वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों का मूल्यांकन एवं विश्लेषण किया जाये तो देखने में आता है कि किसी न किसी रूप में पूरे विश्व में जगह-जगह उथल-पुथल मची हुई है। धर्म, बोली-भाषा, जाति, सीमा, गोत्र आदि बातों को लेकर जगह-जगह उलझने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। महाशक्तियां अपना प्रभाव एवं आर्थिक शक्तियां बढ़ाने के लिए कमजोर देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कब्जा जमाना चाहती हैं तो ऐसे भी देश हैं जो दूसरे देश की भूमि ही हड़प लेना चाहते हैं। ऐसे में विश्व शांति के लिए जो भी प्रयास किये जा रहे हैं उसमें किसी न किसी कारण पलीता लग जाता है।
दुनिया में वास्तव में शांति की स्थापना करनी है तो पूरे विश्व को भारत की प्राचीन सभ्यता-संस्कृति पर अमल करना ही होगा, विविधता में एकता के मूल मंत्र को स्वीकार करना ही होगा। वैसे भी भारत की बात की जाये तो यहां गुरुकुलों में बच्चों को जब शिक्षा दी जाती थी तो ‘विश्व बंधुत्व’ की भावना उनके दिलो-दिमाग में कूट-कूट कर भरी जाती थी।
हमारी प्राचीन संस्कृति में पूरे विश्व को एक परिवार माना गया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का मतलब भी यही है कि पूरा विश्व एक परिवार है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही मंदिरों में नारे लगाये जाते हैं तो सभी नारों के साथ ‘विश्व का कल्याण हो’ का भी जय घोष किया जाता है यानी हमारे देश के लोग पूरे विश्व के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं। विविधता में एकता हमारे संविधान का मूल मंत्र है। संभवतः इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर हमारे दूरदर्शी मनीषियों ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारतीय संविधान के माध्यम से भी स्थापित किया।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि वैश्विक शांति के लिए विविधता में एकता के मूल मंत्र को अपनाना ही होगा। इस संबंध में भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण ने एक वर्चुवल कार्यक्रम में कहा कि संविधान में प्रदत्त ‘नियंत्रण और संतुलन’ की व्यवस्था को लागू करने के लिए संवैधानिक संस्कृति को बढ़ावा देने की जरूरत है। हमें व्यक्तियों एवं संस्थाओं की भूमिका के बारे में जागरूकता फैलाने की जरूरत है। उन्होंने अमेरिका का हवाला देते हुए कहा कि अमेरिका विविधता का सम्मान करता है। इसी कारण दुनिया भर से लोग वहां पहुंच रहे हैं और अपनी कड़ी मेहनत से अपनी पहचान बना रहे हैं। यह अमेरिका की समावेशी प्रकृति है जो विश्वभर से मेधावी लोगों को आकर्षित करने में सक्षम है।
पूरे विश्व से जो लोग अमेरिका में जा रहे हैं निश्चित रूप से वे अमेरिका की समृद्धि में सहयोग भी कर रहे हैं। कुल मिलाकर मुख्य न्यायाधीश जी का यदि भाव देखा जाये तो उनका यही कहना है कि यदि किसी देश का सर्वांगीण विकास करना है या विश्व में शांति स्थापित करनी है तो विविध पृष्ठभूमि के योग्य लोगों का सम्मान करना ही होगा। समाज के सभी तबकों का विश्वास हासिल करने के लिए ऐसा जरूरी भी है।
दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी व्यक्ति की कद्र यदि मात्र उसके गुणों के आधार पर होने लगे तो विश्व शांति का मार्ग अपने आप प्रशस्त हो जायेगा क्योंकि जाति, धर्म, संप्रदाय, गोत्र आदि के आधार पर शांति स्थापित हो सकती तो उन देशों में बिल्कुल शांति होती जो धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। अमेरिका आज लगातार तरक्की करता जा रहा है तो उसका एक मात्र कारण यही है कि वहां के लोग संविधान का स्वतः पालन करते हैं और गुणों के आधार पर ही किसी का सम्मान करते हैं।
इस दृष्टि से यदि भारत की बात की जाये तो अपना देश विविधता में एकता का उत्कृष्ट उदाहरण है। यहां विभिन्न धर्मों, जातियों, बोली, भाषा के लोग प्राचीन काल से रहते हैं। प्राचीन काल से यही हमारी संस्कृति रही है किन्तु कालांतर में मुगल आक्रांताओं एवं अंग्रेजों ने भारत की विविधता में एकता की संस्कृति को बहुत नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया है किन्तु एक लंबी गुलामी के बावजूद भारत अपनी संस्कृति को काफी हद तक बचाने में कामयाब रहा।
अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा पद्वति को ध्वस्त कर अपनी शिक्षा पद्धति चलाई जो आज तक भारत के विकास में नासूर का काम कर रही है। कमोबेश, आज पूरे विश्व में मुस्लिम मदरसे वहां की शिक्षा पद्धति को ध्वस्त कर अपने काबू में कर कार्यरत हैं जो किसी भी समय कहीं पर भी विघटनकारी शक्तियों और नफरत भरी मानसिकता को बढ़ाने से नहीं चूकते।
वर्ष 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई। स्थापना के बाद से आज तक किसी भी स्वयंसेवक, प्रचाकर, विस्तारक या अधिकारी को उनके पूरे नाम से नहीं पुकारा जाता। मात्र उनके प्रथम नाम के आगे ‘‘जी’’ लगाकर संबोधन किया जाता है और यह परिपाटी प्रभावी रूप से आज तक चल रही है। इसके पीछे की भावना यह है कि व्यक्ति का नाम से संबोधन तो किया जाय मगर जात-पात, क्षेत्र आदि के संज्ञान कम से कम हो सके। यही एक कृत्य विविधता में एकता को स्थापित करता है और आज देशभर में करोड़ों स्वयंसेवक आपस में जुड़े हुए हैं।
इन वर्तमान परिस्थितियों में कुछ ऐसे प्रमुख बिन्दु हैं, यदि इन पर ध्यान दिया जाये तो विश्व शांति की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। हथियारों की खरीद-फरोख्त पर जिन देशों की अर्थव्यवस्था टिकी हुई है उसे हतोत्साहित करना होगा और सभी को विकास पथ पर आगे बढ़ने के समान अवसरों के निर्माण पर आधारित जीवन दर्शन को बढ़ावा देना होगा। सभी की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए और सभी को एक दूसरे के अस्तित्व और स्वाभिमान का सम्मान करना चाहिए। इसमें एक बात यह महत्वपूर्ण है कि जिन देशों की अर्थव्यवस्था मूल रूप से हथियारों की बिक्री पर निर्भर है, वे तो चाहेंगे कि विश्व में सदैव युद्ध जैसी स्थिति बनी रहे, जिससे उन्हें अपने हथियार बेचने में आसानी होगी। ऐसे देशों की जिम्मेदारी बनती है कि अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए हथियारों की बिक्री के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता अख्तियार कर लें। विश्व शांति के लिए ऐसे देश यदि इतना योगदान देगें तो विश्व शांति का रास्ता स्वतः प्रशस्त होगा।
जो देश अपने देश की भौगोलिक सीमा बढ़ाने के लिए दूसरे देशों की जमीन हड़पना चाहते हैं, उन्हें भारतीय संस्कृति की तरफ थोड़ा अग्रसर होकर यह समझना चाहिए कि यदि पूरी ‘वसुधा’ ही एक परिवार है तो जमीन का टुकड़ा किसी भी देश के पास रहे, उससे क्या फर्क पड़ता है? क्योंकि जमीन चाहे इस देश की हो या उस देश की, सभी देश के नागरिक एक परिवार की तरह हैं। इसी एक मूलमंत्र में विश्व की शांति समाहित है।
जो लोग यह सोचते हैं कि पूरी दुनिया में उनके ही धर्म का शासन होना चाहिए तो ऐसे लोगों को यह जान लेना चाहिए कि यदि इस रास्ते से शांति का मार्ग प्रशस्त होता तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इराक, सीरिया आदि जैसे देशों में अशांति का आलम नहीं होता। अतः आवश्यकता इस बात की है कि अच्छा व्यक्ति कहीं का हो, उसकी कद्र एवं सम्मान करने की आवश्यकता है यानी धार्मिक भावनाओं को मूल मंत्र मानने की बजाय ‘सर्व धर्म समभाव’ के रास्ते पर पूरी दुनिया को बढ़ने की आवश्यकता है।
विश्व शांति के लिए भारतीय संस्कृति का एक अनमोल मूल मंत्र है ‘अहिंसा परमो धर्मः’ यानी अहिंसा से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। भारत में भगवान महावीर के प्रमुख दो उपदेश ‘अहिंसा परमो धर्मः’ एवं ‘जियो और जीने दो’ को पूरी दुनिया अपना ले तो विश्व शांति का रास्ता अपने आप साफ हो जायेगा। भगवान महावीर का स्पष्ट रूप से मानना है कि आप किसी भी जीव के प्रति जैसा भाव रखेंगे, वैसा ही भाव वह भी आप के प्रति रखेगा। इसी भाव के कारण भगवान महावीर के इर्द-गिर्द बिल्ली और बाघ, सांप एवं नेवला जैसे जीव एक साथ घूमते थे। कुल मिलाकर भगवान महावीर जी के इन दोनों उपदेशों का मूल भाव यही है कि यदि आप शांति से जीना चाहते हैं तो दूसरे जीवों को भी शांति से जीवन जीने का अधिकार है।
विश्व शांति के लिए एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस काम में महाशक्तियों को विशेष रूप से अपनी भूमिका निभानी होगी, क्योंकि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से देखा जाये तो पूरा विश्व महाशक्तियों के ही इर्द-गिर्द घूम रहा है। यदि कोई भी देश किसी भी रूप में खुराफात करने की हिम्मत करता है तो महाश्ािक्तयां चाहें तो उसे शांत कर सकती हैं या समझा-बुझा सकती हैं किन्तु इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि महाश्ािक्तयों को स्वयं निष्पक्ष रहना होगा और उन्हें अपनी स्वार्थपूर्ति की भावना से ऊपर उठना होगा। इसके लिए समय-समय पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन करवाये जाने की आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने जो नियम-कानून बनाये हैं, उनका कड़ाई से पालन करवाना होगा।
पूरी दुनिया में जगह-जगह रंगभेद एवं लिंग भेद के आधार पर भेदभाव की जो खबरें देखने-सुनने को मिलती रहती हैं, उससे निपटने का मात्र एक ही आधार है कि विविधता में एकता की भावना को स्थापित किया जाये। विश्व का प्रत्येक प्राणी एवं मानव यदि यह मान ले कि यह दुनिया सबके लिए है चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, रंग-रूप का क्यों न हो अर्थात मानव को मात्र मानव मानकर उसके गुणों के आधार पर उसका मूल्यांकन एवं विश्लेषण करना होगा।
विश्व शांति के लिए सभी देशों को मिलकर इस दिशा में भी काम करना होगा कि किसी देश को परमाणु युद्ध का खतरा न सताये। यदि किसी देश को ऐसा लगता है कि उसके ऊपर कभी भी परमाणु बम गिर सकता है तो वह परमाणु बम बनाने की तकनीक के जुगाड़ में तब तक लगा रहेगा जब तक कि वह हासिल न कर ले। दूसरे विश्व युद्ध में नागाशाकी और हिरोशिमा पर गिरे परमाणु बमों का दुष्प्रभाव आज भी देखा जा सकता है इसलिए सभी देशों को मिलकर इस बात के लिए सोचना है कि विश्व के किसी भी हिस्से में युद्ध जैसी स्थिति ही न बन पाये।
संसाधनों को लेकर होने वाला संघर्ष विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा है । भारतीय संस्कृति से प्रेरणा लेते हुए पूरे विश्व का प्रत्येक मानव यदि यह मान ले कि प्रकृति ने हमें जीवन यापन के लिए सब कुछ मुफ्त में दिया है तो प्रकृति से हम उतना ही लें जितना हमारे लिए जरूरी हो। यदि प्रत्येक राष्ट्र एवं प्राणाी के मन में यही भाव होगा तो कमजोर देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने के लिए मजबूत राष्ट्र लालायित नहीं होंगे। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से प्रचलित विश्व बंधुत्व की भावना विश्व शांति में बेहद कारगर साबित हो सकती है। साम्राज्यवाद की प्रबल इच्छाओं पर अंकुश लगाकर मानवता को केन्द्र में रखकर, धार्मिक सहिष्णुता की भावनाओं को विकसित करके, उच्च शिक्षा के साथ कुशल रोजगार के साधन उपलब्ध कराकर एवं विश्व के सभी देशों में बंधुत्व की भावना से विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है।
कुल मिलाकर बिना किसी लाग-लपेट के यह कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति से प्रेरणा लेकर पूरे विश्व में शांति की स्थापना की जा सकती है, चाहे वह विविधता में एकता की बात हो, विश्व बंधुत्व एवं वसुधैव कुटुंबकम् की बात हो या फिर भगवान महावीर के उपदेशों-‘ अहिंसा परमो धर्मः, जियो और जीने दो’ की बात हो या फिर अन्य कोई बात। ये सभी बातें भारतीय सभ्यता-संस्कृति में ही मिल सकती हैं। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि पूरा विश्व इसी रास्ते पर आगे बढ़े और विश्व शांति में अपना योगदान दे। इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं है इसलिए इस रास्ते पर जितनी जल्दी चल दिया जाये, उतना ही अच्छा होगा। कहीं ऐसा न हो कि समय सोचने-समझने और चर्चाओं तक ही सीमित और व्यतीत हो जाये। पूरा विश्व ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा है जो किसी भी समय कहीं पर भी फूट सकता है और पूरे विश्व के अस्तित्व को खतरे में डाल सकता है इसलिए ‘देर आये दूरुस्त आये’, ‘कल करे सो आज कर’ जैसे भावों को चरितार्थ करना ही होगा।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव, भा.ज.पा.)