अजय सिंह चौहान || उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के डालीगंज में स्थित गोमती नदी के तट पर मनकामेश्वर महादेव मंदिर सनातन धर्म के लोगों की आस्था का एक बहुत बड़ा केंद्र बना हुआ है। देशभर से आने वाले पर्यटक और अन्य लोग इस मंदिर की प्राचीनता और प्रसिद्धि से प्रभाति होकर अपनी मनोकामना लेकर यहां आते रहते हैं। यहां आने वाले सभी भक्तगण भगवान शिव के सामने अपनी-अपनी मनोकामनाएं प्रकट करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि भगवान शिव उनकी हर इच्छा पूरी करें। यहां आने वाले सभी श्रद्धालुओं का भी यही कहना है कि उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।
लखनऊ के डालीगंज क्षेत्र में स्थित भगवान शिव का यह मंदिर मनकामेश्वर के नाम से गोमती नदी के तट पर बना हुआ है। पौराणिक समय में इस मंदिर के क्षेत्र में दूर-दूर तक घने जंगल हुआ करते थे। लेकिन वर्तमान में यह एक घनी आबादी वाला क्षेत्र बन चुका है।
स्थानिय लोगों में यह मंदिर बहुत बड़ी आस्था का केन्द्र है। जबकि लखनऊ आने वाले अधिकतर श्रद्धालुओं की इस मंदिर में इतनी आस्था है कि वे जब भी यहां आते हैं इस मंदिर में दर्शन करने अवश्य आते हैं। इसीलिए लखनऊ में गोमती नदी के बाएं तट पर स्थित शिव-पार्वती का यह मंदिर एक बहुत ही सिद्ध और प्रसिद्ध मंदिर माना जाता है। मनकामेश्वर के इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि यहां से कोई भी भक्त कभी खाली नहीं लौटता।
यह एक अति प्राचीन, पौराणिक और कई युगों पुराना मंदिर माना जाता है। इस मंदिर की पौराणिकता और प्राचीनता को लेकर कहा जाता है कि यह मंदिर त्रेतायुग में भगवान राम के जन्म से पहले भी मौजूद था। इस मंदिर को लेकर त्रेता युग की एक सबसे बड़ी और सबसे प्रमुख मान्यता और घटना यह जुड़ी है कि जब भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण माता सीता को वन में छोड़ने के बाद वापस लौट रहे थे तब उन्होंने यहीं इसी मंदिर में रूककर भगवान शिव की अराधना की थी।
माता सीता को वनवास छोडने के बाद लक्ष्मण के मन में अनेकों प्रकार के प्रश्न उठ रहे थे और मन अशांत और व्याकुल हो रहा था जिसके कारण उन्होंने इस मंदिर में शिवलिंग के सामने बैठकर भगवान शिव का ध्यान लगाया और मन को शांत करके माता सीता के सकुशल अयोध्या लौट आने की मनोकामना की थी। मान्यता है कि लक्ष्मण के द्वारा भगवान शिव से की गई उस प्रार्थना के बाद उनके मन की व्याकुलता कुछ कम हुई और मन को शांति मिली। और उसी के बाद कालांतर में इस मंदिर को मनकामेश्वर मंदिर का नाम दिया गया था। अनेकों पौराणिक गं्रथ भी इस बात के प्रमाणों की पुष्टि करते हैं। हालांकि मंदिर के नाम के विषय में यह भी माना जाता है कि वर्ष 1933 के आस-पास इस मन्दिर को मनकामेश्वर महादेव मंदिर नाम दिया गया था।
माना यह भी जाता है कि द्वापर युग में इस मंदिर के जीर्णोद्धार के रूप में उस समय के राजा हिरण्यधनु ने यहां एक भव्य और विशाल मंदिर की संरचना को खड़ा करवाया था। और उन्होंने यह कार्य तब किया था जब उन्होंने अपने शत्रुओं पर एक बहुत बड़ी विजय प्राप्त की थी।
इस मंदिर के विषय में माना जाता है कि दक्षिण के शिव भक्तों और पूर्व के तारकेश्वर मंदिर के उपासकों के द्वारा इस मंदिर के मूल स्वरूप को मध्यकाल तक भी किसी तरह बनाए रखा गया था।
मंदिर की मौजूदा संरचना के बारे में बताया जाता है कि इसका निर्माण सेठ पूरन शाह के द्वारा कराया गया है। मंदिर के गर्भग्रह में स्थापित पवित्र शिवलिंग काले रंग के पत्थर से निर्मित है। शिवलिंग पर चांदी का एक बहुत ही सुन्दर छत्र विराजमान है। मंदिर के पूरे फर्श में चांदी के अनगिनत सिक्के लगे हुए हैं जिससे यह मंदिर बहुत ही मनोहारी और आकर्षक लगता है।
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स्थानिय लोग इस मंदिर को एक विशेष, दिव्य और चमत्कारिक स्थान के रूप में मानते है। माना जाता है कि सच्चे मन से इस मंदिर में प्रवेश करते ही उन्हें विशेष प्रकार की शांति की अनुभूति होती है।
विशेषकर सावन के मौके पर इस मंदिर में स्थानिय भक्तों की भारी भीड़ देखने को मिलती है। मान्यताओं के अनुसार यहां जो भी श्रद्धालु आरती में शामिल होकर भगवान से कामना कामना करता है वो पूरी हो जाती है। इसीलिए स्थानिय लोगों के लिए इस मंदिर में सुबह व शाम की आरती का विशेष महत्व माना जाता है। जिसमें काफी संख्या में भक्त हिस्सा लेते हैं।
गोमती नदी के किनारे स्थापित इस मंदिर का नाम मनकामेश्वर महादेव मंदिर है और जैसे कि मंदिर के इस नाम से ही इस बात का भी एहसास हो जाता है कि यहां मन से की गई प्रार्थना और मुराद कभी अधूरी नहीं रहती। कई लोग यहां आकर मनचाहे विवाह और संतानप्राप्ति की मनोकामना करते हैं और उसे पूरा होने पर विशेष अभिषेक भी करवाते हैं।
मंदिर के इतिहास के अनुसार 12वीं शताब्दी में मुगलों के द्वारा इस क्षेत्र पर आक्रमण करने के बाद इसका सारा कीमती सामान, सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात लूट लिया गया और इसकी उस भव्य इमारत को नष्ट कर दिया गया था। यवनों के उस भयंकर आक्रमण से मंदिर की रक्षा करने के लिए आये हजारों हिन्दू लोगों को मार दिया गया और मंदिर के गर्भगृह में स्थिापित उस समय के शिवलिंग को भी खंडित कर दिया गया।
भगवान मनकामेश्वर के इस मंदिर की उस दौर की भव्यता और इसके समृद्धशाली होने का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुगलों के उस आक्रमण के समय तक इस मंदिर के शिखर पर 23 अलग-अलग आकार के स्वर्णकलश स्थापित हुआ करते थे जो इस क्षेत्र के किसी भी मंदिर से अधिक आकर्षक और विशेष थे।
उस आक्रण्मण के बाद धीरे-धीरे यहां मुगलों की सत्ता स्थापित हो चुकी थी। जिसके कारण यह मंदिर सैकड़ों सालों तक यूं ही खंडहर की तरह रहा। इसका दूर्भाग्य यह रहा कि इसमें नियमित रूप से पूजा-पाठ भी नहीं होने दी जा रही थी। जबकि आज से करीब 500 वर्ष पूर्व नागा साधुओं और जूना आखाड़ा के साधुओं और अन्य हिन्दूओं ने हजारों की संख्या में यहां एकत्र होकर मुगलों का विरोध किया और उनके कब्जे से इस मंदिर को मुक्त करवा लिया गया। उसके बाद इसके जिर्णोद्धार के रूप में मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था, जिसके बाद से माना जा रहा है कि आज तक यहां नियमित रूप से पूजा-पाठ होती आ रही है।