अजय सिंह चौहान || दुनियाभर के वैज्ञानिक हर साल ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर कॉन्फ्रेंस करते हैं और इसका उपाय खोजने का प्रयास करते रहते हैं। लेकिन कुछ बड़े देश ऐसे भी हैं जिनकी जिद की वजह से कोई भी वैज्ञानिक इसपर अपना निर्णय लागू नहीं करवा पाते। हालाँकि, खबरों की माने तो, वैज्ञानिक अब इस विषय पर सचमुच कोई न कोई हल निकालने में सफल हो ही जाएंगे। क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग का हल खोजने की इस कड़ी में अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक दल ने अंतरिक्ष में बादलों के जरिए ग्लोबल वॉर्मिंग को सुलझाने का एक नया प्रस्ताव दिया है।
दरअसल, पीछले करीब 100 वर्षों से सम्पूर्ण पृथिवी के तापमान में लगातार वृद्धि होती जा रही है जिसे वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने “ग्लोबल वार्मिंग” का नाम दिया है। इस ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथिवी पर कई सारे भयंकर और बड़े बड़े तूफान, बाढ़, जंगलों में बार-बार आग लगना, कई देशों में सूखा पढ़ना और कई दिनों तक भयंकर लू के खतरे को झेलना और कहीं लगातार और भयंकर बारिश होते रहने जैसी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है।
ग्लोबल वार्मिंग के पीछे का प्रमुख कारण धरती के तापमान में हो रही लगातार बृद्धि है। धरती का बढ़ता तापमान यानी ग्लोबल वार्मिंग आज एक ऐसी समस्या बन चुकी है, जो हर एक देश के पर्यावरण और प्रकृति को प्रभावित कर रही है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से वर्ष 2,100 तक पृथिवी पर मौजूद 80 फीसदी ग्लेशियर पिघल सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो पीने का पानी समाप्त हो जाएगा और अकाल पड़ना शुरू हो सकता है।
खबरों के अनुसार, इस बार नए प्रस्ताव के तहत वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि चांद की धूल से अंतरिक्ष में बादल बनाकर सूर्य की किरणों को धरती पर सीधे सीधे आने से कुछ हद तक रोका जाय तो संभव है कि पृथिवी का तापमान कम हो सकता है। यानी कि अगर धरती पर आने वाली सूर्य की किरणों की गर्मी को रास्ते में ही कुछ हद तक ठंडा कर दिया जाय तो ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में सफलता मिल सकती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस अजीबोगरीब योजना के मुताबिक हमारा प्रयास होगा कि चांद की भूमि पर खनन करेंगे और उससे निकलने वाली धूल को सूर्य की ओर उछाल देंगे। वह धूल लगभग दो सप्ताह तक सूर्य और पृथ्वी के बीच अंतरिक्ष में तैरती रहेगी और फिर धीरे धीरे वही धूल एक बड़े क्षेत्र में फैलती जाएगी, जिसके कारण पृथिवी की और आने वाली सूर्य की किरणें कुछ मंद हो जाएंगी।
हालाँकि हम यह भी जानते हैं कि यह प्लान सुनने में जितना आसान लगता है, हकीकत में उतना आसान बिलकुल भी नहीं है। लेकिन ये सच है कि सूर्य की रोशनी को धरती तक आने से रोकने का प्लान भी नया नहीं है। सूर्य की किरणों की तपन को कम करके धरती को ठंडा करने का यह प्लान “सौर भू अभियांत्रिकी” या “सौर विकिरण” कहलाता है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि, क्योंकि इस प्लान को सफल बनाने के लिए प्रति वर्ष चांद की करीब एक करोड़ टन वजन की धूल की जरूरत होगी। और यदि हमारा ये प्लान सफल हो जाता है तो दुनिया में मानवजनित कार्बन उत्सर्जन को कम करन के लिए इंसानों को कुछ और भी समय मिल जाएगा।
वैज्ञानिकों के अनुसार, यदि हमें अनुमति मिल जाय तो इस तकनीकी योजना के तहत हम “सौर भू अभियांत्रिकी” या “सौर विकिरण” विधि के द्वारा धरती के चारों ओर “एरोसोल” के कणों की एक पतली परत को पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल में छोड़ सकते हैं।
“एरोसोल” यानी अति सूक्ष्म लेकिन ठोस कणों या तरल बूंदों के हवा या किसी अन्य गैस में समान रूप से मिश्रित हो जाने को कहा जाता है। ये एरोसोल या मिश्रण, प्राकृतिक या मानव जनित भी हो सकते हैं। हवा में उपस्थित एरोसोल को वायुमंडलीय एरोसोल कहा जाता है, जैसे – धुंध, धूल, वायुमंडलीय प्रदूषक के कण या फिर धुआँ आदि एरोसोल के प्रमुख उदाहरणों में हैं।
हालांकि वैज्ञानिक यहाँ ये भी मानते हैं कि इस तकनीक के कारण पृथिवी के वातावरण के साथ खिलवाड़ या छेड़छाड़ भी हो सकता है, यानी इसके बाद पृथिवी पर लगातार बारिश या फिर लगातार सूखे का मौसम भी बन सकता है और “ओजोन लेयर” को भी भारी नुकसान हो सकता है। और यदि ओजोन लेयर को नुकसान होता है तो फिर पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यों सहित सभी प्रकार के जीव जंतुओं को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि हालाँकि इसके लिए कुछ अन्य उपाय भी हैं जिसके द्वारा अंतरिक्ष में एक विशाल दर्पण या सैटेलाइटों के झुंड से प्रकाश को पृथिवी पर आने से रोकने का सुझाव दिया गया। लेकिन क्योंकि चांद पर धूल की कोई कमी नहीं है और साथ ही चंद्रमा के निचले गुरुत्वाकर्षण से धूल को बादलों के रूप में छोड़ना सैटेलाइटों के झुंड से कहीं अधिक सस्ता भी हो सकता है।