहत्कथा’ से ली गयी हैं।