डॉ. स्वप्निल यादव (लेखक एवं कवि) || प्रेम क्या है इसकी लाखों परिभाषाएँ आपको किताबों मे, कवियों की कविताओं और गज़लों मे मिल सकती हैं। ढूंढने वाले ढूंढ भी लेंगे, बंद कमरों मे बैठकर बौद्धिक मैथुन करने वाले सभ्य लोग बड़े बड़े तर्क सामने रखेंगे। बड़ी बड़ी साहित्यिक पुस्तकों को खंगाला जाएगा और संदर्भ दिये जाएँगे। मगर प्रेम कहीं शांत पड़ा भँवरे के भीतर उमड़ उमड़ कर फूल के चक्कर लगा रहा होगा।
प्रेम को किसी की जरूरत नहीं। अगर न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के नियम नहीं खोजे होते तो क्या गुरुत्वाकर्षण बल कार्य करना बंद कर देता। या चीजें जमीन पर गिरने की बजाए आसमान मे तैरने लगतीं। हमें सदियाँ लग गईं ये तय करने मे की सूर्य ग्रहों के चक्कर लगाता है या सभी गृह सूर्य के। मगर सभी गृह आपसी आकर्षण बल के कारण एक दूसरे से बंधे शांति से घूम रहे है। समाज के कुछ तथाकथित प्रतिष्ठित लोग ये समझ बैठते हैं कि मुर्गा बांग नहीं देगा तो दिन नहीं निकलेगा। और पूरी जाति, या धर्म के तानाशाह बन बैठते हैं।
पहले ये सोचिए कि आपने अपनी युवा पीढ़ी को दिया क्या है। बटा हुआ घर, भाइयों के झगड़े, दहेज के लिए जलती बहुए, पुरुष प्रधान समाज, जाति के आधार पर बटे गाँव, भाषा के आधार पर बटे राज्य और धर्म के आधार पर बटे देश। क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि देश की उच्च जतियों ने सदैव निम्न जतियों का शोषण किया, उनके छूए भोजन और पानी को छूने से इंकार कर दिया। हमारे अपने ही हमसे दूर हुये क्यूंकि हमने दीवारें बनाई कभी बांधने की डोर नहीं। फिर आप आज उन छोड़े हुये भाइयों की घर वापसी कर रहे हो।
समाज के बुजुर्गों के शायद ये समझना होगा कि आप अपनी आगे की पीढ़ी को खुद ऊबा चुके हो वो सेक्स को ही जीवन समझ बैठने की भूल कर बैठे हैं आपने उनका हाथ नहीं थमा इसलिए वो भटके, पश्चिम की सभ्यता की चकाचौंध में नहीं। युवा पीढ़ी अब इस सोंच से आगे निकल चुकी है वो अब मंगलयान बनाकर अंग्रेजों को चुनौती दे रही है ना कि सड़क कि दीवारों पर अंग्रेजों के लिए गालियां लिखकर या नारे लगाकर।
विवेकानन्द यही कहा करते थे कि तुममे एक सुई बनाने की छमता नहीं और तुम अंग्रेजों को गालिया दे रहे हो। युवाओं को भवुकता बनाम प्रेम के बीच के अंतर को समझना होग। हा विरोध होना चाहिए, बच्चों पर लगाम भी लगाई जानी चाहिए लेकिन उससे पहले उन्हे प्रेम और सेक्स के बीच का अंतर समझाएँ। लेकिन पहले उनके दिल मे अपने लिए विश्वास पैदा करवाएँ कि आप एक बेहतर समाज चाहते हैं। अपने दोहरे चरित्र से बाहर निकलें। जाति या धर्म संख्या से नहीं बचते बल्कि दिमाग कि ताकतों से बचते हैं। जो बेहतर होगा उसे तो प्रक्रति स्वयं भविष्य के लिए बचा लेगी नहीं तो तूफान, और भूकंप आपका सदियों से स्रजित सब कुछ समेत लेंगे।
युवाओं को ये भी समझना होगा कि चार दिन का आकर्षण प्रेम नहीं होता। सेक्स वंश को बढ़ाने कि युक्ति तो हो सकती है परंतु प्रेम कि जरूरत नहीं। दो व्यक्ति इसी धरती पर रहकर प्रेम करते हैं, उन्हे ये समझना होगा कि स्त्री कोई भोग की वस्तु नहीं है। वह सुख दुख की साथी है अगर सहजीविता सीखोगे तो बचोगे। अगर प्रेम दैहिक होगा तो जिस दिन शरीर खतम हो जाएँगे तो प्रेम भी खत्म हो जाएगा। कई सभ्यताएं खत्म हो गईं, बचा नहीं पाई खुद को बस रक्तपात और संघर्ष मे लगी रहीं।
वसुधेव कुटुम्बकम को मानने वाली भारतीय सभ्यता आज इसी लिए टिकी हुई है की हमने हर विदेशी को अपनाया, सबके हमारे यहाँ आए, हमने किसी से नहीं कहा की हमारी तरह भेष रखो, सब अपनी तरह रहे और भारतीय सभ्यता और मजबूत हुई है और आगे भी होगी। चंद लोग ना उसे मिटा पाएंगे और ना ही बचा पाएंगे ये उन दोनों का भ्रम मात्र है। प्रेम हमेशा जातिगत और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहा ये हमारा भ्रम है, वो तो किसी की यादों मे किताबों के बीच रखे सूखे गुलाबों मे सहेजा रहा। विरोध करने से चीजें खत्म नहीं होती, मटकी को जीतना ज़ोर से पानी मे डुबोऊगे वो उतने ज्यादा उछाल मारकर बाहर आएगी।