भारत सहित पूरे विश्व की परिस्थितियों का मूल्यांकन किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है कि सर्वत्र विकास ही विकास देखने को मिल रहा है। बड़े-बड़े पुल, आलीशान सड़कें, इमारतें, गाड़ियां एवं अन्य आधुनिक संसाधन लोगों के पास उपलब्ध हो रहे हैं। ऐशो-आराम की जिंदगी तमाम लोग जी रहे हैं और जो लोग उस लायक नहीं बन पाये हैं, वे उसके लिए प्रयासरत हैं किंतु इन सुख-सुविधाओं के बावजूद क्या कोई ऐसा दिखता है जो अपनी जिंदगी में पूर्ण रूप से खुशहाल, एवं आत्म संतुष्ट होकर मोक्ष की कामना लिए समाज में जी रहा हो। यदि इस बात का पूरी तरह मूल्यांकन किया जाये तो स्थिति इसके उलट ही दिखती है। मात्र कुछ लोगों को यदि छोड़ दिया जाये तो साफ तौर पर देखने को मिलता है कि सर्वत्र बेचैनी का आलम है।
भारत सहित पूरी दुनिया छोटी-बड़ी बातों को लेकर बेचैन एवं परेशान है। कोई बेटा एवं बहू कितना भी लायक क्यों न हो किंतु मां-बाप को इस बात का भय सताता रहता है कि कहीं बुढ़ापा कष्ट में न गुजरे या वृद्धाश्रम में न जाना पड़े। किसी परिवार में यदि सभी लोग कमा रहे हों किंतु एक भी बेरोजगार व्यक्ति को सहारा बहुत मुश्किल से मिल पाता है। कुल मिलाकर देखा जाये तो कुछ इसी प्रकार की स्थितियां भारत सहित पूरी दुनिया में देखने को मिल रही हैं। मानवीयता, नैतिकता, आध्यात्मिक ज्ञान, का निःस्वार्थ सेवा भाव इत्यादि का पूर्ण रूप से हरास हो चुका है।
ऐसी स्थिति में प्रश्न यही उठता है कि आखिर इन समस्याओं का समाधान क्या है? ऐसे में एक बात भारत सहित पूरी दुनिया में उभर कर आती है कि इस समस्या से निजात सिर्फ भारत ही दिला सकता है, वह भी अपनी पुरानी गौरवमयी परंपराओं एवं जीवनशैली की तरफ पुनः अग्रसर होकर। इस बात का यदि विश्लेषण किया जाये तो इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि यदि हम अपने गौरवमयी अतीत की ओर अग्रसर हो जायें तो हमें पुनः समृद्ध होने से कोई रोक नहीं सकता है। अतः, आज आवश्यकता इस बात की है कि हमें अपनी जड़ों को पुनः सींचने की आवश्यकता है यानी हमें अपने गौरवमयी अतीत की तरफ पुनः पूर्ण रूप से अग्रसर होने की नितांत जरूरत है। राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ज्ञान-विज्ञान, पर्यावरण संतुलन, योग, मानव शक्ति का उपयोग, नैतिक एवं मानवीय मूल्य एवं अन्य मामलों में भारत की अपनी विशिष्ट पहचान रही है।
अपनी इन्हीं गौरवमयी विरासत की बदौलत भारत को पूरी दुनिया का गुरु यानी विश्व गुरु कहा जाता था। यदि भारतीय आज इस मामले में थोड़ा सा भी सचेत हो जायें तो भारत पुनः विश्व गुरु बन सकता है। यह वही देश है जहां श्रवण कुमार जैसा पुत्र अपने अंधे एवं वृद्ध मां-बाप को कांवड़ में बैठाकर तीर्थयात्रा के लिए चला किंतु गलती से चक्रवर्ती राजा दशरथ के बाणों का शिकार हो गया किंतु उस समय इंसानियत एवं मानवता इतनी थी कि राजा होते हुए भी दशरथ ने पलायन करने की बजाय श्रवण कुमार के अंधे मां-बाप का सामना करना ही उचित समझा, भले ही उन्हें श्रवण कुमार के अंधे मां-बाप का क्रोध एवं श्राप झेलना पड़ा।
क्या आज के जमाने में ऐसा संभव है? आज-कल तो लोग गाड़ियों से टक्कर मारकर घायलों को सड़क पर तड़पता छोड़कर चले जाते हैं। आज के समय में भी वैसे ही लोगों की जरूरत है जो गाड़ियों से टक्कर मारकर भागें नहीं बल्कि घायलों को अस्पताल पहुंचायें एवं उनकी मदद करें। यहां तक कि अगर कहीं कोई पक्षी बीमार या घायल अवस्था में मिल जाता था तो उसके इलाज के लिए दौड़ते थे। हालांकि, सड़कों पर घायल लोगों की मदद करने वाले आज भी हैं तो जरूर किंतु उनकी संख्या को और अधिक बढ़ाना होगा।
अतीत में हमारी समाज व्यवस्था ऐसी थी कि कोई अपने आपको लाचार एवं मजबूर नहीं समझता था क्योंकि उसकी चिंता करने के लिए पूरा गांव एवं समाज हुआ करता था। किसी गरीब की कन्या की शादी करनी हो या उसके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में पूरा समाज मदद करता था किंतु क्या आज उस प्रकार का वातावरण है? आज के समाजसेवियों में तमाम लोग ऐसे हैं जो समाज सेवा कम करते हैं और ढोंग ज्यादा करते हैं। कभी-कभी तो कुछ आत्म सम्मानी लोग फोटो के साथ कोई मदद लेने की बजाय न लेना ही पसंद करते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकार के दिखावे से बचा जाये अन्यथा समाज सेवा मात्र दिखावा बनकर रह जायेगी।
हमारी सनातन संस्कृति में एक पुरानी कहावत प्रचलित है कि यदि किसी को दांयें हाथ से दान दिया जाये तो बांयें हाथ को भी पता न चले। वैसे भी हमारी सभ्यता-संस्कृति में गुप्त दान का बहुत महत्व रहा है। कहा तो यह भी जाता है कि दान यदि गुप्त नहीं रह पाता है तो उसका महत्व कम हो जाता है। हालांकि, आज भी तमाम लोग समाज सेवा के कार्य में निःस्वार्थ लगे हुए हैं किंतु इस निःस्वार्थ सेवा को और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में राजा और प्रजा के बीच बेहद मानवीयता का रिश्ता हुआ करता था। तमाम राजा वेश बदलकर आम जनता के बीच जाकर उनके दुख-दर्द का पता लगाते थे और आम लोगों से मिली प्रतिक्रिया के आधार पर शासन-प्रशासन की नीतियों में परिवर्तन भी करते थे। आज उसी प्रवृत्ति को पुनः विकसित करने की आवश्यकता है।
जनसंघ के संस्थापक सदस्य और पूर्व अध्यक्ष पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी का स्पष्ट तौर पर मानना था कि शासन-प्रशासन की तरफ से जो भी नीतियां बनें, वह ‘अंत्योदय’ यानी समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को आधार मानकर ही बनें। कोई भी नीति यदि समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनेगी तो किसी के साथ नाइंसाफी की संभावना नहीं रहेगी। देश की वर्तमान परिस्थितियों का मूल्यांकन किया जाये तो कमोबेश श्री नरेंद्र मोदी जी की सरकार उसी दिशा में आगे बढ़ रही है। प्रधानमंत्री जन-धन योजना, उज्जवला योजना, आवास योजना सहित तमाम योजनाएं ‘अंत्योदय’ पर ही आधारित हैं।
हमारी अतीत की पारिवारिक व्यवस्था ऐसी थी कि संयुक्त परिवार में कोई अपने को असहाय, अकेला एवं लाचार नहीं समझता था, किंतु आज स्वार्थपरता, आजादी एवं विकास के नाम पर संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। एकल परिवार व्यवस्था भारत सहित पूरी दुनिया में जोरों पर है। संयुक्त परिवार न होने की वजह से बच्चों को न तो संस्कार मिल पा रहे हैं और न ही उनका सर्वांगीण विकास हो रहा है। आत्म हत्याओं का बढ़ना इसी ओर इंगित करता है। संस्कारों के न होने की वजह से आज दो वर्ष की बच्ची से लेकर 80 वर्ष की वृद्धा तक सुरक्षित नहीं है।
तकनीकी तौर पर आधुनिक समाज कितना भी विकसित हो गया हो किंतु उससे संस्कार नहीं मिल पा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं रक्षामंत्री माननीय राजनाथ सिंह अकसर कहा करते हैं कि इंटरनेट से संस्कार नहीं मिल सकता है। संस्कार के लिए श्रेष्ठ गुरुजनों एवं श्रेष्ठ परिवार की आवश्यकता होती है इसलिए समाज को इसी तरफ अग्रसर होने की आवश्यकता है। युवा पीढ़ी एवं पूरे समाज में जब संस्कारों, नैतिक एवं मानव मूल्यों की रक्षा होगी तभी लाचार एवं बेबश के प्रति लोगों के मन में सहानुभूति जागृत होगी। हर कोई एक दूसरे के सुख-दुख में सम्मिलित होगा अन्यथा अराजकता का वातावरण और अधिक विकराल होता जायेगा।
आज देखने में आ रहा है कि जो लाग सर्वदृष्टि से संपन्न एवं खुशहाल हैं, वे भी किसी न किसी रूप में परेशान हैं। ऐशो-आराम की सभी सुख-सुविधाओं के बावजूद तमाम लोग अकसर बीमार रहने लगे हैं। दवाओं की मात्रा बढ़ने के साथ-साथ बीमारियां और भी लोगों को अपने आगोश में लेती जा रही हैं। इससे निजात पाने का मात्र एक ही उपाय है कि अपने अतीत की जीवनशैली की तरफ पुनः अग्रसर हुआ जाये। गौरतलब है कि हमारी अतीत में जो जीवनशैली थी, वह किसी भी व्यक्ति को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखने में सक्षम थी। रामायण एवं महाभारत के युद्धों में घायलों का इलाज पारंपरिक यानी आयुर्वेद के माध्यम से ही हुआ था।
आयुर्वेद को सीधे एवं स्पष्ट तौर पर विश्लेषित किया जाये तो कहा जा सकता है कि यदि भोजनालय को औषधालय में तब्दील कर दिया जाये या दोनों में समन्वय बैठा दिया जाये तो स्वास्थ्य संबंधी तमाम समस्याओं का निदान स्वतः हो जायेगा। लोगों को यदि यह मालूम हो जाये कि कौन सी खाद्य सामग्री किस रोग के इलाज में कारगर है तो अधिकांश बीमारियों का इलाज उसी से हो जायेगा अन्यथा एलोपैथ में तो बी.पी. एवं शुगर भी सदा के लिए ठीक नहीं हो सकता है। इसके लिए भी डाॅक्टर घूमने-फिरने एवं तनाव मुक्त रहने की सलाह देते हैं।
पर्यावरण प्रदूषण की वजह से आज लोगों का जीवन बेहद मुश्किल होता जा रहा है। पर्यावरण की यदि सीधे तौर पर व्याख्या की जाये तो कहा जा सकता है कि पंच तत्वों यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवं वायु में संतुलन होना चाहिए। यदि इनमें से किसी का भी संतुलन बिगड़ा तो पर्यावरण की समस्या खड़ी हो जायेगी। आज पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य ग्रहों पर जीवन यदि नहीं है तो उसका एक मात्र कारण यही है कि वहां पंच तत्वों में संतुलन या यूं कहें कि समन्वय नहीं है किंतु आज पृथ्वी पर भी इन पंच तत्वों का संतुलन पूरी तरह बिगड़ा हुआ है।
विकास की अंधी दौड़ में लोगों को यह नहीं पता है कि वे किस अंधी सुरंग की तरफ बढ़ रहे हैं? अतः, आज मानव की जिम्मेदारी बनती है कि वह पंच तत्वों को किसी भी प्रकार से भी हानि न पहुंचाये और उन्हीं की शरण में रहकर अपने सुखद जीवन की कल्पना को साकार करे अन्यथा पंच तत्वों में से एक भी तत्व का संतुलन बिगड़ा तो पृथ्वी ग्रह का भी हाल वैसा ही हो जायेगा जैसा अन्य ग्रहों का है।
इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि समुद्री वाहन एवं पर्यावरण मुक्त वाहनों को बढ़ावा दिया जाये। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में जिस प्रकार अनादि काल से ही नदियों, पेड़ों, जंगलों, पहाड़ों, पशु-पक्षियों एवं अन्य जानवरों को पूजने एवं संरक्षण की व्यवस्था एवं परंपरा मौजूद रही है, उसे और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है। सृष्टि के चींटी जैसे छोटे जीव को आटा डालने की परंपरा रही है के जहरीले जीव सांप को भी नागपंचमी तो दिन दूध पिलाने की परंपरा मौजूद रही है। इन सब परंपराओं एवं व्यवस्थाओं का मात्र एक ही मकसद रहा है कि प्रकृति के सभी जीवों का संरक्षण एवं संवर्धन होता रहे। हिंदू धर्म की आंतरिक शक्ति का आधार है वैज्ञानिकता।
विज्ञान का चाहे जितना भी महिमामंडन कर दिया जाये किंतु असलियत यह है कि धर्म विज्ञान से बहुत बड़ा है। विज्ञान धर्म की मात्र एक शाखा भर है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि हमारी अतीत की जितनी भी व्यवस्थाएं एवं परंपराएं हैं वे विज्ञान की कसौटी पर पूरी तरह खरी उतर रही हैं यहां तक कि भारतीय पंचाग की गणना को नासा भी सेकन्ड के हजारवें हिस्से तक सही मानता है। ये सब बातें युवाओं को बतानी एवं पढ़ानी होंगी। युवाओं को यह भी बताना होगा कि भारत की आत्मा भौतिकता नहीं बल्कि नैतिकता एवं अनुशासित जीवन है।
समाज को सर्वदृष्टि से सुखी एवं संपन्न बनाने के लिए समाज में जो पहले से रीति-रिवाज, व्यवस्थाएं, परंपराएं, तीज-त्यौहार एवं मेले हैं, उन्हें व्यापक स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किये जाने की आवश्यकता है। तीज-त्यौहार एवं मेलों से समाज में इंसानियत एवं मानवता पनपती है। लोगों का एक दूसरे से मेल-मिलाप बढ़ता है। छोटे-बड़ों के बीच संस्कारों एवं नैतिक मूल्यों का आदान-प्रदान होता है। ऐसे ही वातावरण में परिवार के बड़े-बुजुर्गों को पूरे परिवार एवं समाज के साथ रहने, बच्चों के साथ घूमने-फिरने का आनंद मिलता था। इससे बच्चे भी प्रसन्न रहते थे और उनके अंदर संस्कारों का आदान-प्रदान भी होता था।
आज की युवा पीढ़ी भले ही यह सोचे कि घर के बड़े-बुजुर्गों को मात्र सुख-सुविधाओं की आवश्यकता है किंतु सच्चाई यह है कि उन्हें बुढ़ापे में ऐशो-आराम एवं सुख-सुविधा की जिंदगी से ज्यादा जरूरी बेटे-बहू, नाती-पोतों एवं परिवर के अन्य लोगों के साथ की जरूरत है। आज भी अधिकांश बड़े-बुजुर्ग परिवार को ही अपनी पूंजी मानते हैं यानी उन्हें भौतिकता से अधिक परिवार एवं सामाजिकता की आवश्यकता है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि भारत सहित पूरी दुनिया को जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, परिवारवाद, भौतिकतावाद, विस्तारवाद, संग्रहवाद सहित अन्य सभी तरह की समस्याओं के मकड़जाल से निकलना है तो भारत की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की तरफ आना ही होगा। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। इस रास्ते पर जितना शीघ्र अग्रसर हो लिया जाये, उतना ही अच्छा होगा। द
– सिम्मी जैन (दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।