– हमारे DNA के दुष्प्रभावों को ठीक कर सकती है नियमित आहारचर्या।
– भारत का सात्विक खानपान है इसका बेहतर विकल्प।
– बेहतर सेहत का खजाना है भारत का परम्पागत खानपान।
कहने के लिए तो यह खबर आज भले ही पुरानी हो चुकी है, लेकिन जो लोग अपनी खान पान पर नियंत्रण नहीं रख पाते उनके लिए यह खबर आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी की आज से करीब चार साल पहले थी।
दरअसल, खबर ये थी कि, जर्मनी के बायोलॉजिकल विज्ञानियों ने वर्ष 2019 में अपनी एक रिसर्च के द्वारा यह साबित कर दिखाया था कि हमारी आनुवांशिक संरचना का मूल तत्व यानी हमारा DNA ही सब कुछ नहीं होता, बल्कि हमारी आहारचर्या यानी हमारा सात्विक खानपान उससे भी अधिक ताकतवर होता है और आनुवांशिक कारकों से भ्रष्ट यानी बिगड़े हुए DNA के दुप्रभावों को शिकस्त देने के साथ उनसे होने वाली बीमारियों पर लगाम लगाई जा सकती है।
जर्मनी के ल्यूबेक विश्वविद्यालय के “इंस्टीट्यूट ऑफ एक्सपैरीमेंटल डर्मेटॉलॉजी” में प्रोफेसर राल्फ लुडविज के नेतृत्व में रूस के डॉ. अर्तेम वोराविवेव, भारत के डॉ. यास्क गुप्ता और इजराइल की डॉ. तान्या शेजिन की टीम ने अपनी संयुक्त शोध में पाया है कि हाई, यानी उच्च कैलोरी वाली पश्चिमी देशों की आहारचर्या के कारण जहां आनुवंशिक माने जाने वाले रोगों में बृद्धि होती जा रही है, वहीं ‘लो कैलोरी’ वाली भारत और भूमध्यसागरीय आहारचर्या यानी स्वस्थ्य प्राकृतिक खान- पान रोगों से इसकी रक्षा की जा सकती है।
‘नेचर कम्युनीकेशंस’ नामक एक प्रसिद्ध पत्रिका में प्रकाशित विस्तृत लेख के माध्यम से अपने उस शोध अध्ययन में कहा गया है कि हैरानी होती है कि विगत कई दशकों से अनेक रोगों और उनके लक्षणों को रोगी के DNA से जोड़कर समझा जाता रहा है। जबकि बाहरी पर्यावरणीय कारकों, जिसमें कि आहारचर्या सबसे प्रमुख है उसपर गौर ही नहीं किया गया जिसकी आनुवंशिक रोगों से रक्षा करने में सबसे प्रमुख भूमिका हो सकती है।
जर्मनी के ल्यूबेक विश्वविद्यालय में लगभग दो वर्ष से भी अधिक समय तक चली उस सघन शोध में शोधकर्ताओं ने मनुष्यों के स्थान पर चूहों के दो बड़े समूहों को इसमें शामिल किया और अलग अलग आहारचर्याओं के माध्यम से प्रभावों को परखा और पता लगाया कि आहारचर्या रोगों के विविध लक्षणों जैसे शरीर का वजन, रोगप्रतिरोधक क्षमता, रक्त का प्रभाव और रोग की आतुरता को किस प्रकार से प्रभावित करती है।
इस शोध के माध्यम से ऐसी तीन प्रमुख बातें सामने आई जिनमें से पहली यह कि बाहरी खानपान या आहारचर्या शरीर के उन इम्यूनोलॉजी को साधने में असफल होता है जो DNA से ज्यादा और ताकतवर है, और इसी कारण से DNA में कई प्रकार की गड़बड़ियां आ जाती हैं जो कई बड़े रोगें को जन्म देती हैं। दूसरी प्रमुख बात यह कि आहारचर्या और DNA इन फेनोटाइप या रक्तसूचकों को व्यवस्थित करने में परस्पर क्रिया करते हैं।
शोधकर्ताओं की इस टीम ने तीसरी अत्यंत महत्वपूर्ण डिस्कवरी चूहों की समग्र जीनोम सीक्वेंशिंग करके उन अनेक जीन तक पहुंचने और हचान करने की है जो DNA और आहारचर्या के बीच सेतु की तरह का काम करते हैं। इनमें DNXB ऐसा ही एक जीन है जो DNA और आहारचर्या के बीच परस्पर क्रिया को संभाले रखता है।
शोधकर्ताओं ने दूसरा प्रयोग उन चूहों के समूह पर किया जो ल्यूपस नामक रोग से ग्रसित थे। ल्यूपस ऐसा मानवीय रोग है जिसका DNA के साथ सीधा संबंध जोड़ा जाता है। ल्यूपस ऑटोइम्यून रोग की श्रेणी में आता है और इसमें शरीर का इम्यून सिस्टम अपने ही अंगों पर प्रहार करता है और शरीर की विभिन्न प्रणालियों, जोड़ों, गुर्दों, मस्तिष्क, दिल, फेफड़ों और रक्त कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त करता है। दुनिया में हर एक लाख पर 150 लोग ल्यूपस रोग से ग्रस्त होते हैं और इनमें पश्चिमी देशों के लोगों की संख्या ज्यादा है।
जीनोम सीक्वेंसिंग और DNXB जीन की पहचान के लिए शोधकर्ताओं ने अपनी इस शोध को DNA और जेनेटिकली नियंत्रित चश्मे से देखने की बजाय आहार पर केन्द्रित किया। प्रयोग के तहत ल्यूपस रोगोंन्मुख चूहों के एक समूह को सूक्रोज प्रधान पश्चिमी आहार और दूसरे समूह को ‘लो कैलोरी’ वाला नियंत्रित आहार दिया गया।
इस प्रयोग का हैरतअंगेज परिणाम यह रहा कि पहले समूह के चूहे वे जिन्हें उच्च केलौरी वाला पश्चिमी आहार दिया गया था, वे जल्दी ही रोग की चपेट में आ गए और उनकी बीमारी भी अप्रत्यशित ढंग से भीषण अवस्था में पहुंच गई। जबकि दूसरे समूह के चूहे जिन्हें लो कैलोरी आहार दिया गया था वे ल्यूपस रोग से ग्रसित होने से बचे रहे।
अब बात आती है कि इस शोध का मकसद क्या रहा? तो इस शोध के परिणाम को लेकर संक्षेप में कहें तो शोध के परिणाम हमें बताते हैं कि पश्चिमी देशों की आहारचर्या के तहत अनसैचुरेटिड पॉलीफैटीसिड से बने बर्गर, पिज्जा जैसे तमाम प्रकार के फास्ट फूड, हमारे शरीर में कई प्रकार के रोगों और रोगों से संबंधित लक्षणों को और अधिक उभारने और बढ़ाने वाले होते जाते हैं। जबकि दूसरी ओर भारत के सात्विक और संतुलित शाकाहार भोजन जैसे दाल – चावल, रोटी – सब्जी आदि परंपरागत आहारचर्या से रोग दूर रहते हैं। भारत की ही भांति, भूमध्यसागरीय देशों की आहारचर्या भी, जिसमें शाकाहार के साथ ओलिव आयल और ‘सी फूड’ का सेवन होता है वह भी इसी प्रकार रोगों से शरीर की रक्षा करने में सक्षम है।
क्लीनिकल लाभ के तौर पर देखें तो इस शोध में जीन एनवायरोमेंट अर्थात अहारचर्या की जिन अन्तर्वती क्रियाओं का खुलासा हुआ है वह उन फर्मास्युटिकल अनुशंसाओं की पहचान करने में मददगार साबित हो सकती है जिसका पालन कर DNA के दुष्प्रभावों वाले समुदाय विशेष के लोगों की रोगों से रक्षा की जा सकती है।
पाचनतंत्र में माइक्रोवियोम या बैक्टीरिया समूह और आहारचर्या के बीच का नाता प्रोबॉयोटिक्स या अन्य आहारचर्या की अनुशंसाओं का प्रयोग कर संभाला जा सकता है और ऐसे समुदाय के लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा की जा सकती है जिनके अंदर DNA के दुष्प्रभावों के चलते ऑटो इम्यून रोगों से ग्रसित होने की आशंकाएं प्रबल होती रहती है।
– डॉ. यास्क गुप्ता