अजय सिंह चौहान || देश की राजधानी दिल्ली से लगे हुए गाजियाबाद में स्थित श्री दूधेश्वरनाथ के मंदिर को सबसे प्राचीतम मंदिरों के इतिहास और पौराणिक युग का एक प्रत्यक्ष उदाहरण माना जाता है। यह मंदिर उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले में है और दिल्ली एनसीआर की सीमा में आता है। इस मंदिर के विषय में मान्यता है कि इस पवित्र स्थान पर त्रेतायुग में लंकापति रावण के पिता ऋषि विश्रवा ने कठोर तप किया था। यह वही स्थान है जिसका जिक्र पुराणों में मिलता है और जहां से बहने वाली हरनंदी या हिरण्यदा नदी के किनारे हिरण्यगर्भ ज्योतिर्लिंग का वर्णन है, और जहां पुलस्त्य ऋषि के पुत्र एवं रावण के पिता ऋषि विश्रवा ने घोर तपस्या की थी। इसके अलावा पुराणों में यह भी जिक्र आता है कि रावण ने स्वयं यहां भगवान शिव की भक्ति और पूजा-अर्चना की थी। लेकिन समय के साथ-साथ हरनंदी से हिरण्यदा और फिर हिरण्यदा से इसका नाम हिंडन नदी हो गया और हिरण्यगर्भ ज्योतिर्लिंग का नाम भी समय और घटनाओं के अनुसार बदला और दूधेश्वर महादेव कहलाने लगा।
दूधेश्वरनाथ जी का यह सिद्धपीठ मंदिर गाजियाबाद ही नहीं बल्कि देश के सबसे प्राचीन मंदिरों में से माना जाता है। हालांकि इसके लिखित इतिहास के अनुसार दूधेश्वरनाथ शिवलिंग का प्राकट्य 3 नवंबर 1454 को माना गया है। जिसके अनुसार इस मंदिर की स्थापना आज से लगभग 564 वर्ष पहले हुई थी। लेकिन यहां इसके पौराणिक काल का साक्ष्य इस बात से मिलता है कि श्री दूधेश्वर महादेव के इस मंदिर में एक धूनी हर समय जलती हुई देखी जा सकती है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह धूनी कलयुग में महादेव के प्रकट होने के समय से ही जलती आ रही है।
दूधेश्वरनाथ मंदिर में देखे गए कई प्रकार के दैविय चमत्कारों, पौराधिक साक्ष्यों, मान्यताओं और एतिहासिक तथ्यों के आधार पर भी स्पष्ट होता है कि यह वही पवित्र मंदिर स्थल है जो पौराणिक तथ्यों और प्रमाणों को धर्म और आस्था के साथ-साथ मान्यताओं, किंवदंतियों और विभिन्न प्रकार के किस्से-कहानियों के साथ जुड़ा हुआ है। इसके अलावा और भी कई प्रकार के तथ्य और प्रमाण भी हैं जो मंदिर में पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को यहां सुनने को मिलती हैं।
मुगलकाल के दौरान क्रुर मुगल शासकों ने अन्य मंदिरों की तरह ही गाजियाबाद के इस दूधेश्वरनाथ शिव मंदिर में भी भारी लूटपाट की और इस मंदिर को भी नष्ट कर दिया गया था। विरोध करने वाले हिन्दुओं को बड़े पैमाने पर कत्ल कर दिया गया और इसके बाद इस मंदिर का अस्तित्व ही मिटा दिया गया था। यह मंदिर और इसके साक्ष्यों को दबा दिया गया था, ताकि हिन्दू अनुयायी यहां धर्म और भक्ति के नाम पर विद्रोह न कर सकें। और इसका परिणाम यह हुआ कि कई वर्षों तक यह पवित्र स्थान गुमनाम रहा।
कई वर्षों के बाद इतिहास ने करवट ली और एक बार फिर से यहां चमत्कार हुआ। जिसके बारे में माना जाता है कि मंदिर के पास ही के कैला नामक गांव की गायें जब यहां चरने के लिए आती थीं तो टीले के ऊपर पहुंचने पर उन गायों के स्तनों से खूद-ब-खूद ही दूध गिरने लगता था। और जब इस घटना से अचंभित गांव वालों ने उस टीले की खुदाई की तो उन्हें वहां यह शिवलिंग मिला। गायों के दूध से अभिषेक करने वाले इस शिवलिंग को उसी समय स्थानीय लोगों ने एक नाम भी दे दिया दुग्धेश्वर महादेव। और खुदाई करते करते वहां जो गहरा गढ्डा बन गया था उसी स्थान पर उस पवित्र शिवलिंग को स्थापित कर दिया गया। इसलिए दूधेश्वरनाथ मंदिर का यह शिवलिंग एक स्वयंभू दिव्य शिवलिंग माना जाता है। दुग्धेश्वर महादेव को दूधेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है।
कई इतिहासकारों ने भी इस दूधेश्वर महादेव मंदिर की प्राचीनता और पौराणिकता को सिद्ध किया है। और इसका प्रमाण मिलता है महामना मालवीय शोध संस्थान के इतिहासकारों और एनएएस डिग्री काॅलेज मेरठ के इतिहासकार डाॅ. देवेशचंद्र शर्मा की पश्चिमी यूपी के कुछ प्राचीन शिवालयों और शिवलिंगों पर की गई एक शोध से जिसे ‘द जर्नल आॅफ द मेरठ यूनिवर्सिटी हिस्ट्री एल्यूमनी’ में प्रकाशित किया। उसके अनुसार गाजियाबाद के दूधेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना स्वयं लंकापति रावण के पिता विश्रवा मुनि ने की थी और खुद रावण भी यहां शिव जी की पूजा करने आया करता था।
इस दूधेश्वरनाथ मंदिर की परंपरा के अनुसार आज भी यहां लगभग 550 वर्षों से महंत परम्परा कायम है। वर्तमान में महंत नारायण गिरी जी महाराज श्री दूधेश्वर नाथ मठ महादेव मंदिर के सोलहवें पीठाधीश हैं। जबकि पिछले सभी पीठाधीशों की समाधियां मंदिर प्रांगण में ही बनी हुई हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर परिसर में अगर कोई देर तक सो जाए तो यहां समाधि लिए हुए सिद्ध संत उसे जगाने तक को आ जाते हैं।
श्री दूधेश्वर नाथ मठ मंदिर के राम भवन में जो कुआं है, उसके विषय में कहा जाता है कि जो कोई भी इस मंदिर में पूजा-अर्चना करने आते हैं, वे इस कुएं की पूजा भी जरूर करते हैं। बताते हैं कि इस कुएं के पानी का स्वाद कभी मीठा तो कभी गाय के दूध जैसा हो जाता है। कहा जाता है कि इस कुएं में प्राचीनकाल में बना एक ऐसा गुप्त रास्ता है जो यहां से सीधे गढ़मुक्तेश्वर के ब्रज घाट तक जाता है। आज भी उस गुफा मार्ग के एक अंश को यहां देखा जा सकता है।
दूधेश्वरनाथ मंदिर के इतिहास के अनुसार अपने शासनकाल में वीर छत्रपति शिवाजी महाराज भी इस मंदिर में दर्शन करने आए थे और उन्होंने यहां एक हवन कुंड भी बनवाया था, वह हवन कुंड आज भी मंदिर परिसर में बने वेद विद्यापीठ में देखा जा सकता है। इसके अलावा उन्होंने इस मंदिर के लिए भेंट स्वरूप एक मुख्य द्वार भी बनवाया था जो आज भी यहां गर्भगृह के प्रवेश द्वार के रूप में विद्यमान है। इस द्वार की विशेषता यह है कि यह एक ही पत्थर को तराश कर बनाया गया है। और उस द्धार के बीच में जो भगवान गणेश विद्यमान हैं उन्हें भी इसी पत्थर में तराश कर बनाया गया है।
इसके अलावा इस दूधेश्वरनाथ मंदिर में एक वेद विद्यापीठ भी है, जिसकी स्थापना श्री शंकराचार्य जयंती वर्ष 2002 में की गई थी। इस वेद विद्यापीठ के अंतर्गत मंदिर के आंगन में श्री दूधेश्वर विद्यापीठ का शुभारंभ हुआ। इस विद्यापीठ में भारत के कई हिस्सों से आये हुए पचास से भी अधिक छात्र हर साल गुरुकुल परंपरा के अनुसार विद्या अध्ययन करते हैं। इसे अलावा यहां एक ऐसा समृद्ध पुस्तकालय भी है, जिसमें सैकड़ों पवित्र धार्मिक ग्रन्थ मौजूद हैं। मंदिर के आंगन में एक आयुर्वेदिक औषधालय भी है, जिसका उद्देश्य गरीबों का मुफ्त इलाज करना है। इसके अलावा यहां एक ऐसी गौशाला भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसमें रहने वाली अधिकतर गायें उन गायों की ही वंशज है जिन गायों का दूध अपने आप शिवलिंग पर गिरा करता था।
भगवान दूधेश्वर नाथ मठ मंदिर में विशेषकर सावन के महीने में भक्तों की अपार भीड़ जुटती है। दूर-दूर से कांवड़ लेकर आने वाले भक्त भगवान दूधेश्वर पर जल चढ़ाते हैं जिनकी संख्या लाखों में होती है।
तो यदि आप भी कभी श्री दूधेश्वर नाथ मठ मंदिर के दर्शन करना चाहते हैं तो यह मंदिर गाजियाबाद के जिला एमएमजी अस्पताल के पीछे और गाजियाबाद के दिल्ली गेट के सामने जस्सीपुरा मोड़ के पास सौ कदम की दूरी पर ही स्थित है।
भगवान दूधेश्वर नाथ मंदिर तक पहुंचने के लिए यहां का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन पुराना गाजियाबाद रेलवे स्टेशन है जो मंदिर से मात्र 1.5 किलोमीटर दूर है। इसके अलावा नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से इस मंदिर की दूरी लगभग 28 किलोमीटर, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से इस मंदिर की दूरी लगभग 20 किलोमीटर है। आनंद विहार बस अड्डा और आनंद विहार रेलवे स्टेशन से इसकी दूरी करीब 16 किमी है। इसके अलावा दिल्ली के महाराणा प्रताप बस अड्डे से इस मंदिर की दूरी लगभग 22 किलोमीटर है।