एक बार की बात है तीनों लोकों के भ्रमण में निरत दिव्यदर्शन देवर्षि नारद जी स्वेच्छानुसार पर्यटन करते हुए इन्द्र के पास पहुँचे। इन्द्र ने उनकी पूजा की और लोकों के विशेष समाचार के विषय में पूछा। तब बुद्धिमान् नारदजी ने जो कुछ कहा, उसे तुम सुनो।
नारद जी बोले – मालव नामक देश में औरव नाम के एक ब्राह्मण निवास करते थे। वे वेद-वेदांगों के ज्ञाता तथा साक्षात् प्रकाशमान सूर्य के समान तेजस्वी थे। वे अपने मनकी शक्ति से इस सम्पूर्ण चराचर जगत्की रचना करने, उसका पालन करने तथा विनाश करने में समर्थ थे। वे अपनी धर्मपत्नी में ही निष्ठा रखते थे। मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा सोने में उनकी समान दृष्टि थी।
वे अत्यन्त मेधावी, तपश्चर्या में श्रेष्ठ तथा साक्षात् दूसरी अग्नि के समान तेजस्वी थे। उनकी पत्नी का नाम सुमेधा था, जो परम धार्मिक थी। वह अत्यन्त लावण्यसम्पन्न, पति को प्रिय तथा विविध प्रकार के अलंकारों से विभूषित रहती थी, उसने अपने रूप-सौन्दर्य से कामदेव पत्नी रति को भी तुच्छ बना दिया था और अप्सराओं के समूहों को भी तिरस्कृत कर दिया था। वह अपने पति की सेवा-शुश्रूषा में लगी रहती थी। पति के द्वारा भी अत्यन्त आदरके साथ उसका पालन- पोषण होता था। उन दोनोंके एक कन्या हुई, उसका भी उन दोनों ने बड़े ही स्नेहसे लालन-पालन किया।
उन दोनों ने अपनी इच्छा के अनुसार उसका ‘शमीका’ यह नाम रखा। वह कन्या जिस-जिस वस्तु की अभिलाषा करती थी, उसके सामर्थ्यवान् पिता वह-वह वस्तु उसे दे देते थे। वह रूपवती कन्या जब सात वर्ष की हो गयी, तो उसके पिता औरव उसके विवाह के लिये वरके विषय में सोचने लगे।
उन्होंने सुना कि महर्षि धौम्य का एक पुत्र है, वह मुनि वेद-शास्त्रों में पारंगत है, तेजकी परमराशि है और महर्षि शौनक का शिष्य है। वह गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला, महान् संयमी, गुरुकी सेवा में तत्पर रहनेवाला, शान्त स्वभाववाला तथा श्रेष्ठ था, उस मन्दार नामवाले ब्रह्मचारी को उन्होंने एक शुभ दिन में बुलाकर अपनी गृह्योक्त विधि के अनुसार उसे अपनी कन्या समर्पित कर दी और बहुत सारा दहेज भी दिया। विवाह हो जाने के अनन्तर मन्दार अपने आश्रम में चला आया।
शमी का को युवावस्था से सम्पन्न जानकर वह मन्दार पुनः वहाँ आया। औरव ने अत्यन्त मान-सम्मान पूर्वक उसका पूजन किया। उसे भोजन कराकर, वस्त्र आदि तथा सुवर्ण प्रदान कर शुभ मुहूर्तण में उन दोनों कन्या तथा जामाताण को विदा किया। उस समय ब्राह्मण औरव ने अपने जामाता से कहा- हे ब्रह्मन् ! यह पुत्री मैंने आपको विधानपूर्वक सौंपी है, इसका आप बहुत स्नेहपूर्वक पालन करें, जैसा कि मैंने आजतक किया है। श्वशुर को प्रणामकर ‘ऐसा ही होगा’ यह कहकर मन्दार चल पड़ा और अपने आश्रमस्थल पर आकर वह अपनी भार्या शमी का के साथ आनन्द-विहार करने लगा।
एक समय की बात है, भूशुण्डी नामक श्रेष्ठ ऋषि उस मन्दार के आश्रम में आये। वे गणेशजी के महान् भक्त थे। रुष्ट होने पर वे साक्षात् देदीप्यमान अग्नि के समान और प्रसन्न होने पर ईश्वर के समान हो जाते थे। तपस्या करते रहने से उनकी भ्रू (भौंह) से शुण्डा (सूँड़) निकल आयी थी, इसीलिये वे भ्रूशुण्डी नाम से विख्यात हो गये।
उनका उदरदेश बहुत बड़ा था, शरीर की आकृति विशाल थी। वे विविध प्रकार के अलंकरणों से मण्डित थे। मन्दार तथा शमीका ने उन्हें देखा। उनका वैसा विकृत रूप देखकर आनन्दित होकर उस समय वे दोनों हँसने लगे। तब वे अपने अपमान के भय से दुखी होकर क्रुद्ध हो गये, उनकी आँखें लाल-लाल हो गयीं।
वे बोले- अरे मन्दबुद्धि ! तुम मतवाले होकर मुझे नहीं जान रहे हो, इसी कारण दाँत खोलकर पत्नी सहित तुम मुझपर हँस रहे हो, अतः तुम दोनों सभी प्राणियों द्वारा वर्जित वृक्ष की योनि को प्राप्त करो।
शाप सुनकर वे दोनों अत्यन्त दुखी हो गये। प्रणाम करके वे दोनों बोले- हे ब्रह्मन् ! शाप से उद्धारका उपाय भी बताने की कृपा करें। तब दयार्द्रहृदय भ्रूशुण्डी ने सब जानते हुए उनसे कहा – तुम दोनों ने मूर्खतावश मेरी शुण्डा को देखकर उपहास किया था, अतः सूँड़युक्त देवदेव भगवान् गणेश जब तुम पर प्रसन्न होंगे, तब तुम दोनों पुनः अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त करोगे, इसमें कुछ संशय नहीं है।
इस प्रकार कहकर ज्यों ही वे मुनि भ्रूशुण्डी अपने आश्रमस्थल को जाने लगे, त्यों ही वे दोनों मन्दार तथा शमी का अपने मानवशरीर को छोड़कर वृक्ष की योनि को प्राप्त हो गये। उसी क्षण मन्दार नामक वह ब्राह्मण मन्दार का वृक्ष बन गया और उसकी पत्नी शमी का चारों ओर से काँटों से भरा रहने वाला शमी वृक्ष बन गयी। मुनि भ्रूशुण्डी के वचनानुसार वे दोनों वृक्ष प्राणिमात्र के द्वारा वर्जित हो गये।
जब वे दोनों मन्दार तथा शमीका वापस नहीं लौटे तो शौनक अत्यन्त चिन्ताग्रस्त हो गये। वे सोचने लगे कि आज एक मास व्यतीत हो गया है, वह महापराक्रमी मन्दार क्यों वापस नहीं आया ? मैं मन्दार को देखने जाता हूँ, शिष्यो ! तुम सब भी मेरे साथ चलो। तब वे शीघ्र ही ब्राह्मण औरव के पास पहुँचकर धीरे से उनसे पूछने लगे कि शमी का को लेने के लिये मन्दार यहाँ आया था, वह इस समय कहाँ है, बताइये ?
औरव बोले- मैंने तो उसी समय शीघ्र ही उसे म कन्या प्रदानकर कन्याको भी उसीके साथ भेज दिया था, किंतु वह यदि अपने आश्रम में नहीं आया तो मैं नहीं जानता कि वह कहाँ चला गया! तदनन्तर वे ब्राह्मण औरव तथा शौनक आदि चिन्तित हो उठे। क्या मार्ग में उन दोनों को भेड़िया, बाघ अथवा लकड़बग्घे ने तो नहीं खा लिया अथवा क्या चोरों ने मार डाला या किसी विषधर सर्प ने तो डॅस नहीं लिया? तदनन्तर वे सभी उन दोनों का समाचार जानने के लिये शीघ्र ही वहाँ से चल पड़े। कहीं-कहीं लोगों ने बताया कि एक मास हो गया है, वे यहाँ से गये थे।
तब उन्होंने वन के मार्ग में स्त्री तथा पुरुष के सुन्दर चरणों का चिह्न देखा। दलदलवाली भूमि में उन चरणचिह्नों को उन दोनों का ही चरणचिह्न जानकर उन्होंने स्नान करके – ध्यान में देखकर यह जाना कि उन दोनों के द्वारा भ्रूशुण्डी – मुनिका उपहास किये जाने के कारण वे दोनों उनके कोपवश शापभाजन बने हैं और सभी पक्षियों तथा कीट – आदि से वर्जित होने वाले इन वृक्षों की योनि को प्राप्त – हुए हैं।
मन्दार तो मदारका वृक्ष बन गया है और शमीका – शमी वृक्ष बन गयी है। तब वे दोनों विप्र औरव तथा शौनक अत्यन्त दुखी हो गये। ऋषि धौम्य का पुत्र जो बड़ा ही साधु प्रकृति का था, विद्याध्ययन करने के लिये यहाँ आया था, फिर विद्या प्राप्त करने के अनन्तर वह न जाने कैसे – दुर्दैव से वृक्ष की योनि को प्राप्त हो गया?
इस समाचार को सुनकर उसके पिता प्राण त्याग देंगे। यदि वे अपने पुत्र के विषय में पूछेंगे, तो उनसे मैं क्या कहूँगा? ब्राह्मण औरव भी अपनी कन्या उस शमी का के विषय में शोक करने लगे। तदनन्तर उन दोनों ने यह निश्चय किया कि भक्त और भगवान्में भेद नहीं होता अतः भगवान गणेशजी की आराधना करके इन दोनों को पाप से मुक्त करेंगे।
तदनन्तर दयार्द्रहृदय होकर उन दोनों ने महान् तप किया। वे दोनों जितेन्द्रिय होकर ऊपर आकाश की ओर दृष्टि करके निराहार तथा दृढ़व्रती होकर भूमि पर एक पैर के अँगूठे के बल पर खड़े हुए और बड़ी प्रसन्नता के साथ षडक्षर मन्त्र का जप करते हुए देवाधिदेव विनायक को सन्तुष्ट करने लगे।
इस प्रकार से उन्होंने बारह वर्षां तक श्रेष्ठ तप किया। ब्राह्मण औरव ने अपनी कन्या के उद्देश्य से तथा महर्षि शौनक ने अपने शिष्य के उद्देश्य से तपस्या की ।
तदनन्तर उन दोनों ब्राह्मण औरव तथा महर्षि शौनक को दुखी देखकर हाथ में पाश धारण करने वाले, दस भुजावाले भगवान् विनायक उन पर प्रसन्न हुए और वे महातेजस्वी उनके समक्ष प्रकट हुए।
वे किरीट, कुण्डल, माला, बाजूबन्द तथा कटिसूत्र धारण किये हुए थे। उन्होंने सर्पका यज्ञोपवीत धारण कर रखा था। वे सिंह पर विराजमान थे और अग्निके समान तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे।
करोड़ों सूर्यो के समान आभा वाले उस परम स्वरूप को देखकर वे दोनों हाथ जोड़कर उन विनायकदेव को प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे।
वे दोनों बोले – आप इस समस्त जगत्के बीज, इसके परम रक्षक और अपने भक्तों को नाना प्रकार से आनन्द प्रदान करने वाले हैं। आप अपने प्रति आदर भाव रखने वाले भक्तों के पूजन से प्रसन्न होकर उनके सभी प्रकार के विघ्नों का विनाश कर देते हैं और उनके महान्से भी महान् कार्यों को सम्पन्न कर देते हैं।
आप पर से परे हैं, परमार्थस्वरूप हैं, वेदान्त के द्वारा वेद्य हैं, हृदय में स्थित रहने पर भी उससे परे हैं। आप आप सभी श्रुतियों से भी अगोचर हैं, इस प्रकार के स्वरूप वाले अपने अभीष्ट देव आपको हम प्रणाम करते हैं।
न तो पद्मयोनि ब्रह्मा, न शंकर, न विष्णु, न इन्द्र, न षडानन और न सहस्त्र सिर वाले शेषनाग ही आपके मायावी स्वरूप को यथार्थरूप में जान पाते हैं, तो हम आपके उस स्वरूप को इदमित्थं के रूप में कैसे निश्चित कर सकते हैं ?
आपकी महान् कृपा जिस व्यक्ति पर होती है, वह अपने प्रारब्धानुसार शुभाशुभ कर्मों का भोग करता हुआ तथा शरीर, वाणी एवं मन से आपको प्रणिपात करता हुआ जीवनकाल में ही मुक्त कहा जाता है।
आप अपने भक्तों के भक्तिभाव से सन्तुष्ट होकर भाँति-भाँति के रूपों में अवतीर्ण होकर उन सभी की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं। आप इस संसार-सागर से मुक्ति दिलाने वाले हैं। अतः आप विभु की हम शरण ग्रहण करते हैं ।
गणेश बोले- हे ब्राह्मणो ! मैं आप लोगों की परम भक्ति से, परम तप से तथा आप दोनों द्वारा की गयी इस श्रेष्ठ स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। आप लोग वर माँगें। कुत्सित योनि से मुक्ति प्रदान करने वाले इस मेरे स्तोत्र का जो तीनों सन्ध्याकालों में तीन बार पाठ करेगा, वह सभी प्रकार के मनोरथों को प्राप्त कर लेगा।
उसका छः मासतक पाठ करनेसे विद्या की प्राप्ति होती है और नित्य पाठ करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। जो इसका पाँच बार पाठ करता है, वह मनुष्य आयु तथा आरोग्य को प्राप्त करता है।
गणेशजी का वचन सुनकर वे दोनों बड़े आदर के साथ उनके चरणों में गिर पड़े और अपनी व्यथा कह सुनायी। हे देव ! हम दोनों भी बहुत दुखी हैं, अतः हम सभी के लिये जो प्रिय हो, आप वैसा करनेकी कृपा करें। हे गजानन ! आप शीघ्र ही इन दोनोंको कुत्सित वृक्षयोनिसे मुक्त करें।
गजानन बोले – हे ब्राह्मणो ! मैं असम्भव वरदान कैसे दे सकता हूँ और अपने भक्तके वचनको कैसे मिथ्या बना सकता हूँ, फिर भी मैं प्रसन्न होकर यह वरदान देता हूँ कि आज से मैं निश्चित ही मन्दार वृक्ष के मूल में निवास करूँगा और यह मन्दा रवृक्ष मृत्युलोक तथा स्वर्गलोक में भी अत्यन्त पूज्य होगा।
जो व्यक्ति मन्दार वृक्ष की जड़ों से मेरी मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करेगा और शमी पत्रों के द्वारा तथा दूर्वादलों से मेरा पूजन करेगा, वह मुझे अत्यन्त प्रीति पहुँचायेगा; क्योंकि ये तीनों संसार में अत्यन्त दुर्लभ हैं ।
हे मुनियो ! क्योंकि मैं शमी का आश्रय लेकर सदा उसमें स्थित रहता हूँ। इसी कारण मैंने इन दोनों वृक्षों को यह दुर्लभ वर दिया है। आप दोनों के अनुरोधवश ही मैंने ऐसा किया है, महर्षि भूशुण्डी जी का वचन अन्यथा नहीं हो सकता। दूर्वा के अभाव में मन्दार वृक्ष के पत्तों से और दोनों के अभाव में शमी पत्रों से मेरा पूजन विहित है।
शमी पत्र से की गयी पूजा, दूर्वा तथा मन्दार- दोनों से की गयी पूजा का फल प्रदान करती है, इसमें कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं है। हे श्रेष्ठ द्विजो ! विविध प्रकार के यज्ञों, विविध तीर्थों के सेवन एवं व्रतों से तथा विविध दानों एवं नियमों के पालन से व्यक्ति वह पुण्य नहीं प्राप्त करता है, जो पुण्यफल शमीपत्रों के द्वारा मेरी पूजा करने से प्राप्त करता है।
हे श्रेष्ठ मुनियो ! मैं न तो धन-वैभव से, न सुवर्ण राशियों से, न विविध प्रकार के अन्न के दानों से, न वस्त्रों से, न विविध पुष्पों के अर्पण करने से, न मणि समूहों से, न मोतियों से वैसा सन्तुष्ट होता हूँ, जैसा कि शमीपत्रों के पूजन से, ब्राह्मणों के पूजन से और निरन्तर मन्दार पुष्पों के समूहों के पूजन से प्रसन्न होता हूँ।
जो प्रातःकाल उठकर शमी का दर्शन करता है, उसे प्रणाम करता है और उसका पूजन करता है, वह न तो कष्ट, न रोग, न विघ्न और न बन्धनको ही प्राप्त होता है। मेरे कृपाप्रसाद से वह स्त्री, पुत्र, धन, पशु तथा अन्य भी सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है, मेरी शरण ग्रहण करने से वह अन्त में मुक्ति प्राप्त करता है।
मन्दार के पुष्पों से पूजन का भी यही फल बताया गया है। मन्दार की मूर्ति बनाकर जिस घर में मेरा पूजन किया जायगा, वहाँ मैं स्वयं विद्यमान रहूँगा और वहाँ न कभी अलक्ष्मी का प्रवेश होगा, न कोई विघ्न होंगे, न किसी की अपमृत्यु होगी, न कोई ज्वर से ग्रस्त होगा और न तो अग्नि तथा चोर का कोई भय ही कभी रहेगा।
ब्राह्मण वेदवेदांगादि शास्त्रों का ज्ञाता हो जायगा, क्षत्रिय सर्वत्र विजय प्राप्त करेगा, वैश्य समृद्धि से सम्पन्न हो जायगा और शूद्र उत्तम गति प्राप्त करेगा।
इस प्रकार कहने के अनन्तर वे देव गणेश उसी समय मन्दार वृक्ष के मूल में स्थित हो गये। इसी प्रकार वे देवाधिदेव विनायक शमीवृक्ष के मूलमें भी प्रतिष्ठित हो गये। ब्राह्मण औरव भी पत्नी सहित तपस्या में स्थित हो गये। उन्होंने शमी वृक्ष के नीचे तपस्या की और वे अन्तमें उत्तम लोक को प्राप्त हुए।
शोक को प्राप्त हुए वे औरव ब्राह्मण अपने दृढ़ योगबल के प्रभाव से उसी शमी वृक्ष के गर्भ में प्रविष्ट हो गये, तभी से वे शमी गर्भ इस नाम से विख्यात अग्नि हो गये, लोक में इसी कारण अग्निहोत्र करने वाले अग्नि उत्पन्न करने के लिये शमी की लकड़ी का मन्थन (अरणि-मन्थन) करते हैं।
देव गजानन द्वारा उच्चरित वाणी को सुनकर महर्षि शौनक ने भी मन्दार वृक्ष के मूल से गजानन की एक सुन्दर मूर्ति बनवाकर प्रसन्नतापूर्वक मन्दारपुष्पों, शमीपत्रों तथा दूर्वादलों के द्वारा उसका पूजन किया ।
भगवान् गजानन ने प्रसन्न होकर महर्षि शौनक को अनेक वर प्रदान किये। तदनन्तर वे अपने आश्रम में चले आये और सर्वदा उस (मूर्ति) – का पूजन करने लगे।
तब से लेकर शमी भगवान् गणेश जी को अत्यन्त प्रिय हो गयी।
– श्रीगणेश पुराण
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