अजय सिंह चौहान || राजस्थान के अजमेर शहर में स्थित अढ़ाई दिन का झोंपड़ा (History of Adhai Din Ka Jhonpra) नामक एक ऐसी इमारत है जो भारत की सबसे पुरानी मस्जिदों में से एक मानी जाती है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार इस इमारत को यह नाम 1199 ईसवी में दिया गया था। यह इमारत अजमेर की सबसे पुरानी स्मारकों में से एक है। इसके नाम के विषय में माना जाता है कि यहां स्थित संस्कृत महाविद्यालय और मंदिरों के अवशेषों को मात्र अढ़ाई दिनों के रिकाॅर्ड समय में नष्ट कर के उन्हीं के अवशेषों में चंद बदलाव करके इसे मस्जिद का रूप दे दिया गया और इसे नाम दिया गया कुवत्त-उल-इस्लाम मस्जिद। लेकिन यह इमारत अब भी मस्जिद कम और हिंदू मंदिर संरचना ज्यादा दिख रही थी, इसलिए संभवतः इसे दूसरा नाम दे दिया गया, अढ़ाई दिन का झोपड़ा।
पिछले 800 वर्षों से भी अधिक समय से यह परिसर अढ़ाई दिन का झोपड़ा (History of Adhai Din Ka Jhonpra) नाम से विख्यात है। यह नाम इसलिए रखा गया है, क्योंकि इस परिसर के तीन मंदिरों को ढाई दिन के भीतर मस्जिद के रूप में बदल दिया गया था।
तराई का दूसरा युद्ध जो सन 1192 ई. में लड़ा गया था, उसके बाद मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चैहान को हराकर उनका वध करने के बाद, विजेता के रूप में जब वह अजमेर से गुजर रहा था तब उसने इस मंदिर के बारे में सुना। वह तुरंत इस मंदिर में आया, मंदिर को देखकर वह इससे इतना भयभीत हुआ कि उसने उसे तुरंत नष्ट करके उसके स्थान पर मस्जिद बनाने का आदेश दे दिया। और कहा कि सारा काम 60 घंटों में पूरा हो जाना चाहिए ताकि लौटते समय वह नई मस्जिद में नमाज अदा कर सके।
दरअसल, इससे पहले इस स्थान पर ‘सरस्वती कंठाभरण महाविद्यालय‘ नामक एक संस्कृत विद्यालय था जो इस क्षेत्र के लिए विशेष महत्व रखता था। इसके अलावा इसी स्थान पर एक देवी सरस्वती का मंदिर और एक भगवान विष्णु का मन्दिर भी था जिसका निर्माण बीसलदेव चैहान ने करवाया था।
इसीलिए यहां स्थित संस्कृत महाविद्यालय (History of Adhai Din Ka Jhonpra) की इमारत के कुछ अवशेषों को तोड़-फोड़ कर उनके स्थान पर जैसे-तैसे मुगल शैली के आधे-अधुरे नक्काशीदार काम को इसमें थोप दिया और उसको नाम भी दे दिया गया कुवत्त-उल-इस्लाम मस्जिद। जबकि इसके मात्र कुछ हिस्सों को ही ढहाया गया था। इसलिए इसे खंडित हुए हिंदू और जैन मंदिरों की ही सामग्री से बनाई गई आधी-अधुरी मस्जिद कही जा सकती है।
बताया जाता है कि यह संरचना 1192 में बननी शुरू हुई थी जो 1199 में बनकर पूरी हुई। इसको बनाने में पूर्ण रूप से हिंदू राजमिस्त्रियों का ही योगदान रहा है। हालांकि यह इमारत भारत-इस्लामी वास्तुकला का मिलाजुला रूप है लेकिन, यहां गौर करने पर पता चलता है कि इस्लामी वास्तुकला तो इसमें नाम मात्र की ही है लेकिन इसमें भारतीय वास्तुकला और शिल्पकला आकर्षक और मनमोहक दिखती है।
इसके दो प्रवेश द्वार हैं, जिनमें से एक दक्षिण में और एक पूर्व में है। इसका प्रार्थना स्थल जिसको मस्जिद में बदल दिया गया पश्चिम में स्थित है, जबकि इसके उत्तर की ओर एक पहाड़ी चट्टान है। इसके पश्चिम की ओर स्थित असली मस्जिद की इमारत में हिन्दू शैली में बने आकर्षक 10 गुंबद और 124 स्तंभ हैं। जबकि पूर्वी हिस्से में 92 स्तंभ हैं। और शेष प्रत्येक कोनों पर 64 स्तंभ हैं। इस प्रकार, पूरे भवन में 344 स्तंभ हैं। लेकिन अब इनमें से केवल 70 स्तंभों को ही ठीकठाक हालत में देखा जा सकता है। इन स्तंभों पर सुंदर, आकर्षक और मनमोहक नक्काशियों का काम किया गया है। पीले रंग के चूना पत्थर से बनायी गयी इस इमारत में कुरान के अभिलेख है और अरबी शैली में कई प्रकार की नक्काशियां भी इसमें बाद में जोड़ दी गई थीं। यह मस्जिद दिल्ली की कुवत्त-उल-इस्लाम मस्जिद जो कुतुब परिसर में स्थित है उससे काफी बड़ी है और इसके दो प्रवेश द्वार हैं।
इस मस्जिद को भारत-इस्लामिक वास्तुकला का एक अच्छा उदाहरण इसलिए माना जाता है क्योंकि यह एक संस्कृत महाविद्यालय और एक पवित्र हिंदू मंदिर था जिसे बाद में मस्जिद में बदल दिया गया। और इसके अंदर के मात्र कुछ हिस्सों की प्राचिन भारतीय संस्कृति से संबंधित नक्काशियों और मूर्तियों को ही तोड़ कर उनके स्थान पर इस्लामिक रूप थोप दिया गया था।
आज भी इस मस्जिद के अन्दर का हिस्सा मस्जिद से अलग हिन्दू मंदिर की तरह से ही लगता है। इसलिए इसे सहज ही माना जा सकता है कि इसमें कई ऐसी खूबसूरत नक्काशियां हैं जो प्राचिन भारतीय हिंदू वास्तुकला से प्रेरित है और जिसे प्राचीन हिंदू मंदिरों में देखा जाता है। हालांकि यह एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि आज भी इसे मस्जिद कह कर ही पुकारा जाता है।
दरअसल, इस इमारत का असली इतिहास यह है कि यह संस्कृत महाविद्यालय और देवी सरस्वती के मंदिर के अवशेषों पर बनी हुई संरचना है जिसे विग्रहराज चतुर्थ या बीसलदेव द्वारा बनाया गया था। बीसलदेव जो शकम्भरी चहमाना यानी जो चैहान वंश का राजा था। और यहां जो मंदिर थे उनके विषय में बताया जाता है कि वे मंदिर पौराणिक काल के मंदिर थे और उन मंदिरों में जो मूर्तियां थीं वे शुद्ध रूप से सोने की बनी हुई मूर्तियां थी जिनमें अनेकों प्रकार के हीरे जवाहरात जड़े हुए थे। इसके अलावा इन मंदिरों में अनेकों प्रकार के अभूषण और कीमती रत्नों की भरमार थी जिनको कि मोहम्मद गोरी लूटकर अपने साथ ले गया।
यह इमारत राजस्थान के अजमेर में स्थित प्रसिद्ध ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के बाद यह दूसरी सबसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक इमारत है। यह इमारत भारत के पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग की देखरेख में है। यह इमारत दुनियाभर के पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है और इसकी भारत-इस्लामी वास्तुकला का मिलाजुला रूप पर्यटकों को आकर्षित करता है।