अजय सिंह चौहान || क्या बाॅलीवुड की फिल्मों में बेमतलब का मनोरंजन होता है या फिर उसका कोई सेंस भी होता है? आखिर बाॅलीवुड हमें दिखाना क्या चाहता है? क्या इसमें कोई नाप-तोल भी होता है कि दर्शकों को इससे कम नहीं दिखाया जायेगा, या फि इससे ज्यादा गलत भी नहीं दिखा सकते? क्या सेंसर बोर्ड का काम सिर्फ आंखे बंद करके फिल्मों को पास करते जाना होता है या फिर आंखे खोल कर भी कभी फिल्में पास की हैं?
क्या हमारी फिल्मों को पास करने वाले सेंसर बोर्ड में भारतीय मानसिकता वाले लोग भी हैं जो भारत के लिए सोचते हों? क्या सेंसर बोर्ड में भारत के लिए भी काम हो रहा है? क्या सेंसर बोर्ड में भारतीयता का मतलब भी पता है?
जबकि अगर हम विदेशी फिल्मों की बात करें तो साफ-साफ जाहिर होता है कि दूसरे देशों की फिल्में अपने ही देश और कल्चर को बढ़ावा देतीं हैं, और वहां के निर्माता-निर्देशकों में ना तो इतनी हिम्मत होती है और नाही वे खुद भी ऐसा करते हैं कि वे अपने ही देश की बुराई सीधे-सीधे कर सके। तो फिर ये बिमारी भारत के या बाॅलीवुड के निर्माता-निर्देशकों में क्यों पनप रही है?
लेकिन, अगर यहां आप ये कहें कि इंडियन फिल्म इंडस्ट्र में बनने वाली फिल्मों में हिरो और हिरोइन्स तो भारतीय ही होते हैं। उसकी अधिकतर लोकेशन्स भी भारत की ही होती हैं। उनके प्रोड्यूसर और डायरेक्टर्स भी तो हमारे ही देश के लोग होते हैं। तो भला ऐसे में कैसे पता चलता है कि उनमें भारतीयता नहीं दिखाई देती।
तो अगर कोई आप से ऐसे सवाल करें तो उनके लिए एक मात्र और सीधा सा जवाब है कि आप उन फिल्मों में करण जौहर या फिर यश चोपड़ा जैसों के प्रोडक्शन में बनी किसी भी फिल्म को देख लीजिए। ज्यादातर फिल्मों की लोकेशन तो विदेशी धरती पर ही फिल्माई जाती हैं या फिर उन फिल्मों में ज्यादा से ज्यादा विदेशी बैकड्राॅप वाली कहानियां ही परोसी जाती हैं। जैसे कि करण जौहर या फिर यश चोपड़ा के प्रोडक्शन में बनी करीब-करीब सभी फिल्मों की हिराइनें हों या फिर उनके हीरो, सब के सब बेमतलब और बेवजह के अंग्रेजी शब्दों का इस्तमाल करते हुए भी दिखाए जाते हैं।
बाॅलीवुड में बनने वाली ज्यादा से ज्यादा फिल्मों में आजकल विदेशी कल्चर को प्रमोट करते हुए दिखाने का फैशन चल पड़ा है। ऐसे में बिना वजह के इन फिल्मों में चर्च को भी दिखाया जाता है और फिर वहां प्रार्थना करने वाले लंबे-लंबे सीन दिखाकर उनमें बेमतलब का ढोंग भी दिखा दिया जाता है।
बाॅलीवुड की फिल्मों में कभी-कभी तो बेमतलब के कन्फेस करते हुए और चर्च के पादरी को धर्म का पालन करने वाला एक सबसे सच्चा और सबसे बड़ा दयालु दिखाने का ढोंग किया जाता है। अब यहां ऐसी एक या दो फिल्में हों तो उनका नाम भी लिया जा सकता है लेकिन, ऐसी कई फिल्में हैं जिनमें इस तरह की नौटंकी दिखाई जाती है।
और तो और इन फिल्मों में बेवजह के या यूं कहें कि ज्यादातर बेसूरे और अंग्रेजी शब्दों से भरपूर गानों को भी जबरन घूसा दिया जाता है और ऊपर से उनमें उटपटांग उर्दू शायराना अंदाज भी झाड़ा जाता है जो न तो याद रखने लायक होते हैं और ना ही गुनगुनाने के काबिल होते हैं।
ऐसी फिल्मों की हीरोइनें 4 से 5 मिनट के एक गाने में 20 से 30 बार साड़ियां बदल-बदल कर अंग प्रदर्शन भी करतीं रहती हैं। लेकिन, उसी गाने में हीरो को सिर्फ 4 से 5 बार ही कपड़े बदले हुए दिखाया जाता है।
यहां हिरोइन्स के साड़ी पहनने पर नहीं बल्कि, साड़ी पहनने के तरीकों पर ऐतराज किया जाना चाहिए, क्योंकि हिरोइन्स कब, कहां और कैसे साड़ी पहनती हैं या उसे किस तरह से पहनाया गया है ये तो उसी पर निर्भर करेगा कि अंग प्रदर्शन हो रहा है या वो उस साड़ी में सभ्य लग रही है?
तो, यहां एक सिधी सी बात यही समझ में आती है कि इन फिल्मों के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर्स को साड़ी में ज्यादा से ज्यादा ग्लेमर नजर आता है। वो भी उस साड़ी में जो हमारे लिए सभ्यता और संस्कृति का सबसे बड़ा माध्यम है।
दरअसल बाॅलीवुड को भी ये बात अच्छी तरह से पता है कि साड़ी वो पारंपरिक कपड़ा है जिसे भारतीय समाज आज भी सभ्यता, मानमर्यादा और बड़ों का आदर करने वाली पोषाक मानता है। इसीलिए तो बाॅलीवुड में पलने वाले निर्माता निर्देशकों का एक तबका, उस मानमर्यादा वाली पोषाक पर सीधे हमला करने की फिराक में रहता है।
ऐसी फिल्मों के ये प्रोड्यूसर और डायरेक्टर्स भला ऐसा क्यों करते हैं, ये तो वे ही जानते होंगे। लेकिन इतना जरूर है कि इससे उनकी उस मानसिकता का पता चलता है जो वे हिरोइन्स को बार-बार अलग-अलग और कम से कम कपड़ों में दिखाना या खुद भी देखना चाहते हैं। और यहां फिर वही बात आती है कि इन फिल्मों में भारतीयता को छोड़ कर बाकी सब कुछ देखने को मिल जाता है।
इस तरह की मूवीस में आइटम सांग करने वाली कुछ हिरोइन्स तो कोई छोटी-मोटी या साधारण नहीं होतीं। बल्कि इससे पहले भी ये हिरोइन्स कई अच्छी और बड़े बैनर की फिल्में दे चुकी होतीं हैं। इसके अलावा यहां ऐसा भी नहीं देखा जाता है कि इन हिरोइन्स को काम की कमी होती है इसलिए वे मजबूरी में ऐसा करतीं हैं।
भला ऐसा क्या कारण है कि हमारी बाॅलीवुड फिल्म इंडस्ट्री में बेमतलब का रोमांस, मारधाड़, नशा और ग्लैमर का इस तरह का बेमतलब तड़का लगाया जा रहा है जिसकी बिल्कुल भी जरूरत नहीं है।
यहां बात सिर्फ बाॅलीवुड की हिरोइन्स की ही नहीं हो रही है बल्कि इन फिल्मों में काम करने वाले हिरो भी ज्यादातर नशेड़ी, बदमिजाज और अय्यास किस्म की एक्टीविटिस में माहिर होते जा रहे हैं। और ये बातें कोई मनगढ़ंत नहीं हैं बल्कि इनकी जिंदगी की सच्चाई के बारे में आये दिन हमको सोशल मीडिया से या फिल्मी पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रहती हैं।