– कैलाश मन्दिर को सात अजूबों में शामिल किया जाए।
– आर्कियोलोजिस्ट की रिसर्च में यह बात सामने आई थी कि, इन गुफाओं में रेडिएशन है।
– कैलाश मंदिर के नीचे कुछ तो विशेष है जो रहस्यमय बना रहा है।
महाराष्ट्र की इला गंगा नदी के पास स्थित एलोरा गांव की चरणानंद्री पहाड़ियों को काट कर तैयार की गई एलोरा की गुफाओं के विषय में आज हमारे सामने पर्याप्त जानकारियां या तथ्य मौजूद नहीं है। इन्हीं संरचनाओं और गुफाओं में से प्रमुख संरचना जिसे हम कैलाश मंदिर के नाम से जानते हैं यह दुनियाभर के लिए रहस्यमय मन्दिर बना हुआ है, यह मंदिर देखने में जितना अद्धभुत दिखता है, इसे बनाने की तकनीक और कला भी उतनी ही रहस्यमय है। कुछ दशकों पहले तक भी इसमें की कुछ विशेष गुफाएं आम पर्यटकों के लिए खुली हुईं थीं, लेकिन, अब उन्हें पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। इसके पीछे कारण भी आज हमारे लिए रहस्य बने हुए हैं?
सोशल मीडिया में यूं तो इस कैलाश मंदिर से जुड़ी तमाम प्रकार की जानकारियां मौजूद हैं लेकिन, इस संरचना का वास्तविक और प्राचीन इतिहास क्या है यह किसी को नहीं मालुम। स्वयं विज्ञान भी कभी-कभी तो यह मानने लगता है कि हो न हो किसी अदृश्य शक्ति या अलौकिक शक्ति के द्वारा इस संरचना का निर्माण किया होगा। इसके पीछे के तर्क यदि हम देखें तो हमारे सामने ऐसे तमाम तथ्य और तर्क मौजूद हैं जिनके आधार पर हम स्वयं भी यह मान सकते हैं कि हो न हो इस संरचना का निर्माण किसी अलौकिक शक्ति के द्वारा ही किया गया है। क्योंकि –
– बेसाल्ट पत्थरों को काटना और उसे तराशना, उन पत्थरों पर अद्वितीय मूर्तियों को उत्तकीर्ण करना बहुत ज्यादा कठिनाई वाला काम है।
– मंदिर निर्माण कार्य की तिथि सटीक नहीं है, साथ ही इसमें भगवान शिव की पूजा अर्चना क्यों नहीं हो रही हैं।
– मंदिर के नीचे कई गहरी गुफाएं और कक्ष, तहखाने मौजूद हैं, इन्हें बनाने का क्या उद्देश्य था।
– 17 या 18 साल तक 4 लाख टन पत्थरों को, और वो भी 7,000 लोगों के द्वारा और नीचे तहखाने, गुफाओं का निर्माण कार्य, मूर्तियों को तराशना, मूर्तियों को उत्तकीर्ण करना वह भी अलंकरण के साथ कैसे सम्भव हो सकता है।
– अगर 7,000 लोग 12 घण्टे बिना रुके काम करते हैं, तब भी वे 17 या 18 साल में केवल 85,000 टन पत्थरों को ही काट सकते हैं।
– गुफाओं में एक निश्चित स्थान से रेडिएशन कैसे आ रहा है।
– हम उन महान शिल्पकारों और वास्तुकारों को सादर प्रणाम करते हैं, कि उन्होंने प्राचीन भरतीय मंदिरों का निर्माण कार्य दुनिया भर में अद्वितीय किया है।
कैलाश मंदिर जैसा अन्य कोई भी मंदिर भारत के अन्यत्र स्थान पर क्यों नहीं है। जबकि, 700 ई. 800 ई. के बाद बहुत सारे भव्य मंदिरों का निर्माण कार्य हुआ है, सुंदर अलंकृत प्रतिमाएं, बनी है। फिर भी कैलाश मन्दिर जैसा मन्दिर क्यों नहीं बन पाया? तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि कोई पराग्रही यानी किसी दूसरे ग्रह का प्राणी इन संरचनाओं और उच्चतम स्तर की मूर्तियों का निर्माण कार्य क्यों करेगा, क्या वे शिवभक्त थे? क्या वे हिन्दू धर्म के अनुयायी थे?, और वो भी विशेषकर भगवान शिव के?
हमारे देश में पत्थरों पर की जाने वाली नक्कासी पूरी दुनिया की समृद्ध परंपराओं में से एक और सबसे अलग है। सातवीं सदी ई. में यहां पर शिल्पकारों का समुदाय रहता था। इनका शिल्पकला का कार्य वंशानुगत था। पिता से पुत्र को यह कला मिलती थी। राजस्थान में यह परंपरा आज भी चली आ रही है। कैलाश मंदिर का निर्माणकार्य ऊपर से नीचे की ओर किया गया है। ऐसा लगता मानो इसमें स्टील राॅड और ड्रिल मशीनों का उपयोग हुआ है। आज भी राजस्थान में इसी प्रकार से मंदिर निर्माण कार्य होता है। जब पूछा जाता है तो बताया जाता हैं कि यह विधि कई सदियों से हम उपयोग में लाते है। यहां पर मूर्तियों को देखकर पता चलता है कि इन मूर्तियों को अलग अलग समयावधि ने उत्तकीर्ण किया गया है।
उदाहरण के लिए पत्थर की नक्काशी की शास्त्रीय परम्परा, वास्तुकला के साथ घनिष्ठ संबंध है। ये एक दूसरे से जुडी हुई है। वास्तुकला पल्लव काल, चालुक्य काल को दिखाती हैं। विरुपाक्ष मन्दिर के साथ इसकी शैली और कला में समानता देखने को मिलती हैं। प्रश्न और रहस्य बहुत हैं, क्यों अमेरिका के एरिया 51 ए और 52 बी में किसी भी व्यक्ति का जाना या वहां की सूचना बाहर आना, वहां पर काम कर रहे लोगों को वहीं पर रहना बाहरी दुनिया के लोगों के साथ कोई संपर्क पर सख्त प्रतिबंधित किया है। वहां पर कोई भी नेटवर्क नहीं है और नहीं कोई सेटेलाइट उसके ऊपर नजर डाल सकता है, यही नहीं कोई भी विमान उस एरिया के आसमान में उड़ नहीं सकता हैं। फिर भी दबी-कुचली सूचनाएं अमेरिका के एरिया 51 से आ ही जाती है।
इसी तरह भारत के महाराष्ट्र के एलोरा में कैलाश मन्दिर एक रहस्यमय माना गया है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा के जंगलों में एक बेसाल्ट पत्थरों की पहाड़ियों पर बहुत सी गुफाएं है। यहां पर एक शिवालय विज्ञान और पुरातत्व के वैज्ञानिकों के लिए रहस्यमय बना हुआ है। कैलाश मंदिर का निर्माण कार्य संदेहास्पद है, यह मन्दिर हमारे प्राचीन भारत के गौरवशाली इतिहास का अद्धभुत आर्किटेक्ट है।
इतिहास और साहित्य में इस मंदिर का निर्माणकार्य राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम की पत्नी ने 756 ई. से लेकर 773 ई. तक करवाया था। जहां तक निर्माण कार्य का प्रश्न है, वह इस मंदिर के अभिलेखों के अभाव में साबित नहीं हो रहा। एक अभिलेख है, जो इतना ज्यादा खराब हो चुका है, कि इसे पढ़ पाना मुश्किल है। इसे पढ़ा ही नहीं गया क्योंकि कोई भी शब्द या अक्षर किसी भी लिपि से मिलती जुलती नहीं है। अगर मिल भी रही हो तो वो पढ़ नहीं सकते या शब्द नहीं बना सकते है।
किसी भी आर्किटेक्ट का जब निर्माण कार्य होता है तो वह भूमि पर नींव से शुरु होता है और शिखर तक सम्पूर्ण होता है। यहां बिल्कुल ही अलग परिस्थिति है, मंदिर का निर्माण कार्य शिखर से शुरु हुआ और भूमि पर सम्पूर्ण हुआ। चाहे वो गिजा के पिरामिड हो या माचू पिच्चु या हमारे देश के नालन्दा विश्वविद्यालय। सभी आर्किटेक्ट नीचे से उपर बनाये गए है।
यहां पर पत्थरों को काट-काट कर उन्हें खोखला किया गया, तराशा गया, अलंकरण किया गया। स्तम्भ, द्वार,मूर्तियां सभी अद्धभुत हैं। इसके अलावा बारिश के पानी की निकासी के लिए नालियों के साथ पानी स्टोरेज सिस्टम भी बनाया गया है। मंदिर के नीचे बहुत गहराई तक गुफाओं, तहखानों, कक्षों का निर्माण कार्य किया गया है। अंडर ग्राउंड रास्ते बनाये गए सब कुछ अकल्पनीय, अद्वितीय है।
आज के वैज्ञानिकों शोधकर्ताओं का अनुमान है कि, इस पहाड़ी से लगभग 400,000 टन पत्थरों को काटा गया होगा। पुरातत्वविदों की मानें तो 7,000 लोग 150 साल तक ऐसा निर्माण कार्य कर सकते हैं। लेकिन स्त्रोतों की मानें तो महज यह मन्दिर मात्र 17 वर्षों में बन कर तैयार हो गया था। जिस तरह से मन्दिर का निर्माण कार्य हुआ, पत्थरों की बहुत बारीक कटिंग की गई। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें लेजर किरणों से इन्हें काटा गया था। इतनी सूक्ष्म अलंकृत मूर्तियों का निर्माण कृष्ण प्रथम के समय में किया गया था। लेकिन ऐसे उपकरण उस समय उपलब्ध नहीं थे।
कैलाश मंदिर देखने में जितना अद्धभुत दिखता है, इसे बनाने की तकनीक और कला भी उतनी ही रहस्यमय है। इसमें जितने रहस्य मंदिर के साथ जुड़े हुए हैं। इससे कहीं ज्यादा रहस्य मन्दिर की गुफाओं में है। कुछ दशकों पहले तक कुछ गुफाएं आम पर्यटकों के लिए खुली हुईं थीं, आज उन्हें पूरी तरह से शाशकीय आदेश के कारण बंद कर दिया गया है। इसके पीछे कारण भी आज हमारे लिए रहस्य बने हुए हैं?
साहित्यिक और भावनात्मक दृष्टिकोण से कैलाश मन्दिर के निर्माण कार्य की प्रक्रिया को इतिहास कुछ इस तरह से बता रहे है- कृष्ण प्रथम कोई गंभीर बीमारी से ग्रस्त थे। उनकी पत्नी ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि, ‘‘मैरे पति जब तक बीमारी से ठीक नहीं हो जाते मैं अन्न ग्रहण नहीं करूंगी, साथ ही यह संकल्प लिया था कि, जब तक शिवालय का शिखर न देख लूं तब तक अन्न ग्रहण नहीं करूंगी।’ मंत्रियों ने सलाह दी थी कि, ऐसे मंदिर के निर्माण कार्य में कई वर्ष लग जाएंगे, आप इतने दिनों तक कैसे यह व्रत रख पाओगी।
धरोहरों का दुर्भाग्य – एक तरफ तो जोड़ रहे हैं दूसरी तरफ तोड़ रहे हैं
मंत्रियों की आपात बैठक हुई और कम से कम समय में मंदिर निर्माण कार्य संपूर्ण करने की योजनाएं बनने लगी। निर्णय लिया गया कि मन्दिर का निर्माण कार्य किसी पहाड़ी को ऊपर से काट कर शुभारंभ करते है। पहले शिखर का निर्माण किया गया, लेकिन महारानी का व्रत संकल्प पूर्णतः मंदिर निर्माण कार्य से था। ऐसे में स्वयं महारानी ने भगवान शिव से प्रार्थना की, कि भगवान शिव उनकी मन्दिर निर्माण कार्य में मदद करें। भगवान शिव ने एक उपकरण दिया जिसे ‘‘भौम अस्त्र’’ कहा गया। यह उपकरण मंदिर के निर्माण कार्य में बहुत तेजी से उपयोग में लाया गया था। कहा जाता हैं कि, यह उपकरण लेजर कट कर वेस्ट मटेरियल को भाप बना कर आसमान में उड़ा दिया करता था। इधर कृष्ण प्रथम बिल्कुल स्वस्थ हो गए थे। जब मंदिर के निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ था। तब यह ‘‘भौम अस्त्र’’ मंदिर के तहखानों में गाड़ दिया गया था।
वर्ष 1876 में इंग्लैंड की हिस्टोरिकल स्पेशलिस्टों की एक टीम ने इस मंदिर का दौरा किया, एम्मा हेंड्रिक ने अपनी किताब में कैलाश मन्दिर की गुफाओं में एक आर्किलोजिस्ट के बारे में लिखा है कि, यह मंदिर जितना बाहर से दिखाई देता है, इससे कई गुना ज्यादा विशाल, मंदिर के नीचे तहखाने और गुफाएं है।
आर्कियोलोजिस्ट की रिसर्च में यह बात सामने आई थी कि, इन गुफाओं में रेडिएशन है। यहाँ नीचे तहखानों की गुफाओं में एक स्थान से रेडियो एक्टिविटी तरंगे निकल रही हैं। जिसकी वजह से यहां पर ज्यादा समय तक रुकना असम्भव है।
जब इंग्लैंड की इस्ट इंडिया कंपनी ने भारत पर कब्जा कर लिया था, तभी यह मंदिर भी इस्ट इंडिया कम्पनी के कब्जे में था। अब यहां पर खोज करने के लिए केवल अंग्रेज आर्कियोलोजिस्ट को ही परमिशन दी गई, भारतीय आर्कियोलोजिस्ट पर प्रतिबंध लगा दिया था। भारतीय शोधकर्ताओं का कहना है कि कैलाश मंदिर से इस्टइंडिया कम्पनी अपार धन संपदा को चुरा कर ले गई और साथ ही उस ‘‘भौम अस्त्र’’ को भी ले गई थी। यदि भारत सरकार ठीक प्रकार से इस विषय पर अध्ययन करे तो आज भी यहां पर इस बात के सबूत मिल सकते हैं।
कहा जाता है कि उस लूट के बाद कैलाश मंदिर की इन गुफाओं को अंग्रेजों ने बंद कर दिया और इससे जुड़ी रिसर्च को भी नष्ट कर दिया गया था। इतना ही नहीं, उन्होंने यहां सरकारी तौर पर होने वाली भविष्य की किसी भी रिसर्च पर प्रतिबंध भी लगा दिया था। और वही प्रतिबन्ध आज तक जारी है। शासकीय औपचारिकता में बताया गया था कि, इन गुफाओं में फिसलन वाली ढलान है, यहाँ पर रेडिएशन है। इसलिए यहां पर जाने पर जान का जोखिम है। इसलिए इन गुफाओं को बंद कर दिया गया है। यह महज एक औपचारिक घोषणा थी। लेकिन, अब वह समय नहीं रहा। आज के दौर में सरकारों को चाहिए कि इन गुफाओं में एक नये सीरे से शोधकर्ताओं को जाने की इजाजत दी जाय, ताकि सच्चाई को सामने ला सकें, आज भारतीय पुरातत्चविदों के पास आधुनिक तकनीकों के साथ अन्य कई प्रकार की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं इसलिए कोई जान का जोखिम नहीं है।
एक जुनूनी आर्कियोलोजिस्ट श्री विवेक शर्मा जो वर्ष 2015-16 में शाम के समय यहां कैलाश मंदिर परिसर में कहीं छुप गये थे। विवेक शर्मा जूनून था कि वे कैसे भी तहखानों में बनी गुफाओं में जाएंगे और अपने स्तर पर पड़ताल करेंगे। इसके बाद उन्होंने जो खुलासा किया था उसके अनुसार वहां तहखानों में अंधेरा था, उन्होंने फ्लैश लाइट का भी उपयोग किया था, किंतु वीडियो नहीं बन पाई।
उन्होंने अपने एक मित्र को वहां के जो आडियो संदेश भेजे थे उसके अनुसार- ‘‘मै नीचे तहखानों की और गहराई में जा रहा हूँ, यहां पर ढलान होने के कारण मुझे तहखाने की सतह पर बैठ कर आगे बढ़ना चाहिए, ताकि में गिर न जाऊं, यहां पर जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ रहा हूँ मेरा वजन धीरे धीरे कम लग रहा है। यहाँ मेरे दोनों तरफ तहखानों की दीवारों में छोटे छोटे कमरे बने हुए हैं। यहां माॅइश्चर (नमी) है, गिलापन लग रहा है, जैसे-जैसे मैं आगे जा रहा हूँ, ढलान और अधिक है। अचानक मुझे एक कमरे में कुछ दिखाई दे रहा है, अब हिम्मत कर मैं और आगे जाता हूं, यह देखने कि, वहां पर क्या है, मुझे यकीन नहीं हो पा रहा कि, वहां पर एक नीला मृत शव पड़ा है, जिसका सिर पूरे शरीर से ज्यादा बड़ा है, वो हम जैसा बिल्कुल भी नहीं है, बहुत अलग है। डर कर आगे देखा वहाँ पर कुछ ऊंचाई पर एक आयताकार हाॅल था, जो हरे रंग का था। लेकिन छत की ऊंचाई मात्र 4 या 5 फिट थी। अब मेरा यहां पर दम घूंट रहा है।’’
एक अजुबा है देव सोमनाथ का मंदिर | Dev Somnath Rajasthan
इसके बाद वह आडियो क्लिप बंद हो जाती है। इस बात में कितनी सच्चाई है, यह तो केवल विवेक शर्मा ही जाने। विवेक शर्मा के अनुसार उस हाॅल में कोई विशेष अलंकरण नहीं था, सपाट दीवारें थी। ऐसे में यहां सवाल यह भी उठता है कि क्या यह कोई परग्रहियों का रेस्ट हाउस हुआ करता था? जो भी हो, एक बात साफ है, कुछ तो है कि इसके नीचे कुछ तो तो विशेष है, और यही संदेह इस मंदिर को रहस्यमय बना रहा है।
इस कैलाश मंदिर की ऊंचाई 90 फिट है और लंबाई 276 फिट है, चैड़ाई 54 फिट है। यह मापदंड मंदिर का है, वैज्ञानिकों का मानना है कि, इस मापदंड से कई गुना अधिक इस मंदिर के नीचे तहखाने और गुफाएं है। मन्दिर निर्माण कार्य पत्थरों को जोड़कर नहीं किया गया है। बल्कि एक ही पहाडी में पूरा मंदिर बनाया गया है। इस मंदिर की खास और सोचने वाली बात यह भी है कि, भगवान शिव की यहां पर पूजा अर्चना नहीं होती है। किवदंती है कि शिवालय और नंदी बैल की स्थापना बहुत समय बाद की गई थी। तो फिर यह संरचना बनी ही क्यों?
इतिहासकारों के अनुसार कैलाश मन्दिर ‘‘विरुपाक्ष’’ मंदिर से प्रेरित है। आर्कियोलोजीकल डिपार्टमेंट और जिओलाॅजी डिपार्टमेंट की टीम मन्दिर के नीचे ईसा पूर्व के अवशेषों का दावा करती हैं इनका कहना है कि, यहां नीचे तहखानों में पूरा एक नगर बसा हुआ था। यहां पर आम लोगों का जाना वर्जित हैं। कैलाश मन्दिर के निर्माण में कई पुरातात्विक साक्षों का पता चलता है। कैलास मंदिर को नष्ट करने के लिए औरंगजेब ने वर्ष 1682 में हजारों सैनिकों को भेजा था। लेकिन इस मंदिर को नष्ट करने में वे असफल रहे।
कैलास मंदिर की सबसे रहस्यमय बात यह है कि, मंदिर की छत दुनिया भर की सबसे बड़ी केटिलिवर छत है। वैसे तो कई प्राचीन काल के मंदिर भारत की गरिमा और गौरवशाली अतीत, उत्कृष्ठ प्रतिभावान शिल्पांकन और शिल्पकारों का विशाल और अलंकरण मूर्ति निर्माण, मन्दिर निर्माण कार्य का कोई भी जवाब पूरी दुनिया भर में कोई भी आर्किटेक्ट नहीं दे सकता है। लेकिन कैलाश मंदिर का निर्माण कार्य अन्य निर्माण कार्य से बहुत ज्यादा अलग है। मंदिर की दीवारों और स्तम्भों के मध्य वार्तालाप की तरंगें इक्को नहीं बल्कि आवाजें रिपीट होती है। जबकि इन गलियारों और स्तम्भों से बाहर खुला हुआ मंदिर का विशाल प्रांगण है, आवाज की गुंज, या रिपीटेशन वहीं होता है,जहां बंद हाॅल हो या फिर एक जगह से आवाज लगाने पर ठीक सामने पहाड़ी हो और इस के बीच खाई हो।
गुफा नंबर 16 में शिव मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित हैं। यहां लगभग डेढ़ किलोमीटर क्षेत्र में कई और भी गुफाएं हैं। गुफा नंबर 16 से 4 लाख टन पत्थरों को काटा गया था। 17 साल में प्रत्येक शिल्पकार ने 5 टन पत्थरों को काटा होगा, 7,000 लोगों ने 17 या। 18 सालों में इस मंदिर का पूर्णतः निर्माण कार्य सम्पन्न किया गया होगा। तब भी इस निर्माण कार्य को पूर्ण होने में 100 साल लगे होंगे। 18 सालों में 7,000 शिल्पकार बिना रुके 12 घण्टे तक काम करते हैं तो भी वे 100 साल में मात्र 85,000 टन पत्थरों को ही काट सकते है। तो भी यह कार्य किस प्रकार से हुआ होगा? जबकि इसमें तो तहखानों का निर्माण कार्य भी शामिल है? अत्याधुनीक मशीनों से भी इस काम को करना असंभव है।
तो भव्य अलंकृत और तहखानों युक्त इस मन्दिर का निर्माण कार्य किसने किया होगा? आज भी विज्ञान की नजर से देखने पर यह असंभव लगता है। करीब 400,000 टन वेस्ट पत्थर मंदिर के आसपास क्यों नहीं है। विज्ञान अगर कहता है कि इंसानों ने यह निर्माण कार्य किया है तो मेरी नजर से यह सन्देहास्पद है। क्योंकि अक्सर देखा गया है कि, वेस्ट मटेरियल से शिल्पकार अन्य छोटे मन्दिर बना दिया करते थे। लेकिन यहां पर कही भी दूर दूर तक ऐसे किसी भी वेस्ट पत्थर का निशान तक नहीं देखने को मिला है।
ऐतिहासिक और साहित्यक स्त्रोतों के अनुसार यहां पर बेसाल्ट पत्थरों को काटा गया है, जो काफी मजबूत होता है। सातवाहन राजाओं के काल में यहां पर 600 ई . में गुफाओं का निर्माण कार्य आरंभ हुआ था। हिन्दू गुफाओं का निर्माण कार्य चालुक्यों के काल में हुआ, जिनमें 17 अलग-अलग हिन्दू दैवी देवताओं के मंदिर हैं, इसके आलावा 12 जैन मंदिर और 5 बौद्ध मंदिर भी हैं।
मैं यहां पर यह साबित करने का बिल्कुल भी प्रयास नहीं कर रहा हूँ कि, आसमान से कोई आया हाोगा और उसी के द्वारा इन मंदिरों और गुफाओं का निर्माण किया गया होगा। लेकिन, जहां तक हम सनातनियों का सम्भन्ध है, यह रहस्य हमारे प्राचीन काल के ऋषियों मुनियों और संतो के लिए सम्भव हुआ करता था। उन लोगों के मार्गदर्शन से ही शिल्पकारों ने कार्य किया था, इसलिए हमें लिंक से हट कर विचार करना चाहिए, न कि विज्ञान के अनुसार। क्योंकि अध्यात्मिक शक्तियों और विज्ञान का आपस में कोई मेल नहीं है।
आम व्यक्ति पंच संवेदी है। लेकिन हमारे ऋषि मुनि बहु संवेदी थे। हम आम व्यक्ति अपने दिमाग का उपयोग 10 प्रतिशत तक ही उपयोग करते है। लेकिन वे महान व्यक्तित्व के धनी अपने दिमाग का 95 प्रतिशत तक उपयोग कर सकते थे।योग और प्राणायाम से सातों चक्रों को फिर से जागृत कर लेते थे। जब शिशु गर्भवस्था के सातवें महीने में होता है, तब उसके सिर में तालू से प्राण आते है, प्राण पीछे रीढ़ की हड्डी में सातों चक्र को टक्कर मार कर गुदा द्वार में जीवन भर रहता है। इन सातों चक्र घड़ी की पेंडुलम की तरह हिलते रहते है जब तक ये चक्र घूम रहे होते हैं तभी तक इंसान जीवित रहता है। योग में वह शक्ति है कि, उस प्राण को आप गुदा द्वार से पुनः ऊपर के चक्रों तक ला सकते है, बहुत ज्यादा योग की स्थिति में भी सातों चक्र भेदे नहीं जा सकते है, लेकिन कम से कम 2 या 4 से 5 चक्रों को तो आज के योगी भेद सकते हैं। इतने में ही योगी को भूत, भविष्य, वर्तमान का पता चल जाता है।
आज भी बहुत से वैज्ञानिक, आर्किलोजिस्ट, जिओलाॅजीस्ट आदि इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि इस कैलाश मन्दिर का निर्माण इंसानों ने किया होगा। कैलाश मन्दिर के पांच चरण है। यह पाँच अक्षरों का प्रतिनिधित्व करते है। स्वर्ण मंदिर के 28 स्तम्भ हैं जो शिव की 28 पूजा अर्चना प्रकिया या तरीकों को दर्शाते हैं। इस मंदिर की छत के 64 बीम, 64 कलाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। क्राॅस बीम मानव शरीर के माध्यम से चलने वाली रक्त संचार का प्रतिनिधित्व करती हैं। सुनहरी छत के ऊपर 9 बर्तन 9 प्रकार की शक्ति (नवरात्र) का प्रतिनिधित्व करती हैं। बगल के हाॅल में 18 स्तम्भों 18 पुराणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। नटराज की प्रतिमा भगवान शिव के तांडव नृत्य उर्जा (प्रोटाॅन, न्यूट्राॅन) के ब्रह्मांडीय नृत्य को दर्शाता हैं।
इस प्रकार के कार्यों के लिए पूर्व सुनियोजित गणितीय, खगोलीय, इंजीनियरिंग की प्रतिभा उन महान ऋषि, मुनियों के मार्गदर्शन में महान शिल्पकारों में ही थी जिसकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते है। उनके विशाल ज्ञान और व्यक्तित्व को हम नहीं समझ सकते है। इसका मतलब यह नहीं है कि, उनका कोई अस्तित्व ही नहीं रहा होगा। जिन्होंने इस देश की पावन धरा पर महान आर्किटेक्ट का निर्माण किया था।
इसकी खोज कलाहस्ती के प्राचीन कांचीपुरम में है, और अंतरिक्ष के लिए चिदम्बरम में। इन 5 मंदिरों की विशेषता यह है कि, इनका निर्माण कार्य योग विद्या द्वारा किया गया है। और इन्हें एक दूसरे के साथ एक निश्चित भौगोलिक संरक्षण में रखा गया है। ताकि पूरा क्षेत्र उनके द्वारा दी गई संभावनाओं से गूंज उठे। इन मंदिरों का आज भी हम मेजरमेंट नहीं कर पा रहे है।
इस बात जा समर्थन इंग्लैंड की डाॅ. क्रिस्टल भी कर रही हैं। डाॅ. क्रिस्टल का मानना है कि, गिजा के पिरामिड से लेकर ओनियन नक्षत्रों के बारे में भी यही रहस्य है कि आखिरकार इन सरंचनाओं का निर्माण कार्य कैसे हुआ होगा? डाॅ. क्रिस्टल का मानना है कि इन्हें बनाने का श्रेय हम किसी परग्रहियों को कैसे दे सकते हैं।
चिदंबरम के थिलाई नटराजन मन्दिर पर विचार करें तो यह प्राचीन भारतीय ऋषियों को खगोल विज्ञान, ज्योतिष ज्ञान के बारे में दर्शाता है। यह वही मन्दिर है, जिसमें हम शिव को उनके उभरे हुए पैर के साथ ब्रह्मांडीय नर्तक के रूप में देखते देते हैं। वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया है कि, उनका आगे वाला पैर का अंगूठा दुनिया के चुम्बकीय भू-मद्य रेखा का केंद्र बिंदु है। लेकिन हम में से बहुत कम लोग यह जानते हैं कि, यह संदेश हमें आज से पांच हजार वर्ष पहले ही महान तमिल विद्वान थिरुमूलर ने दे दिया था। किसी भी व्यक्ति ने उन पर विश्वास नहीं किया था, लेकिन आज, जब वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया तो हम सब इसे सच मानने लगे हैं। थिरुमूलर को कैसे पता चला होगा?, और मंदिर निर्माण करने वाले शिल्पकारों को कैसे यह ज्ञान था। इसी प्रकार के अन्य अनेकों रहस्य हैं जिनका उत्तर हमारे पास नहीं है।
चिदम्बरम में शिव मंदिर की वास्तु कला मानव शरीर की सरंचना पर आधारित हैं। मन्दिर का निर्माण हृदय को जगह देने के लिए मन्दिर को दाई और थोडा-सा झुकाया गया है। जो फैपड़ों के बायीं तरफ है। शरीर में 9 छिद्रों के समान यहाँ पर 9 प्रवेश द्वार हैं। छत 21,600 सोने की चद्दरों से बनी हुई हैं, जो मानव शरीर 21,600 सांसों का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये सोने की चद्दरें गोपुरम या शिकारा में 7,200 सोने की किलों का उपयोग किया गया है, जो मानव शरीर की सभी नाड़ियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। ये नाड़ियां अदृश्य हैं, जो शरीर में रक्त प्रवाह और ऊर्जा पहुंचाती हैं। इस तरह के आर्किटेक्ट बनाने वाले शिव भक्त रहे होंगे। जब हम हमारे देश के मुख्य प्राचीन मंदिरों को देखते हैं तब हमें पता ही नहीं चलता है कि, इनकी डिजाइन और निर्माण करने वाले लोगों ने अकल्पनीय कार्य किया है। इन महान मंदिरों का निर्माण करने वाले वो महान लोग कौन थे।
हिमालय क्षेत्र में स्थित कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के केदारनाथ मंदिर से लेकर भारत के दक्षिण में रामेश्वरम तक, कांचीपुरम में कालेश्वरम श्री कलाहस्थी, एकएम्बेश्वर चिदम्बरम में थिलाई नटराजन मन्दिर 790 ईस्ट 41’54 देशांतर के आसपास एक भौगोलिक सीधी रेखा में बनाये गए है। ये मन्दिर हजारों साल से अस्तित्व में हैं। उस समय अक्षांस और देशांतर को मेजरमेंट करने के लिए कोई उपग्रह नहीं था। केदारनाथ से रामेश्वरम की दूरी 2,383 किलोमीटर है। कौन समझा सकता है कि, इन मंदिरों को एक ही सीधी रेखा है।
एक प्राचीन मराठी कथा भी है जो कैलाश मन्दिर के अद्वितीय और रहस्यमय होने का कारण बताती है, इस कथा के अनुसार कृष्ण प्रथम की महारानी को प्रसन्न करने के लिए कैलाश मन्दिर का निर्माण किया गया था।
हालांकि, वर्तमान में हमें जो संकेत मिलते हैं उनके अनुसार कोकसा नामक वास्तुकार ने इस मंदिर का निर्माण किया था। रानी के नाम पर मंदिर का नाम ‘मणिकेश्वर’ रखा गया था, और कोकसा नामक व्यक्ति ही वास्तव में कैलाश मन्दिर निर्माण कार्य का मुख्य वास्तुकार था। ऐतिहासिक तथ्यों में हमें कोकसा नामक इस वास्तुकार के नाम का उल्लेख 11 वीं से 13 वी शताब्दी के मध्य के अभिलेखों में मिलता है। जो पुरातत्विक दृष्टि से प्रमाणित भी है। अन्य उल्लेखों के अनुसार, राज मिस्त्री और मूर्तिकार एक साथ काम करते थे। एक समय में 400 से 500 लोगों ने इस मंदिर पर काम किया है। आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह निर्माण कार्य लगभग 100 वर्षों पूरा हुआ होगा।
इस मंदिर को लेकर दुनियाभर के बड़े से बड़े शोधकर्ताओं और आर्किलोजिस्ट द्वारा खुद से पूछे जाने वाले प्रश्नों की बात करें तो वे यहां आकर स्वयं भी उलझ जाते हैं और इस आश्चर्यजनक सरंचना को लेकर हैरत में पड़ जाते हैं। उनके खुद के द्वारा खुद से पूछे जाने वाले प्रश्नों के ढेर लग जाते हैं, आखिर यह सरंचना कब, कैसे और किसने बनाई होगी? आर्किलोजिस्ट वैज्ञानिक रिसर्चर सभी इतिहास के दस्तावेजों में खो जाते है, फिर वापस यहां पर आते हैं, लेकिन वे असन्तुष्ट ही रहते हैं। उन्हें कहीं भी कोई जवाब नहीं मिलता है।
आज भी यदि हमारी सरकार इन गुफाओं में जाने की इजाजत दे देती है, तो बहुत कुछ खुलासा हो सकता है। भारतीय पुरातत्व विभाग हो या राज्य पुरातत्व विभाग हो या स्वतंत्र आर्किलोजिस्ट, हर व्यक्ति को यहां पर रिसर्च करने का अधिकार मिलना चाहिए। क्योंकि यदि हम लोग वैदिक दृष्टिकोण से इस मंदिर को देखें तो कोई रहस्यमय नहीं लगेगा, क्योंकि भारत के आर्किलोजिस्ट बाहरी दुनिया के आर्किलोजिस्ट की तरह इसे प्रमाणित करने में अक्षम हैं। हम लोग इतने तो समझ चुके हैं कि, पुरातत्व क्या होता है। वैदिक काल का निर्धारण किया जाए यह कोई मुश्किल काम नही है, पौराणिक मान्यताओं को, पांडुलिपियों को ढूंढा जाना चाहिए। वहीं से हमें पता चल जायेगा कि जो काम आज भी असम्भव हुआ करते हैं वो कार्य हमारे पूर्वज आज से हजारों वर्ष पहले ही कर चुके थे।
जब हम बेहतर और व्यापक सोचते हैं, तो आज का विज्ञान पौराणिक मान्यताओं के आस-पास ही दिखाई देता है। हम जानते हैं कि कैलाश मन्दिर से जुड़े अभिलेख का अभाव है, लेकिन, जो भी उपलब्ध हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि इसका निर्माण एक राष्ट्रकूट राजाओं ने करवाया था। इसका निर्माण दो अभिलेखों के आधार पर राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम को माना जा सकता है। कारका सुवर्ण द्वारा गुजरात में सिद्धमसी नामक स्थान पर 812 ई से 813 ई में जारी की गई बड़ौद तांबे की प्लेट्स में कृष्ण प्रथम का उल्लेख एलापुरा (एलोरा) में कैलाशनाथ मन्दिर के संरक्षक के रूप में बताया गया है। राष्ट्रकूट राजाओं ने अपने राज्य की स्थापना और विस्तार में युद्ध के समय ‘गजसेना’ का बहुत उपयोग किया था, और कैलाश मन्दिर में कीर्तिस्तंभों पर हाथियों का उत्तकीर्ण किया गया है। यह एक संकेत देता है कि, इस मंदिर को राष्ट्रकूट राजाओं के पूर्वजों ने बनाया था। कैलाश मन्दिर के प्रवेश द्वार और मार्ग की और दो आंतरिक प्रांगण है। प्रत्येक प्रांगण, उत्तर और दक्षिण में विशाल हाथियों को चट्टानों पर उत्तकीर्ण किया गया है। उसके पास विजय स्तम्भ हैं, जिनकी ऊंचाई 15 मीटर है। दो अखंड हाथी राष्ट्रकूट वंश की सर्वोच्चता को दर्शाते हैं।
महामंतपा की छत पर शैरों की चार मूर्तियां है। चारों शैरों ने अपना एक-एक पैर का पंजा उठा रखा है। इन शेरों को आसमान से क्राॅस के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन अज्ञात सच्चाई यह है कि, एनिमेटेड शैरो को मन्दिर का रक्षक माना जाता है।
बेसाल्ट पत्थर से निर्मित इस मंदिर का वेस्ट मटेरियल मंदिर के आसपा तो क्या दूर-दूर तक भी दिखाई नहीं देता है। यह एक सबसे बड़ा प्रश्न है। इसके अलावा महारष्ट्र के माला शीरास में स्थित भूलेश्वर मन्दिर के बारे में भी हमारे पास बहुत कम जानकारी है। यह मंदिर भी शत-प्रतिशत कैलाश मंदिर की भांति ही बनाया गया है। यहां पर भी बेसाल्ट पत्थरों की पहाड़ियों की इसी तरह से कटिंग की गई है।
वास्तव में यह कोई रहस्य नहीं है, मानव जाति ने टूल्स बनाये, शैलचित्रों वाली गुफाओं का निर्माण किया। यह उसी का नतीजा है कि, इस समय मानव ने इतने युगों-युगों तक पत्थरों से बेहतर से बेहतर औजार बनाये थे। यह उन शिल्पकारों की छेनी और हथोड़े का ही परिणाम था।
जानकार मानते हैं कि इस मंदिर को बनाने के लिए शुरुआत ऊपर से की गई होगी। पत्थरों को काटा गया फिर उन्हें फिनिशिंग दी गई थी। उनके पीछे-पीछे मूर्तियों की नक्काशी भी चल रही थी। राज मिस्त्री, वास्तुकार, शिल्पकार आदि एक साथ काम कर रहे होंगे। ऐसे में यह कहना कि, इस मंदिर का निर्माण कार्य कोई एलियन द्वारा किया गया होगा यह उन महान लोगों का अपमान है।
अब यहां सवाल उठता है कि, दुनिया भर के लोगों ने ऐसा क्या देखा है कि इस मन्दिर को अद्धभुत और रहस्यमय बता रहे हैं। तो उनके तर्क हैं कि-
– बैसाल्ट पत्थरों को काटना और तराश कर उन्हें पाॅलिश्ड कर उन पर मूर्तियों का निर्माण करना, जो समाया
अवधि इतिहास में है, वो सही नहीं है।
– मंदिर के नीचे तहखानों युक्त गुफाओं का निर्माण किस उद्देश्य से किया गया होगा?
– 18 वर्षों में 4 लाख पत्थरों को काटना वो भी 7,000 लोगों के द्वारा, और नीचे तहखानों का निर्माण भी करना असम्भव है। क्या उस समय वाकई क्या ऐसे महान संत या ऋषि-मुनी या महान वास्तुकार रहे थे या हम केवल बातों से ही साबित कर सकते हैं। आज के गणितीय हिसाब से 7,000 लोग 12 घण्टे बिना रुके 18 साल तक काम करते है तो भी, उन लोगों के द्वारा मात्र 85,000 टन पत्थरों को ही कटाना सम्भव है।
– मानव के क्रमिक विकास को देखते हुए पुरातत्विक दृष्टिकोण से पाषण युग का मानव भी इतना बलिष्ट नहीं था, और नहीं उनका शरीर विशाल था। ऐसा विशाल कंकाल अभी तक पूरी दुनिया में नहीं मिला है। तो यह चमत्कार कैसे हुआ था? क्या कोई अलौकिक शक्ति थी, या फिर वाकई में हमारे पूर्वज इतने सक्षम थे। क्या उन्हें वो सब कुछ पता था, जो हम नहीं जानते। क्या वाकई में ‘भौम अस्त्र’ था।
– गुफा में एक निश्चित स्थान से रेडिएशन कैसे फैल रहा है।
– हमारे उन महान, वास्तुकार, शिल्पकार, मूर्तिकार आदि सभी को नमन है, क्योंकि उन्होंने हमारे देश में ऐसे मंदिरों का निर्माण किया है, जो पूरी दुनिया में और कहीं भी नहीं है। लेकिन बात जब इस कैलाश मंदिर की आती है तो संदेहास्पद स्थितियां उत्तपन्न होने लगती है कि आखिर यह क्यों और कैसे बना होगा?
– कैलास मन्दिर जैसा अन्य मन्दिर कहीं ओर क्यों नहीं है? इस मंदिर के निर्माण के बाद भी तो भव्य मंदिरों का निर्माण कार्य हुआ ही है, उन मंदिरों में इस प्रकार की टेक्नोलाॅजी क्यों उपयोग में नहीं लायी गयी?
– यहां पर यदि हम लिंक से थोडा-सा अलग बात करें तो हमारे सामने आता है अमेरिका का वह क्षेत्र जो एरिया 51 ए, और 51 बी कहलाता है वहां ऐसे क्या राज छुपे हैं जो दुनिया के सामने नहीं लाये जा रहे हैं। अमेरिका के इस एरिया 51 ए, और 51 बी क्षेत्र के आसमान में सेटेलाइट से लेकर हवाई जहाज तक हर प्रकार के यान उड़ाने सख्त पाबंदी है, क्यों वहां पर काम करने वाले वैज्ञानिकों और कर्मचारियों से भी कहीं अधिक संख्या पहरेदारों की है। एरिया 51 ए, और 51 बी क्षेत्र में कोई नेटवर्क नहीं है, वहां रहने वाले वे सभी लोग उम्रभर वहीं रहते हैं। कभी-कभार कोई खबर देखने या सूनने को मिलती है कि, यहां पर कोई परग्रहियों के शव या फिर उनके अन्य कोई अवशेश रखे हुए हैं। इसमें कितनी सच्चाई है, कोई नहीं जानता।
– आज हमारे सामने जितने भी रहस्य हैं उन सब को लेकर प्रश्न भी बहुत सारे हैं। यह बात भी सही है कि, हम कैसे सिद्ध करें, इस लिए सरकार को चाहिए कि भारतीय वैज्ञानिकों को गुफाओं और तहखानों में जाने की अनुमति दे। क्योंकि प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए गुफाओं का खुलना आवश्यक है। आर्किलोजिस्ट भू गर्भ वैज्ञानिक, और भी कई वैज्ञानिकों को नीचे तहखानों में जाने इजाजत मिलना चाहिए। साथ ही इस महान मन्दिर को आर्किटेक्ट से जुड़े विश्व के आश्चर्यों में शामिल करें।
– आभार