अजय सिंह चौहान || हमारा नवीनतम इतिहास बताता है कि सन 1869 के लगभग में, यानी आज से लगभग 150 साल पहले हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों में बाबा अमरनाथ गुफा की खोज बूटा मलिक नामक एक मुस्लिम गडरिये ने की थी। लेकिन इस विषय पर हमारा प्राचीनतम इतिहास तो कुछ और ही बताता है। तो फिर नवीनतम इतिहास और प्राचीनतम इतिहास के बीच आखिर बाबा अमरनाथ की गुफा कहा खो गई थी? क्या सचमुच अमरनाथ गुफा का कोई धार्मिक या पौराणिक अस्तित्व या रहस्य था? और क्या इसके कोई प्राचीनतम या पौराणिक ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं। अमरनाथ गुफा को लेकर हम भ्रमित कहां हुए? क्या जानबूझकर किसी ने भ्रमित किया? क्या यह एक साजिश थी? या फिर यह कोई बड़ी भूल?
हिमालय की दुर्गम पर्वत मालाओं के बीच स्थित अमरनाथ की पवित्र गुफा की यात्रा के दौरान तीर्थयात्रियों के मन में अक्सर यह सवाल उठता है कि इतनी ऊंचाई पर स्थित इस गुफा में भगवान शिव के इस रूप में सर्वप्रथम दर्शन किसने किए होंगे। ऐसे में अक्सर उनको जब यह जवाब मिलता है कि सन 1869 के लगभग में बूटा मलिक नामक एक मुसलमान गडरिए ने इस गुफा की खोज की थी, तो वे उसे सुनकर या पढ़कर उनमें से कुछ श्रद्धालुओं की जिज्ञासा तो वहीं शांत हो जाती है। मगर कुछ श्रद्धालु ऐसे भी होते हैं जो यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि ऐसे कैसे हो सकता है कि वैदों और पुराणों में वर्णित इस स्थान की खोज किए हुए मात्र कुछ वर्ष ही हुए होंगे?
बात यदि पवित्र अमरनाथ गुफा से संबंधित ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों को लेकर की जाय तो पिछले लगभग 150 वर्षों से इस गुफा को लेकर कई भ्रमीत करने वाली कहानियां प्रचारित की गई हैं। कहा जाता है की मध्य कालीन समय के बाद, 15वीं शताब्दी में हिंदू धर्मगुरूओं द्वारा दोबारा इसे खोजने से पहले लोग इस गुफा को भूलने लगे थे।
अमरनाथ गुफा की खोज किसने की इस बात को लेकर जो सबसे चर्चित भ्रांति फैलाई जाती है, उसके अनुसार इस गुफा की खोज बूटा मलिक नामक एक मुस्लीम गडरिए ने सन 1869 में की थी। तभी से यह स्थान एक तीर्थ बन गया।
जबकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गुफा की खोज करने वाला बूटा मलिक नामक व्यक्ति मुसलमान नहीं था, बल्कि वह एक हिंदू था जो गुज्जर समाज से संबंध रखता था। यह भी कहा जाता है कि इतनी ऊंचाई पर कोई भी गड़रिया भेड़ चराने नहीं जाते, क्योंकि वहां आॅक्सीजन की बेहद कमी होती है। इस लिए वहां पशु-पक्षियों का जिंदा रहना मुश्किल होता है।
कुछ स्थानीय इतिहासकार यह भी मानते हैं कि 1869 के ग्रीष्मकाल में धर्मग्रंथों के आधार पर गुफा की फिर से खोज की गईं। पवित्र गुफा की खोज के तीन साल बाद पहली औपचारिक तीर्थयात्रा 1872 में आयोजित की गई थी। उस तीर्थयात्रा में बूटा मलिक जो एक स्थानिय गडरिया था गाईड के तौर पर साथ गया था इसलिए उसको इसका श्रेय दिया गया था।
पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि कश्मीर में 45 शिव धाम, 22 शक्ति धाम, 60 विष्णु धाम, 3 ब्रह्मा धाम, 700 नाग धाम तथा असंख्य तीर्थ थे, जिनमें से अधिकतर का अस्तित्व मुगल काल के दौरान मिटा दिया गया। और जो आधे-अधुरे अवशेष बचे थे वे भी भारत और पाकिस्तान के युद्ध में पाकिस्तान द्वारा अधिकृत किए जाने के बाद कश्मीर के इन सभी हिंदू तीर्थों को लगभग नष्ट कर दिया गया। इनमें से अधिकतर पवित्र स्थान भगवान शिव से जुड़े थे। इन सभी में अमरनाथ का महत्व अधिक है और हमारे लिए यह एक खुशकिस्मती कही जा सकती है कि बाबा अमरनाथ अस्तित्व आज भी सुरक्षित है।
जबकि समूचे कश्मीर में हिंदू धर्म का जो अपमान और नुकसान हुआ है उसको यदि उदाहरण के तौर पर देखा जाय तो वो है, श्रीनगर के पास स्थित अवंतिपुर नामक एक एतिहासिक और प्राचीन नगर जो आज भी अपने नाम से ही जाना जाता है। वहां के राजा अवंती वर्मन के नाम पर बसाया गया यह नगर किसी समय कश्मीर की राजधानी हुआ करता था। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने यहां उस समय के एक प्रसिद्ध मंदिर के अवशेषों को कुछ ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर निकाला। लगभग 800 से 900 साल पुराना यह हिंदू मंदिर कश्मीर में अपने समय की समृद्धि, उत्कृष्ट कला-कौशल और स्थापत्य को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त कहा जा सकता है।
कश्मीर के इतिहासकारों और उनके साक्ष्यों के आधार पर यह साबित होता है कि महान शासक आर्यराजा कश्मीर में बर्फ से बने शिवलिंग की पूजा करते थे। 11वीं शताब्दी के मध्य में उस समय के सुप्रसिद्ध कवि, नाटककार और इतिहासकार कल्हण द्वारा कश्मीर के इतिहास पर लिखी गई राजतरंगिनी नामक पुस्तक जो आठ खंडो में विभाजित है में भी अमरनाथ गुफा का वर्णन किया गया है।
राजतरंगिनी में यह भी बताया गया है कि कश्यप ऋषि के नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम कश्मीर रखा गया। भगवान शिव के इस प्राकृति रूप को राजतरंगिनी नामक पुस्तक में बाबा अमरनाथ या अमरेश्वर का नाम दिया गया है। कहा जाता है की 11वीं शताब्दी में रानी सुर्यमठी ने यहां त्रिशूल और दुसरे पवित्र चिन्हों को मंदिर में भेंट स्वरुप दिये थे।
कश्मीर के इतिहास में इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि 12वीं शदी में महाराज अनंगपाल ने अपनी पत्नी महारानी सुमन देवी के साथ अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी। और इस बात का जिक्र 16वी सदी में लिखी गयी एक किताब “वंशचरितावली” में भी है, और यह किताब आज भी मौजूद है। इसके अलावा उस समय के सुप्रसिद्ध कवि, नाटककार और इतिहासकार कल्हण की “राजतरंगिनी तरंग द्वितीय” में भी उल्लेख मिलता है कि कश्मीर के राजा सामदीमत शिव के भक्त थे और वे पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के शिवलिंग की पूजा करने जाते थे। बर्फ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं है। इसके अलावा “बृंगेश संहिता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी” आदि में अमरनाथ तीर्थ का बराबर उल्लेख मिलता है।
पौराणिक साक्ष्यों और किंवदंतियों के आधार पर देखा जाय तो पवित्र श्री अमरनाथ गुफा की खोज सर्वप्रथम भृगु ऋषि ने ही की थी। राजतरंगिनी नामक पुस्तक के अनुसार, लंबे समय से कश्मीर की घाटी बर्फ और पानी के नीचे दबी हुई थी। यह देख कर कश्यपु मुनी ने इस स्थान को सूखाने और नदियों के माध्यम से यहां के पानी को निकलकर इस भूमि को तपोभूमि बनाने का प्रयास किया। और जब यहां बर्फ और पानी कम होने लगा तो ऋषि-मुनियों ने इस स्थान को अपनी तपोभूमि बना लिया।
अनेकों ऋषि-मुनि यहां की दुर्गम पहाड़ियों और कंदराओं में जप-तप करने लगे। पौराणिक तथ्यों के अनुसार, एक बार जब भृगु ऋषि कश्मीर में अपनी तपस्या के लिए एकांतवास की खोज कर रहे थे तभी उन्हें बाबा अमरनाथ की इस पवित्र गुफा के दर्शन हुए। शास्त्रों के अनुसार यहीं से बाबा अमरनाथ की यह पवित्र गुफा संसार के सामने आई थी। भृगु ऋषि ने ही इस दुनिया में सबसे पहले भगवान अमरनाथ के दर्शन किये थे। हमारे पुराणों, दर्शन शास्त्र, इतिहास और लोककथाओं में भी इस बात का वर्णन है। और यह भी कहा जाता है कि तभी से बाबा बर्फानी के दर्शनों के लिए हर साल श्रद्धालुओं की भीड़ वहां जाती रहती है।
अति प्राचीन ग्रंथों में से एक भृगू संहिता में भी अमरनाथ गुफा के दर्शनों से पहले कुछ महत्वपूर्ण स्थानों का जिक्र करते हुए बताया गया है कि – तीर्थयात्रियों को अमरनाथ गुफा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे उनमें अनंतनया, माच भवन, गणेशबल, मामलेश्वर, चंदनवाड़ी, सुशरामनगर, पंचतरंगिनी, और अमरावती शामिल हैं!
भृगू संहिता में बताये गए नामों पर यदि गौर किया जाए तो उनमें सर्वप्रथम अनंतनया यानी आज का अनंतनाग नामक स्थान है। माच भवन से अभिप्राय मट्टन नामक वह स्थान जो आज ऋषि मारतंडेय के नाम से जाना जाता है, गणेशबल जो आज महागुनेशु टाप के नाम से जाना जाता है, मामलेश्वर या मामल नामक स्थान जहां लगभग 5वीं शताब्दी का बना हुआ एक मंदिर आज भी शेष बचा हुआ है। हालांकि यह कोई भव्य मंदिर नहीं है, लेकिन, इसका महत्व भी कम नहीं है।
भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर के विषय में कहा जाता है कि यह वही स्थान है जहां देवी पार्वती ने अपने पुत्र गणेश को प्रवेश द्वार की पहरेदारी के लिए खड़ा किया था। इसके अलावा चंदनवाड़ी नामक स्थान का भी जिक्र है, सुशरामनगर जिसे आज हम शेषनाग झील के नाम से जानते हैं। पंचतरंगिनी जो आज पंचतरणी के नाम से प्रसिद्ध है, फिर है अमरावती नामक जगह या नदी, जो गुफा के ठीक नजदीक से बहती है।
भारतीय अध्यात्म और धर्म के ज्ञाता साहित्यकारों और इतिहासकारों के अनुसार न जाने कहां से और क्यों यहां एक बहुत बड़ी भ्रांति फैलाई गई कि अमरनाथ गुफा की खोज बूटा मलिक नामक मुसलमान व्यक्ति ने सन 1865 में की थी। जबकि इस बात का कोई निश्चित या लिखित प्रमाण तक भी नहीं है। जबकि फ्रेन्कोइज़ बर्नियर नामक एक फ्रांसीसी चिकित्सक ने बूटा मलिक से भी लगभग 200 साल पहले सन 1663 में कश्मीर की यात्रा की थी जिसके बाद उसने अपनी पुस्तक ‘ट्रेवल्स इन मुगल एम्पायर’ में इस पवित्र गुफा का जिक्र किया था। तो फिर सन 1869 में बूटा मलिक नामक एक मुसलमान गडरिए द्वारा इस गुफा की खोज का प्रमाण सच कैसे हो सकता है।
अगर हजारों-लाखों वर्ष पुराने इस इस पौराणिक तीर्थ के लिए यदि हर साल लोग वहां दर्शनों के लिए जाया करते थे तो फिर मात्र 200 वर्षों के एक छोटे से समय के लिए इस तीर्थ को भारतीय इतिहास के पन्नों से क्यों और किसने मिटा दिया था। हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों के लिए यह रहस्य जानना ब्रहमांड के रहस्यों को जानने से भी बड़ा रहस्य कहा जा सकता है।