अजय सिंह चौहान । प्राचीन वर्ण व्यवस्था को जाति का नाम देकर समाज को बांटने का कार्य हो रहा है। जबकि पौराणिक साक्ष्य स्पष्ट बता रहे हैं कि सच कुछ और ही है। क्योंकि पौराणिक साक्ष्य को माने तो पता चलता है कि वर्ण व्यवस्था एक पदवी के समान है।
एक पौराणिक तथ्य के अनुसार सूतजी कहते हैं कि स्वर्भानु नामक एक राजा के पाँच महाबली महात्मा पुत्र उनकी प्रभा नामक पत्नी से उत्पन्न हुए। इनमें सभी अलग-अलग क्षेत्रों में जा बसे और वहां अपने-अपने राज्य स्थापित किए। उनमें सर्वप्रथम गणनायोग्य अर्थात ज्येष्ठ थे नहुष जो आगे चलकर राजा स्वर्भानु के उत्तराधिकारी हुए। नहुष के पुत्र थे पुत्रधर्मा। पुत्रधर्मा के पुत्र थे धर्मवृद्ध। उसके पुत्र हुए परम प्रतापी राजा सुतहोत्र।
राजा सुतहोत्र के तीन अत्यन्त धार्मिक पुत्र हुए जो- काश, शल तथा गृत्समद कहलाए। और इन तीन में से राजा गृत्समद का पुत्र था शुनक। शुनक के पुत्र थे शौनक ऋषि। शौनक ऋषि के विषय में अधिकतर लोगों ने सुना ही होगा। ऋषि शौनक एक संस्कृत व्याकरण तथा तथा ऋग्वेद की छः अनुक्रमणिकाओं के रचयिता ऋषि कहे गए। वे कात्यायन और अश्वलायन के गुरु भी माने जाते हैं।
इसी वंश परंपरा में उत्पन्न संतति अर्थात अपने-अपने कर्मानुसार जैसे कि यदि कोई विद्वान है तो वो ब्राह्मण कहलाए, वीर योद्धा है तो क्षत्रिय कहलाए, व्यापार और गणना आदि में उत्तम है तो वैश्य तथा तथा जो इनमें से किसी में भी उत्तम नहीं है तो वह इनसे कुछ निम्न कार्य करेगा, जैसे अन्य व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन्हें सहयोग देना अथवा सहायक का कार्य करना एवम उससे प्राप्त आय से स्वयं का एवम परिवार का भरण-पोषण आदि करना जैसी व्यवस्था यानी शूद्र में विभक्त हो गए।
यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि राजा शल के पुत्र राजा आर्ष्टिषेण हुए जिनका पुत्र था चरन्त। ऋषि शौनक वंश तथा आर्ष्टिषेण वंश में उत्पन्न सन्तति अर्थात संतानें योग्यता के आधार पर ब्राह्मण तथा क्षत्रिय, दोनों ही वर्ण की हैं। राजा सुतहोत्र की वंश परंपरा में जन्में काश के राष्ट्र तथा दीर्घतपा नामक पुत्र हुए, और दीर्घतपा के पुत्र हुए धर्म। धर्म के पुत्र थे- विद्वान् धन्वन्तरि जिन्हें हम भगवान धन्वन्तरि भी बुलाते हैं। विद्वान् राजा धर्म को तपोबल से महान् तेजस्वी धन्वन्तरि पुत्र की प्राप्ति हुई थी।
अर्थात योग्यता एवम शिक्षा अर्थात ज्ञान के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था का चलन हुआ और उसी के आधार पर इस एक ही वंश परंपरा में समय-समय पर बदलाव भी होते गए। जैसे कि यदि कोई बालक विद्वान है तो वह ब्राह्मण के कर्म कर सकता है, अथवा यादि कोई बालक ज्ञान तथा युद्ध अथवा व्यापार आदि में सफल नहीं हो पाता है तो वह शूद्र कार्य करेगा। लेकिन यदि इसी कुल में जो वीर है और युद्ध कला में अधिक रुचि लेता है और उसी में निपुण होना चाहता है तो वह क्षत्रिय कहलाएगा। इसी प्रकार से यदि कोई ब्राह्मण का पुत्र भी कुशल युद्ध नीति और युद्ध कौशल जानता है तो वह क्षत्रिय कहलाए और राजा भी हो सकता है।
यहां एक सबसे प्रमुख बात ध्यान देने वाली बात ये है कि उसका वह कुल अर्थात कर्म या जिसमें वह पारंगत है वह मात्र उसी तक सीमित रहता था जब तक वह जीवित है। किंतु यदि उसकी संतान भी उसी के मार्ग पर चलती है तो वह भी उसी वर्ण का कहलाएगा। अर्थात हमारे पुराण कहते हैं कि सही मायने में वर्ण व्यवस्था एक पदवी के समान हैं, न कि आज की जातिगत भेदभाव वाली षड्यंत्रकारी संवैधानिक व्यवस्था।
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