अजय सिंह चौहान || आज हम जिसे कुतुब मीनार (Real History of Qutub Minar and Vishnu Stambha) के नाम से जानते हैं, दरअसल वह एक बहुत ही प्राचीन इमारत है और इसका प्राचीन और असली नाम ‘विष्णु स्तंभ’ या ‘मेरू स्तंभ’ है। इतिहासकारों का मानना है कि यह संरचना सम्राट विक्रमादित्य के 9 रत्नों में से एक खगोलशास्त्री, गणितज्ञ और ज्योतिषाचार्य वराहमीहिर के लिए बनवाई थी। यह एक ऐसी संरचना है जिसके माध्यम से खगोलीय घटनाओं की जानकारियों पर अध्ययन किया जाता था। उस समय खगोलीय अध्ययन करने के लिए दुनियाभर से जाने-माने खगोलशास्त्री और ज्योतिषाचार्य यहां आते थे और वे इस प्रयोगशाला के माध्यम से देश में होने वाले अनेक प्रकार के मौसम और उससे संबंधित अन्य जानकारियां जुटाते थे।
सूर्य को मिहिर के नाम से भी जाना जाता है और मिहिर शब्द से ही मेहरावली शब्द बना जो बाद में महरौली कहलाने लगा। आज का यह महरौली, जहां यह प्राचीन ‘विष्णु स्तंभ’ या ‘मेरू स्तंभ’ यानी आज का कुतुब मिनार (Real History of Qutub Minar and Vishnu Stambha) खड़ा है, किसी समय में दुनियाभर के लिए ज्योतिष, खगोल विज्ञान और गणित के अध्ययन और शोध का बहुत बड़ा केन्द्र हुआ करता था। दिल्ली के मेहरावली या महरौली में स्थित इस मिनार के पास ही में 27 मंदिर रूपी कमरे भी बने हुए थे। और क्योंकि, इस स्थान पर नक्षत्रों के बारे में शोधकार्य होते थे इसलिए उस दृष्टि से इस स्थान को कुंभ हिरावली का नाम भी दिया गया था।
आज के दौर में इस मिनार को कुतुब मिनार (Qutub Minar) क्यों कहा जाता है इसके पीछे भी दो कारण बताये जाते हैं, जिनमें से एक तो यह है कि सन 1193 में यहां अफगानिस्तान से आये मुगल लूटेरे कुतुबउद्दीन ऐबक ने यहां भारी तादाद में हिंदू मंदिरों को नुकसान पहुंचाकर उन पर मस्जिद बनवाने का आदेश दे दिया।
कुतुबउद्दीन ऐबक ने जब देखा कि विष्णु स्तंभ कहे जाने वाली यह हमारत इतनी भव्य और विशाल है कि वह सोच भी नहीं सकता था तो उसने इसको तुड़वाने की बजाय इसमें कुछ बदलाव करके उसे अपना नाम दे दिया। और तब से यह मिनार कुतुब मिनार (Qutub Minar) कहलाने लगी। जबकि इसके पास ही में बने एक दूसरे मंदिर को उसने आधा-अधूरा तुड़वाकर उस पर एक मस्जिद बनवा दी और उसको नाम दिया ‘कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद’।
इसके अलावा, जो दूसरा कारण बताया जाता है उसके अनुसार अरबी भाषा के जानकारों के अनुसार, मेरू को अरबी भाषा में कुतुब और स्तंभ को मिनार कहते हैं, इसीलिए मेरू स्तंभ बना ‘कुतुब मिनार’।
आज भले ही इस महान संरचना को हम इसके ‘विष्णु स्तंभ’ या ‘मेरू स्तंभ’ जैसे असली नामों से नहीं जानते, लेकिन, तमाम प्रकार के साक्ष्य साफ-साफ बता रहे हैं कि यह एक हिंदू सरचना है। इन सब के अलावा यहां कुतुब मीनार (Real History of Qutub Minar and Vishnu Stambha) के परिसर में साफ-साफ लिखा भी है कि यह एक हिंदू संरचना है और इस पर विदेशी आक्रमणकारियों ने कब्जा कर इसकी मूल संरचना को नष्ट करवा दिया और उसे मस्जिद में परिवर्तित कर उसे अपने नाम से पेश कर दिया।
अब सवाल यह उठता है कि इतनी भव्य और विशाल संरचना जो आज कुतुब मिनार (Qutub Minar) के नाम से जानी जाती है और जिसका प्राचीन नाम विष्णु स्तंभ या मेरू स्तंभ है इसको बनवाने के पीछे मकसद क्या रहा होगा? आखिर क्यों इतनी विशाल और आश्चर्यचकित करने वाली इमारत बनवाई गई होगी? तो इसके पीछे के कारणों को लेकर अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि यह शत-प्रतिशत एक हिंदू संरचना ही है, क्योंकि इस्लाम में कभी भी और कहीं भी इस प्रकार की कोई संरचना न तो बनी है और न ही किसी ने सोचा है कि इस प्रकार से कोई संरचना बनवाई भी जा सकती है। और यदि बन भी जाती तो इस प्रकार से तो बिल्कुल भी नहीं जिस प्रकार से यह कुतुब मीनार है।
दरअसल, मेरू स्तंभ को सूर्य से संबंधित बताया जाता है और सूर्य का एक नाम विष्णु भी है इसलिए मेरू स्तंभ को विष्णु ध्वज के नाम से भी जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस विष्णु स्तंभ यानी मेरू स्तंभ के चारो ओर गृहों की छाया को मापने के लिए स्वर्ण जड़ित लकड़ी के लठ्ठ लगे हुए थे, और जिन स्थानों पर ये लठ्ठ लगे हुए थे उनके छिद्र आज भी देखे जा सकते हैं। इस प्रकार विष्णु ध्वज या मेरू ध्वज या आज का कुतुब मिनार अपने समय में खगोल विज्ञान और ज्योतिष के अध्ययन और शोध के एक बड़े केन्द्र के रूप में विख्यात था। दरअसल, वराहमिहिर मेहरावली यानी महरौली में अपने सहयोगियों के साथ रह कर गणित विज्ञान और ज्योतिषविज्ञान संबंधी शिक्षा का आदान-प्रदान किया करते थे।
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वर्ष 1974 में सहारनपुर से प्रकाशित वराहमिहिर स्मृति ग्रन्थ के संपादक केदारनाथ प्रभाकर के अनुसार, मेरू स्तंभ या विष्णु ध्वज को ही आज हम कुतुब मिनार के नाम से जानते हैं। अगर इसके निर्माण को तकनीकी दृष्टि से देखा जाय तो यह संरचना श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित मेरू पर्वत से शत-प्रतिशत मिलती है। पुराण के अनुसार मेरू पर्वत की ऊंचाई पृथ्वी से ऊपर 84 हजार योजन और पृथ्वी के भतीर 16 हजार योजन है। दोनों को मिलाने पर एक लाख योजन बनता है। इसके निचले हिस्से का परिमाप भी 16 हजार योजन है।
जबकि वराहमिहिर ने इस पवित्र स्तंभ का निर्माण भी ठीक उसी मेरू पर्वत के आधार पर करवाया और एक हजार गज को एक गज माना। आज भी कुतुब मिनार (Qutub Minar) की धरती के भीतर की गहराई 16 गज है। नींव के पास का मिनार का घेरा भी 16 गज है। पृथ्वी के ऊपर मूल मेरू स्तंभ 84 गज या 252 फिट ऊंचा था। लेकिन, इसकी सबसे ऊपरी मंजिल के टूट जाने के बाद से वर्तमान में इसकी ऊंचाई 234 फिट और 7 इंच रह गई है। मेरू स्तंभ का आकार गाजर या कमल के फूल की पंखूड़ी के समान निचे से ऊपर की ओर पतला होता चला गया है।
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मिनार की छाया का निष्कर्ष और इसके 5 डिग्री अंश पर झुकाव और इसमें 27 विशिष्ठ प्रकार से बने हुए रोशनदान इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यह विष्णु स्तंभ नक्षत्रों और गृहों के अध्ययन के लिए वास्तव में एक वेधशाला के रूप में प्रयोग होने वाली इमारत थी।
तमाम इतिहासकार एक स्वर में यह मानते हैं कि यह संरचना वराहमिहिर की प्रयोगशाला ही थी। साथ ही कुछ इतिहासकारों द्वारा इसे कुतुबउद्दीन एबक के द्वारा बनवाने की बात को झूठा साबित करने के कई साक्ष्य आज भी उपलब्ध हैं। इस मिनार में लिखे गए अभिलेखों के आधार पर यह बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि आज की कुतुब मिनार किसी समय में वैधशाल के रूप में प्रयोग की जाने वाली एक संरचना थी। और इन तथ्यों से भी यह बात स्पट हो जाती है कि मेरू स्तंभ का निर्माण ग्रहों एवं तारों की गति का अध्ययन के लिए ही किया गया था।
अफगान लूटेरे एबक के द्वारा इन नक्षत्र मंदिरों और विष्णु मंदिर को तोड़ देने के बाद उस समय के ज्ञान-विज्ञान और उत्कृष्ठ सभ्यता-संस्कृति का एक महान प्रतीक भी नष्ट हो गया। 27 मंदिरों को तोड़कर जो मस्जिद बनाई गई यह मध्य युगिन इतिहास की सबसे बड़ी बर्बरता का उदाहरण है। और इस बात को किसी अन्य धर्म के इतिहासकारों ने नहीं बल्कि इस्लाम के इतिहासकारों ने भी माना है।