अजय सिंह चौहान || मूसी नदी के किनारे बसी तेलंगाना राज्य की राजधानी हैदराबाद के इतिहास को लेकर अधिकतर लोगों में यही भ्रम रहता है कि वे इस शहर के बारे में सब कुछ जानते हैं या फिर इसके पिछले मात्र 5 सौ या 8 सौ साल का जो कुछ भी इतिहास वे लोग सुनते या पढ़ते आ रहे हैं बस वही है हैदराबाद का असली इतिहास।
दरअसल, हैदराबाद का असली इतिहास मात्र 5 सौ या 8 सौ साल पुराना नहीं है। बल्कि इसके पहले भी यहां एक ऐसी सभ्यता और संस्कृति का बोलबाला रहा है जो आज से कहीं अधिक सभ्य थी और अपने धर्म और अध्यात्म के प्रति शत-प्रतिशत समर्पित हुआ करती थी।
प्राचीन भाग्य नगर, यानी आज का हैदराबाद शहर एक घनी आबादी वाला शहर बन चुका है जो भौगोलिक दृष्टि से दक्कन के पठार पर, मूसी नदी के किनारे बसा हुआ है।
हैदराबाद की अपनी भौगोलिक स्थिति कुछ इस प्रकार से है कि जहां एक ओर इसको दक्षिण का द्वार कहा जाता है वहीं इसे उत्तर भारत का भी द्वार कहा जाता है। यही कारण है कि यहां भारत की उत्तरी और दक्षिणी, दोनों ही परंपराओं और संस्कृतियों को भी उसी समावेश में देखा जा सकता है।
हैदराबाद का इतिहास –
कहा जाता है कि आज जिस स्थान पर हैदराबाद शहर बसा हुआ है वहां 14वीं शताब्दी तक एक घना जंगल हुआ करता था और सुल्तान क़ुलीकुतुबुलमुल्क वहां अक्सर, शिकार खेलने जाया करता था। सुल्तान को वो जगह पसंद आ गई और उसने वहां अपनी राजधानी बसाने का निर्णय ले लिया।
लेकिन इसके पहले, हमको यहां ये भी जान लेना चाहिए कि, जो इतिहासकार यहां ये मान रहे हैं कि, 14वीं शताब्दी तक यहां एक घना जंगल हुआ करता था, वहीं, उनको ये भी जान लेना चाहिए कि 14वीं शताब्दी में ही यहां मुगल आक्रांताओं ने पैर पसारना शुरू किया था। जबकि उस दौर में यहां काकतीय वंश का शासन हुआ करता था। यह वही काकतीय वंश था जो सन 1190 ई. में टूटकर बिखर गया और उन्होंने इस क्षेत्र में अपने अलग-अलग राज्य कायम कर लिए। जाहिर है, ऐसे में उनकी शक्तियां भी कम हो गईं।
तो उसका परिणाम ये हुआ कि इसका फायदा उठाने के लिए यहां मुगलों के आक्रमणों का दौर भी चल पड़ा। काकतीय राजाओं को अपने-अपने राज्य और धन संपदा को बचाने के लिए अलाउद्दीन खिलजी की सेनाओं से कई बार संघर्ष करना पड़ा। लेकिन, वे ज्यादा समय तक इसमें सफल नहीं हो सके। उसका परिणाम ये हुआ कि मुगल आक्रांताओं ने यहां अपने पैर पसारने शुरू कर ही दिए।
जाहिर है कि यहां मुगलों के आने से पहले भी हिंदुओं के कई सारे छोटे-बड़े शहर और गांव आबाद हुआ करते थे। तो फिर यहां ऐसा क्यों कहा जाता है कि हैदराबाद को सुल्तान क़ुलीकुतुबुलमुल्क ने बसाया था।
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हां अगर ये कहा जाये कि इस शहर का नाम बदल कर उस सुल्तान ने हैदराबाद कर दिया था, तब तो बात समझ भी आ जाती। लेकिन, चाहे ‘गुगल‘ हो या फिर ‘यू-ट्यूब‘, हर जगह हैदराबाद का इतिहास सर्च करने पर करीब-करीब सभी ने एक ही प्रकार का इतिहास बताया है कि, सन 1482 ई. में बहमनी राज्य के सूबेदार सुल्तान क़ुलीकुतुब ने ही हैदराबाद शहर को एक घने जंगल के स्थान पर बसाया था।
गोलकुंडा किले का इतिहास –
काकतीय वंश के नरेश गणपति ने यहां सन 1198 से 1261 के बीच अपना शासन चलाया था। इस बीच उन्होंने यहां की गोलकुंडा नाम की पहाड़ी पर एक अलीशान किले का भी निर्माण भी करवाया था और वहीं से वे अपना राजपाट चलाते थे।
मरम्मत के नाम पर सुल्तान क़ुलीकुतुब ने गोलकुंडा के उस किले में कुछ ऐसे अनावश्यक बदलाव करवाये कि उसके बाद से ये किला दक्षिण भारतीय हिंदू शैली की अपनी उस छवि से निकल कर एक मुगल शैली में बना किला दिखने लगा। जबकि गोलकुंडा के इस किले को लेकर हमको आज जो इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें इसको हिंदू राजा नरेश गणपति के समय का मात्र एक छोटा और अस्थायी निवास बताया जाता है।
हैदराबाद का इतिहास कहता है कि, 16वीं शताब्दी में गोलकुंडा के किले से चलने वाली मुगल सल्तनत ने अपना ठीकाना बदल कर इसकी राजधानी को एक नये नगर, यानी गोलकुंडा से करीब 15 किमी दूर, मूसी नदी के किनारे के दो प्राचीन नगरों में ले जाने का फैसला किया, जिनके नाम ‘चिचेलम’ और ’पाटशिला’ हुआ करता था।
‘चिचेलम’ और ’पाटशिला’ नाम के इन दोनों ही नगरों के पास प्राचीन काल का एक बहुत ही प्रसिद्ध नगर हुआ करता था जो ‘भाग्य नगर‘ के नाम से हमारे पौराणिक ग्रंथों और कई किस्से-कहानियों में पढ़ने और सूनने को मिल जाता है।
‘चिचेलम’ और ’पाटशिला’ नाम के वे दोनों ही नगर उस समय ‘भाग्य नगर‘ के अंतर्गत आते थे। और भाग्य नगर के अंतर्गत आने वाले उन्हीं ‘चिचेलम’ और ’पाटशिला’ नाम के कस्बों में से एक ‘चिचेलम’ में मौजूद था प्राचीन युग का एक ऐसा मंदिर जो भाग्य लक्ष्मी मंदिर के नाम से प्राचीन हिंदू तीर्थ के तौर पर जाना जाता था।
भाग्य लक्ष्मी मंदिर का पौराणिक इतिहास –
तो, माना जाता है कि भाग्य लक्ष्मी मंदिर उस समय तक दक्षिण भारत के उन प्राचीन भारतीय धार्मिक स्थानों में से एक माना जाता था जहां पर दूर-दूर से तीर्थ यात्री आते थे। आज वो भाग्य लक्ष्मी मंदिर अपने मूल स्थान पर है या नहीं इस बारे में कुछ भी कहना कठीन है।
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लेकिन, कुछ इतिहासकार दबी जुबान में ही सही कम से कम ये बात तो मानते ही हैं कि शायद यही वो भाग्य लक्ष्मी मंदिर है जो यहां की चार मिनार के नीचे मौजूद है।
जबकि, कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जो ये मानते हैं कि आज जिसको हम लोग मुगलकाल में निर्मित चार मिनार कहते हैं, ये वही इमारत है जो काकतीय वंश के नरेश गणपति द्वारा बनवाया गया भाग्य लक्ष्मी मंदिर का ही एक हिस्सा है जो अब समय के साथ-साथ विवादित भी बन चुका है और अस्तित्वहीन ही हो चुका है।
हालांकि, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ये मानते हैं कि भाग्यलक्ष्मी मंदिर के बारे में 500 वर्षों तक का ही स्पष्ट इतिहास है, जबकि इसके पहले की कोई खास जानकारियां नहीं मिलतीं। जबकि अधिकतर लोग यही मानते हैं कि भाग्य लक्ष्मी का यह मंदिर एक ग्राम देवी के तौर पर हुआ करता था।
लेकिन, वे लोग ये बात भी मानते हैं कि यहां पर प्राचीन काल के इतिहास में दो ऐसे पत्थरों का जिक्र मिलता है जिनमें, यहां के हिंदू लोग अटूट श्रद्धा रखते थे और उनकी पूजा-पाठ भी करते थे। संभव है कि इसलिए यहां पर एक भव्य मंदिर भी बनवाया गया था। ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि शायद यही वो स्थान है जिसे आज भाग्य लक्ष्मी मंदिर के नाम से जाना जाता है।
हैदराबाद से जुड़ा भागमती का भ्रम –
अब हम बात करेंगे हैदराबाद से जुड़े भागमती के उस झूठ के बारे में जिसको कि इतिहासकारों ने बिल्कुल नकार दिया है।
तो 16वीं सदी में हुए हैदराबाद के नामकरण के विषय पर लिखी गई एक किताब ‘फाॅरेवर हैदराबाद‘ के लेखक और इतिहासकार, मोहम्मद सफीउल्लाह के तथ्यात्मक विश्लेषण को समझने और जानने के बाद साफ-साफ निष्कर्ष निकलता है कि जिस भागमती नाम की किसी प्रेमिका का नाम सुल्तान से जोड़ कर देखा जाता है और उसका प्रचार किया जाता है, उसी भागमती के नाम से इसको भाग्य नगर कहा जाता था।
लेखक और इतिहासकार, मोहम्मद सफीउल्लाह का कहना है कि, वास्तव में तो कोई भी ऐसा ऐतिहासिक तथ्य या पात्र, यहां मौजूद ही नहीं था कि जिसके कारण इसे भाग नगर कहा जाने लगा।
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इसके अलावा यहां ये भी पढ़ने को मिलता है कि सुल्तान क़ुली कुतुब शाह के द्वारा गोलकुंडा की आबादी को यहां लाकर बसाया गया और इस नगर को बिल्कुल नये अंदाज में एक कलापूर्ण ढंग से बनाया गया था।
जबकि सच तो ये है कि सुल्तान क़ुली कुतुब से पहले ही ये नगर यहां मौजूद था और इसका नाम था भाग्य नगर। ये भाग्य नगर एक आर्थिक और प्रभावशाली नगर के रूप में यहां पहले से ही बसा हुआ था। बस इसका राजपाट ही गोलकुंडा से चल रहा था।
क्या कहते हैं लेखक और इतिहासकार –
लेखक और इतिहासकार मोहम्मद सफीउल्लाह के द्वारा लिखित किताब ‘फाॅरेवर हैदराबाद‘ के अनुसार, हैदराबाद के इतिहास से जुड़ी 16वीं सदी की ऐसी कोई भी नक्काशी, पांडुलिपि, शिलालेख, सिक्के, मजार या फिर स्मारक मौजूद ही नहीं है, जिनसे कि सुल्तान से जुड़ी भागमती की उस कहानी की पुष्टी हो सके।
हालांकि, भागमती के दावे के लिए दो पेंटिंग्स जरूर बताये जाते हैं, लेकिन वो भी 18वीं और 19वीं सदी की हैं। लेकिन 16वीं सदी की उस भागमती के बारे में तो कुछ भी प्रमाण मौजूद नहीं हैं। तो फिर सवाल आता है कि इस नगर को सुल्तान क़ुली कुतुब शाह ने भाग नगर नाम कैसे दिया? यानी हैदराबाद कहलाने से पहले इस शहर को भाग्य नगर या भाग नगर क्यों कहा जाता था?
ऐसे में सवाल यहां ये भी उठता है कि क्या किसी भी ऐसे काल्पनिक पात्र के नाम पर किसी भी शहर या जगह का नाम कैसे बदला जा सकता है, जिसके बारे में कुछ भी पुख्ता प्रमाण नहीं हैं? एक अन्य लेखक ने भी इस बारे में कहा है कि ये मात्र एक काल्पनिक कहानी और पाॅलिटिकल एजेंडा ही रहा होगा।
लेकिन, यहां हमको हैदराबाद के उस प्राचीन नाम, यानी भाग्य नगर से जुड़े कई ऐसे प्रमाण मिल जाते हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि आज भी यहां के मूल निवासियों द्वारा इसके उसी प्राचीन नाम, भाग्य नगर के प्रयोग में कोई एतराज नहीं है।
भले ही एक प्रकार से कुछ लेखक और इतिहासकार, हैदराबाद के उस प्राचीन नाम ‘भाग नगर‘ को या ‘भाग्य नगर’ को नकारना चाहते हों और इसे पूरी तरह से हैदराबाद ही मान कर चलें। लेकिन, इसके मुगल काल से भी पहले के उस पौराणिक और धार्मिक महत्व और इसके इतिहास को कैसे नकार सकेंगे?