फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में स्थित ‘यूनिवर्सिटी ऑफ हेलसिंकी’ के वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में किये गये एक अध्ययन से पता चला है कि पृथ्वी ग्रह पर लगातार बढ़ते जा रहे जलवायु परिवर्तन के कारण पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्रों में हजारों-लाखों वर्षों से बर्फ की गहराईयों में दबे हुए प्राचीनतम युग के रोगाणु एकाएक बाहर आने लगे हैं।
यह समस्या हमें उन क्षेत्रों में देखने मिल रही है जो आर्कटिक के क्षेत्रों और अलास्का, ग्रीनलैंड, रूस, चीन और उत्तरी और पूर्वी यूरोप के कुछ हिस्से हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इनमें से करीब-करीब 1 प्रतिशत रोगाणु भी अगर बाहर आ जायेंगे तो हमारे आज के इकोसिस्टम के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा कर सकते हैं।
जियोवन्नी स्ट्रोना जो कि यूनिवर्सिटी ऑफ हेलसिंकी में इकोलॉजिकल डेटा साइंसेज के प्रोफेसर और इस अध्ययन के सह-लेखक हैं, उनका कहना है कि – ‘इसे हम इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि ‘अतीत से आने वाले इन आक्रमणकारियों’ के द्वारा पृथ्वी के वर्तमान इकोसिस्टम पर संभावित असर को शुरूआती रूप में मॉडलिंग करने का पहला प्रयास या किसी हॉरर फिल्म का एक छोटा सा ट्रेलर भी कह सकते हैं।’
दरअसल, जिन स्थानों पर इन रोगाणुओं के जिंदा होने का या बाहर आने का खतरा बन रहा है वह ‘पर्माफ्रॉस्ट’ स्थान आर्कटिक के कुछ क्षेत्रों और अलास्का सहीत ग्रीनलैंड, रूस, चीन के साथ-साथ उत्तरी और पूर्वी यूरोप के कुछ अन्य हिस्सों में भी पृथ्वी की सतह पर या उसके नीचे पाया जाता है।
‘पर्माफ्रॉस्ट’ ऐसे स्थान हैं जो लाखों-करोड़ों वर्षों से बर्फ के नीचे दबी हुई और बंधी हुई मिट्टी, बजरी और रेत का मिश्रण होते हैं। ऐसे स्थान आर्कटिक के क्षेत्रों और अलास्का, ग्रीनलैंड, रूस, चीन और उत्तरी और पूर्वी यूरोप के कुछ हिस्सों में पृथ्वी की सतह पर या उसके नीचे पाये जाते हैं।
जब पृथ्वी के सबसे अधिक बर्फीले और ठंडे क्षेत्रों में ‘पर्माफ्रॉस्ट’ के रूप में यह भूमि बनी है तब, इसके अंदर उस समय के पाये जाने वाले कई खतरनाक बैक्टीरिया और वायरस जैसे सूक्ष्म जीव फंस गये और हजारों ही नहीं बल्कि लाखों वर्षों से बिना कोई हरकत किए आज भी जीवित हैं। ये ‘पर्माफ्रॉस्ट’ स्थायी रूप से बर्फ के नीचे जमे हुए आर्कटिक के कुछ मैदान, ऊंचे बर्फीले पहाड़ और पृथ्वी के उच्च अक्षांशों जैसे उत्तरी और दक्षिणी धु्रवों में सबसे आम स्थान हैं। ऐसे स्थानों का तापमान -32 डिग्री सैल्सियर या इससे भी कहीं अधिक ठंडा होता है।
वैज्ञानिकों द्वारा आज हमें ऐसे ही जिन हजारों-लाखों वर्षों से दबे हुए प्राचीन रोगाणुओं के दोबारा सक्रिय होने का अंदेशा मिल रहा है उसका कारण असल में ग्लोबल वार्मिंग है। क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग का असर पृथ्वी के हर एक हिस्से पर होता जा रहा है और उसको देखते हुए गर्मी के कारण मेटाबॉलिक प्रक्रिया शुरू हो सकती है जो इन निष्क्रिय रोगाणुओं को न सिर्फ दोबारा सक्रिय कर सकती बल्कि बाहर आने में भी मदद कर सकती है।
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वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर हमारे सामने अतीत से आया कोई रोगाणु होगा तो जाहिर है कि हमारा सामना स्पष्ट रूप से किसी नए तरह के जोखिमों से ही होगा। लेकिन, अगर कोई रोगाणु या बैक्टीरिया लंबे समय से हम इंसानों या पशुओं के साथ रह रहे होते हैं तो उन रोगाणुओं और हमारे बीच कुछ सहयोग या विकास की उम्मीद कर सकते हैं, जो पारिस्थितियों के अनुरूप रोगाणुओं का खतरा कम कर देता है। यानी, अतीत से आने वाले उन रोगाणुओं से निपटने के लिए हम बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं।
यहां यदि हम वर्ष 2016 में साइबेरिया के क्षेत्र में हुई इसी प्रकार की एक घटना के बारे में बात करें तो ग्लोबल वार्मिंग के चलते ‘पर्माफ्रॉस्ट’ के पिघलने के बाद वहां से बाहर आने के कारण ऐसे ही कुछ प्राचीन रोगाणुओं ने बर्फीले क्षेत्रों में रहने वाले हजारों बारहसिंगों की जान ले ली थी, और दर्जनों लोग भी प्रभावित हुए थे। उसी घटना के आधार पर वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि, लोबल वार्मिंग के चलते अतीत से आने वाले ये रोगाणु हमारे लिए कभी भी किसी बड़े संभावित खतरे को पैदा कर सकते हैं क्योंकि आज का इंसान या कोई भी वन्य जीव इनके दूष्प्रभावों से अनजान हैं।
– अशोक सिंह