मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में पैदा हुए संत कबीर के समकालीन संत श्री सिंगाजी महाराज को 16वीं शताब्दी के महान कवियों और समाज सुधारकों में माना जाता है। उनके बारे में स्थानीय लोगों में मान्यता है कि वे एक कवि ही नहीं बल्कि करामाती संत भी थे। वे पढ़-लिख नहीं सकते थे, लेकिन फिर भी भक्ति के आवेश में जो पद बना कर वे जनता के बीच गाते थे, उनके अनुयायी उन्हें लिख लेते थे। उनके पदों को आज भी मालवा क्षेत्र में बड़े ही भक्तिभाव से गाया जाता है।
संत सिंगाजी महाराज के चमत्कारों को आज भी स्थानीय लोग महसूस करते हैं। सिंगाजी महाराज ने अपनी अलौकिक वाणी से तत्कालीन समाज में कई परिवर्तन किए। उनका कहना था कि सभी तीर्थ मनुष्य के मन में ही होते हैं, इसलिए जिसने भी अपने अंतर्मन को देख लिया उसने सारे तीर्थों का फल प्राप्त कर लिया। माना जाता है कि संत सिंगाजी को साक्षात ईश्वर ने दर्शन दिए थे।
संत कबीर के समकालीन संत श्री सिंगाजी महाराज की जीवनी पर नजर डालने पर मालुम होता है कि उनका जन्म मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के पिपलिया नामक एक छोटे से कस्बे के नजदीक, खजुरी नाम के गांव में 24 अप्रैल वैशाख सुदी की नवमी को हुआ था। कोई उनका जन्म 1518 में बताता है तो कोई 1519 में।
सिंगाजी की माता का नाम गवराबाई, पिता का नाम भीमाजी, बड़े भाई का नाम लिम्बाजी और बहन का नाम कृष्णा बाई था। सिंगाजी महाराज की पत्नी का नाम यशोदा बाई था। इनके 4 बेटे थे। गवली समाज के एक साधारण परिवार में जन्मे सिंगाजी शुरू से ही पशुपालन के कार्य से जुड़े हुए थे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे बहुत ही ईमानदार और एकांत स्वभाव के व्यक्ति थे। जब वे वन में जानवरों को चराने जाते तो वहाँ अन्य ग्वालों से दूर रहकर प्रकृति के बीच रमे रहते थे।
उनके स्वभाव, ईमानदारी और प्रतिभा को देखते हुए गाँव के जमींदार ने उन्हें अपना सरदार नियुक्त कर दिया था। जिसके बाद सिंगाजी ने लगभग बारह वर्ष तक जमींदार की सेवा की और अपनी आध्यात्मिक शक्तियों और ईमानदारी के दम पर जमींदार के दील में जगह बना ली थी। लेकिन, माना जाता है कि इसके बाद सिंगाजी के पिता ने उन्हें एक राजा के यहाँ नौकरी दिला दी।
कहा जाता है कि इसी नौकरी के समय सिंगाजी के साथ एक ऐसी घटना घटी जिसके बाद से उनके जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव आ गया। उस घटना के अनुसार, सिंगाजी घोड़े पर बैठकर राजा के काम से कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने गुरु मनरंग स्वामी के द्वारा दिए जा रहे प्रवचनों को सुना। उनके प्रवचनों से प्रभावित होकर सिंगाजी उसी समय महात्मा के पास पहुंचे और उनसे अनुरोध किया कि वे उन्हें अपना शिष्य बना ले। लेकिन महात्मा ने कहा कि तुम गृहस्थ जीवन जी रहे हो, इसलिए तुम अपने उस धर्म का पालन करो। लेकिन फिर भी, अगर तुम इसे अपनाना चाहते हो तो सबसे पहले तुम्हें माया-मोह का त्याग करना पड़ेगा। इसके बाद सिंगा जी ने उसी समय राजा की नौकरी छोड़ कर सन्यास लेने का मन बना लिया। राजा के द्वारा सिंगाजी को दिया गया वेतन बढ़ाने का लालच भी नहीं रोक पाया और उन्होंने गुरु मनरंग स्वामी जी से गुरु दीक्षा ले ली।
संत कबीर के समकालीन श्री सिंगाजी महाराज को 16वीं शताब्दी के महान कवियों और समाज सुधारकों में से एक माना जाता है। लेकिन स्थानिय लोगों का मानना है कि, प्रशासनिक उपेक्षाओं और कई प्रकार के भेदभावों के कारण उन्हें संत कबीर दास के समान वह पहचान नहीं मिल पाई जिसके की वे हकदार थे। उनके बारे में स्थानीय लोगों में किंवदंतियां हैं कि वे एक कवि ही नहीं बल्कि करामाती संत भी थे। वे साक्षर नहीं थे। लेकिन फिर भी भक्ति के आवेश में जो पद बना कर वे जनता के बीच गाते थे, उनके अनुयायी उन्हें लिख लेते थे। ऐसे पदों की संख्या लगभग 800 से भी अधिक बताई जाती है।
संत सिंगाजी को निमाड़ का कबीर कहा जाता है।
संत सिंगाजी के पदों को आज भी मालवा और निमाड़ क्षेत्र में बड़े ही भक्तिभाव से गाया जाता है। संत सिंगाजी ने अपने पदों और गीतों में समाज के दलित और उपेक्षित वर्ग को ऊपर उठाने के लिए बहुत जोर दिया है। नर्मदाघाटी के संत के नाम से विख्यात संत और कवि सिंगाजी कबीर की तरह ही फक्कड़ कवि थे। वे भी कबीरदास की तरह धार्मिक कर्मकाण्डों और पाखण्डों का विरोध करते रहे और सभी जातियों को एक जुट करके नए समाज की रचना करना ही उनके पदों का उद्देश्य था।
संत सिंगाजी महाराज को निमाड़ का कबीर कहा जाता है | Sant Singa Ji Maharaj
स्थानीय लोगों के अनुसार, संत सिंगाजी को पशुओं से काफी स्नेह था। इसलिए उन्हें पशुओं के रक्षक के रूप में भी माना जाता है। इस क्षेत्र की सभी जन जातियाँ आज भी उन्हें अपना आराध्य मानती हैं। इसलिए आस-पास के गांव वालों का मानना है कि पहली बार गाय या भैंस द्वारा बछड़े को जन्म देते के बाद उन पशुओं का दूध और उससे बना घी चढ़ाने के लिए यहां जरूर आते हैं और मंदिर में चढ़ाए गए उस दूध और घी से तैयार की गई प्रसाद सामग्री को यहां आने वाले भक्तों में बांट दिया जाता है।
सिंगाजी महाराज ने अपनी अलौकिक वाणी से तत्कालीन समाज में कई परिवर्तन किए। उनका कहना था कि सभी तीर्थ मनुष्य के मन में ही होते हैं, इसलिए जिसने भी अपने अंतर्मन को देख लिया उसने सारे तीर्थों का फल प्राप्त कर लिया। माना जाता है कि संत सिंगाजी को साक्षात ईश्वर ने दर्शन दिए थे।
संत सिंगाजी महाराज की समाधि बीड़ के पास खंडवा से 45 किमी दूर है जो आज से लगभग 460 साल पुरानी है। वर्तमान में यह क्षेत्र नर्मदा नदी पर बने इंदिरा सागर बांध के बैक वाटर के डूब क्षेत्र का हिस्सा बन चुका है। लेकिन, सन 2004 में डूब क्षेत्र में आने के पहले ही प्रशासन द्वारा इस मूल मंदिर का 80 से 90 फीट ऊंचा किसी किले के आकार का अति सुंदर परकोटा बनाकर इसको सुरक्षित बना दिया गया है।
समाधि तक पहुंचने के लिए लगभग दो किलोमीटर लंबा एक सुंदर पुलनुमा रास्ता भी बनाया गया है, जिसके द्वारा श्रद्धालु वहां आसानी से आ-जा सकते हैं। यह टापू आज देश का सबसे आधुनिक और सबसे सुंदर मानव निर्मित टापू बन गया है। इस समाधि स्थल को टापू का रूप देने का काम सन 2001 में शुरू हुआ था जो सन 2004 में पूरा कर लिया गया। इंदिरा सागर बांध के बैक वाटर के बीच बना यह मानव निर्मित टापू और संत सिंगाजी महाराज का समाधि स्थल अद्भूत और दर्शनिय नजर आता है।
संत सिंगाजी महाराज का यह समाधि मंदिर खरगोन शहर से 90 किलोमीटर, इंदौर से 150 किलोमीटर और ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर से 72 किलोमीटर की दूरी है। रेल मार्ग से यहां जाने के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन खंडवा जंक्शन है। खंडवा जंक्शन से मंदिर की दूरी लगभग 60 किलोमीटर दूर है। जिसको तय करने के लिए टैक्सी या बस की सेवा लेनी होती है।
अगर आप लोग भी पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक स्थानों में दिलचस्पी रखते हैं तो कम से कम एक बार तो ऐसे स्थानों पर जरूर जाना चाहिए और जानना चाहिए कि आखिर ऐसे क्या कारण हैं कि हमारे जिन धार्मिक और ऐतिहासिक स्थानों पर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है उनकी क्या-क्या मान्यताएं हैं और हम उनके बारे में कितना जानते हैं?
– अजय सिंह चौहान